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हम दावे के साथ कह सकते हैं कि जिनेश्वरसूरि से जिनवल्लभसूरि तक खरतर शब्द का नाम तक भी नहीं था।
उपरोक्त खरतराचार्यों के प्राचीन ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि से हुई है और खरतर मत के सिवाय तपागच्छ आदि जितने गच्छ हुए हैं उन सब गच्छवालों की भी यही मान्यता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि से ही हुई थी। अब आगे चल कर हम सर्वमान्य शिलालेखों का अवलोकन करेंगे कि किस समय से खरतर शब्द का प्रयोग किस आचार्य से हुआ है। इस समय हमारे सामने निम्नलिखित शिलालेख मौजूद हैं :
१. श्रीमान् बाबू पूर्णचंदजी नाहर कलकत्ता वालों के संग्रह किये हुए "प्राचीन शिलालेख संग्रह" खण्ड १-२-३ जिनमें २५९२ शिलालेख हैं, जिसमें खरतरगच्छ आचार्यों के वि. सं. १३७९ से १९८० तक के कुल ६६५ शिलालेख
२. श्रीमान् जिनविजयजी सम्पादित "प्राचीनलेखसंग्रह" भाग दूसरे में कुल ५५७ शिलालेखों का संग्रह है, जिनमें वि. सं. १४१२ से १९०३ तक के २५ शिलालेख खरतरगच्छ आचार्यों के हैं।
३. श्रीमान् आचार्य विजयेन्द्रसूरि सम्पादित 'प्राचीनलेखसंग्रह' भाग पहले में कुल ५०० शिलालेख हैं, जिनमें वि. सं. १४४४ से १५४३ तक के शिलालेख हैं उनमें २९ लेख खरतराचार्य के हैं।
४. श्रीमान् आचार्य बुद्धिसागरसूरि संग्रहीत "धातु प्रतिमालेख संग्रह" भाग पहले में १५२३, भाग दूसरे में ११५० कुल २६७३ शिलालेख हैं। जिनमें वि. सं. १२५२ से १७९५ तक के ५० शिलालेख खरतराचार्यों के हैं।
एवं कुल ६३२२ शिलालेखों में ७७९ शिलालेख खरतराचार्यों के हैं। अब देखना यह है कि वि. सं. १२५२ से खरतराचार्य के शिलालेख शुरु होते हैं। यदि जिनेश्वरसूरि को वि. सं. १०८० में शास्त्रार्थ के विजयोपलक्ष्य में खरतर-बिरुद मिला होता तो इन शिलालेखों में उन आचार्यों के नाम के साथ खरतर-शब्द का प्रचुरता से प्रयोग होना चाहिये था, हम यहां कतिपय शिलालेख उद्धृत करके पाठकों का ध्यान निर्णय की ओर खींचते हैं।
संवत् १२५२ ज्येष्ठ वदि १० श्रीमहावीरदेवप्रतिमा अश्वराज श्रेयोऽर्थं पुत्रभोजराजदेवेन कारापिता प्रतिष्ठा जिनचंद्रसूरिभिः॥
आ. बुद्धि धातु प्र. ले. सं., लेखांक ९३०