Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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इस प्रकार इन दोनों परम्पराओंके प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिपर दिगम्बर आचार्योंने टीका लिखो, केवल इसलिए हम उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति नहीं कहते । किन्तु उनकी शब्दयोजना, रचना शैली, और विषय विवेचन दिगम्बर परम्पराके अन्य कार्मिक साहित्यके अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक साहित्य के अनुरूप नहीं, इसलिए उन्हें हम दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृति स्वीकार करते हैं ।
अब आगे जिन चार उपशीर्षकोंके अन्तर्गत उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है उनपर क्रमसे विचार करते हैं—
( १ )
उन्होंने सर्वप्रथम 'दिगम्बर परम्पराने अमान्य तेवा कषायप्राभृत चूर्णि अन्तर्गत पदार्थो' इस उपशीर्षक अन्तर्गत क. प्रा. चूर्णिके ऐसे दो उल्लेख उपस्थित किये हैं जिन्हें वे स्वमतिसे दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध समझते हैं । प्रथम उल्लेख है - " सव्वलिंगेसु भज्जाणि ।” इस सूत्रका अर्थ है कि अतीत में सर्व लिंगोंमें बँधा हुआ कर्म क्षपकके सत्ता में विकल्पसे होता है । इस पर उक्त प्रस्तावना लेखकका कहना है कि 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे, एटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यता थी विरुद्ध छे ।' आदि । लेखकने उक्त सूत्र परसे यह निष्कर्ष कैसे फलित कर लिया कि न पण होय, चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां कारण कि वर्तमानमें जो क्षपक है उसके अतीत कालमें कर्मबन्ध के उस लिंगमें बाँधा गया कर्म क्षपकके वर्तमान में सत्तामें नियमसे होता है या विकल्पसे होता है ? इसी अन्तर्गत शंकाको ध्यान में रख कर यह समाधान किया गया है कि 'विकल्पसे होता है ।'
अब सवाल यह है कि उक्त प्र. 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे ।' समय कौन-सा लिंग था,
इस परसे यह कहाँ फलित होता है कि वर्तमान में वह क्षपक है कि अपने सम्प्रदाय के व्यामोह और अपने कल्पित वेशसे अभिप्राय फलित करनेकी चेष्टा की है ।
किसी भी वेश में हो सकता है। मालूम पड़ता कारण ही उन्होंने उक्त सूत्र परसे ऐसा गलत
थोड़ी देरके लिये उक्त ( श्वे. ) मुनिजीने जो अभिप्राय फलित किया है यदि उसीको विचार के लिए ठीक मान लिया जाता है तो जिस गति आदिमें पूर्वमें जिन भावोंके द्वारा बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्पसे बतलाये हैं वे भाव भी वर्तमान में क्षपकके विकल्पसे मानने पड़ेंगे । उदाहरणार्थ पहले सभ्यमिथ्यात्व में बांधे गये कर्म वर्तमानमें जिस क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं तो क्या उस क्षपकके वर्तमान में विकल्पसे सम्यग्मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा । यदि कहो कि नहीं, तो सम्यग्मिथ्यात्व में बँधे हुए जो कर्म सत्तारूपसे वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे होते हुए भी अतीत कालमें उन कर्मोंके बन्धके समय सम्यग्मिथ्यात्व भाव था इतना ही आशय जैसे सम्यग्मिथ्यात्व भावके विषयमें लिया जाता है उसी प्रकार सर्वलिंगों के विषयमें भी यही आशय यहाँ लेना चाहिए ।
हम यह तो स्वीकार करते हैं कि जैसे अतीत कालमें अन्य लिंगोंमें बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्पसे बन जाते हैं वैसे ही अतीत कालमें जिनलिंग में बाँधे गये कर्मोंके वर्तमान में क्षपकके विकल्पसे स्वीकार करने में कोई प्रत्यवाय नहीं दिखाई देता । कारण कि संयमभावका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण और जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है । यथा
संमाणुवादेण संजद- सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद- परिहारसुद्धिसंजद-संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ॥ १०८ ॥ जहण्गेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०९ ॥ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिट्ट देणं ॥ ११० ॥ - खुद्दाबंध पृ० ३२१-३२२ ।
यहाँ जयधवला टीकाकारने उक्त सूत्रकी व्याख्या करते हुए 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' यह लिखकर 'सर्वलिंग' पदसे निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त जो शेष सविकार सब लिंगोंका ग्रहण किया है वह उन्होंने क्षपक
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