Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूपरदास : एकमात्र - "संतत्व" को अपने में और अपने को एकमात्र "संतत्व में देखता है इसलिए वह संत है। .
6. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी का विचार है कि सच्चा संत इस संसार में रहकर भी इसके विकारों से परे है। वह जल में कमल के पत्ते तथा जलपक्षी के समान है जो जल में रहकर भी भीगता नहीं है।'
7. डा. विनयमोहन के अनुसार - जो आत्मोन्नति सहित परमात्मा के मिलन भाव को साध्य मानकर लोकमंगल की कामना करता है वह सन्त है।'
इस प्रकार व्यापक अर्थ में किसी भी ईश्वरोन्मुख सज्जन पुरुष को सन्त कह सकते हैं।
कोश ग्रन्थों में भी इसके सही या उदात्त अर्थ को लेकर कभी कोई विवाद नही रहा । “सन्त" शब्द की व्युत्पत्तियाँ भी इसके उदात्त अर्थ की ओर ही संकेत करती हैं। सन्त शब्द की व्युत्पत्ति खोजने के लिए विद्वानों ने सत्, सन, शान्त एवं अंग्रेजी के सेण्ट आदि शब्दों के प्रयोग एवं अर्थ विभिन्नता आदि की पर्याप्त समीक्ष की है।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार - "सन्त” शब्द हिन्दी भाषा के अन्तर्गत एक वचन में प्रयुक्त होता है किन्तु यह मूलतः संस्कृत "सन्" का बहुवचन है । सन्” शब्द भी अस् - होना धातु से बने “सत्" का पुल्लिंग रूप है, जो शतृप्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिसका अर्थ केवल होने वाला व रहने वाला हो सकता है । इस प्रकार सन्त शब्द का मौलिक अर्थ शुद्ध अस्तित्व मात्र का ही बोधक है और इसका प्रयोग भी इसी कारण उस नित्यवस्तु या परमतत्त्व के लिए अपेक्षित होगा जिसका नाश नहीं होता, जो "सदा एक रस व अधिकृत रूप में विद्यमान" रहा करता है और जिसे सत्य के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है।'
डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के अनुसार सन्त शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है। कुछ विद्वान इसको “शान्त" शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं और 1. योग प्रवाह – डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल पृष्ठ 158 2. संत कवि दरिया : एक अनुशीलन डॉ, धर्मेन्द्र ग्रह्मचारी पृष्ठ 151 3. वही पुष्ठ 150 4. हिन्दी को मराठी सन्तों की देन आचार्य विजयमोहन पृष्ठ 56 5. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी - उत्तरी भारत की सन्त परम्परा पृष्ठ 4