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टीका रची है, उसकी प्रशस्ति में लिखा है कि :
श्रीमज्जिनेश्वरः सूरिजिनेश्वरमतं ततः । शरद्राकाशशिस्पष्ट-समुद्रसदृशं व्यधात् ॥ १२ ॥ नवांग-वृत्तिकृत्-पट्टेऽभयदेवप्रभुर्गुरो । तस्य स्तम्भनकाधीशमाविश्चक्रे समं गुणैः ॥ १३ ॥ श्राद्धप्रबोधप्रवणस्तत्पदे जिन वल्लभः । सुरिर्वल्लभतां भेजे, त्रिदशानां नृणामपि ॥ १४ ॥ ततः श्री रुद्रपल्लीयगच्छ संज्ञा, लसद्यशाः ।
नृपशेखरतां भेजे, सूरीन्द्रो जिनशेखरः ॥ १५ ॥ इस प्रमाण से भी स्पष्ट होता है कि जिनेश्वरसूरि से जिनवल्लभसूरि तक तो खरतर का नाम निशान भी नहीं था, बाद में जिनदत्तसूरि को लोग खरतर खरतर कहने लगे। इसलिए ही तो जिनदत्तसूरि के खिलाफ जिनशेखरसूरि की परम्परा में खरतर शब्द को स्थान नहीं मिला है। अर्थात् जिनवल्लभसूरि के पट्टधर जैसे जिनदत्तसूरि हुए वैसे जिनशेखरसूरि भी जिनवल्लभसूरि के पट्टधर आचार्य हुए हैं
और उनका मत खरतर नहीं, पर उनके मत का नाम रुद्रपाली था। यदि जिनेश्वरसूरि से ही खरतर मत प्रचलित हुआ होता तो जिनशेखरसूरि अपने को रुद्रपाली गच्छ न लिख कर खरतर गच्छ की एक शाखा लिखते ! अतः इस प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है कि वि. सं. १४६८ तक तो किसी की भी यह मान्यता नहीं थी कि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद कभी मिला था। खुद जिनदत्तसूरि ने "गणधरसार्द्धशतक, सन्देहदोलावली, गणधरसप्तति, अवस्थाकुलक, चैत्यवन्दनकुलक, चर्चरी, उपदेशरसायन, कालस्वरुपकुलक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की पर आपने कहीं पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला और हम उनकी सन्तति श्रेणी में खरतर हैं।
___ 'खरतर' शब्द की उत्पत्ति तो जिनदत्तसूरि से हो गई थी, पर वह अपमानसूचक होने से किसी ने इस शब्द को अपनाया नहीं था। जिनदत्तसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए, उन्होंने भी किसी स्थान पर ऐसा नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि या जिनदत्तसूरि से हम खरतर हुए हैं। इतना ही नहीं पर जिनपतिसूरि ने (वि. सं. १२२३ में सूरिपद) जिनवल्लभसूरि कृत संघपट्टक ग्रंथ पर जो टीका रची है उसमें उन्होंने जिनेश्वरसूरि से जिनवल्लभसूरि तक के आचार्यों का अत्युक्ति पूर्ण गुण वर्णन करते हुए भी चैत्यवासियों की विजय में उपलब्ध हुआ खरतर बिरुद को चैत्यवासियों के खण्डन विषयक ग्रंथ में भी ग्रंथित नहीं किया, अतः यह बात