Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( ३२ ) यहाँ पञ्चसंग्रहमें निरूपित पाठका उल्लेख किया है। कर्मप्रकृतिकी प्ररूपणा इससे भिन्न नहीं है। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पञ्चसंग्रहमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी परिगणना उद्वेलना प्रकृतियोंमें की गई है उसी प्रकार कर्मप्रकृतिमें भी उन्हें उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार किया गया है। कर्मप्रकृति चूणिमें प्रदेशसत्कर्मकी सावि-अमादि प्ररूपणा करते हुए लिखा है___ अणताणुबंधीणं खवियकम्मंसिगस्स उव्वलंतस्स एगठितिसेसजहन्नगं पदेससंतं एगसमयं होति।
यह एक उदाहरण है । अन्य प्रकृतियोंके विषयमें मूल और चूणिका आशय इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। किन्तु जैसा कि पूर्व में निर्देश कर आये हैं कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर मोहनीयकी अन्य किसी प्रकृतिकी उद्वेलना प्रकृतिरूपसे परिगणना नहीं की गई है।
मतभेदसम्बन्धी दूसरा उदाहरण मिथ्यात्वके तीन भाग कौन जीव करता है इससे सम्बन्ध रखता है। श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें यह स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि दर्शनमोहकी उपशमना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व कर्मको तीन भागोंमें विभक्त करता है । पंचसंग्रह उपशमना प्रकरणमें कहा भी है
__ उवरिमठिइअणुभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए।
देसघाईणं सम्म इयरेणं मिच्छ-मीसाइं ॥ २३ ॥ कर्मप्रकृति और उसकी चूणिमें लिखा है
तं कालं बीयठिई तिहाणुभागेण देसाइ त्थ ।
सम्मत्तं सम्मिस् मिच्छत्तं सव्वघाईओ॥ १९ ॥ चूर्णि-चरिमसमय मिच्छद्दिट्ठी से काले उवसमसम्मदिठ्ठि होहि त्ति ताहे बितीयट्टितीते तिहा अणुभागं करेति ।
अब इन दोनों प्रमाणोंके प्रकाशमें कषायप्राभूत चूणिपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें प्रथम समयवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीवको मिथ्यात्वको तीन भागोंमें विभाजित करनेवाला कहा गया है। यथा
१०२. चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसमसम्मत्तमोहणीओ १०३. ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा। १०४. पढमसमय उवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि ( पृ० ६२८)
यहाँ कर्मप्रकृति और उसकी चूणिके विषयमें इतना संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि गाथामें जो 'तं कालं बीयठिई' पाठ है उसका चूर्णिकारने जो अनुवाद किया है वह मूलानुगामी नहीं है। मालूम पड़ता है कि चूर्णिका प्रारम्भका भाग कषायप्राभृत चूर्णिका अनुकरणमात्र है। इतना अवश्य है कि कषायप्राभत चणिको वाक्यरचना पीछेके विषयविवेचनके अनुसन्धानपूर्वक की गई है और कर्मप्रकृति चूर्णिकी उक्त वाक्य रचना इससे पूर्वकी गाथा और उसकी चूर्णिके विषयविवेचनको ध्यानमें न रखकर की गई है। जहाँ तक कर्म प्रकृतिको उक्त मूल गाथाओंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन दोनों गाथाओं द्वारा दिगम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण किया गया है, किन्तु उक्त चूणि और उसकी टीका मूलका अनुसरण न करती हुईं श्वेताम्बर आचर्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण करती हैं। फिर भी यहाँ विसंगतिकी सूचक उल्लेखनीय बात इतनी है कि श्वेताम्बर आचार्योंने उक्त टीकाओंमें व अन्यत्र मिथ्यात्वके तीन हिस्से मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्वीकार करके भी उनमें मिथ्यात्वके द्रव्यका विभाग उसी समय न बतलाकर प्रथमोशम सम्यक्त्वके प्रथम समयमें स्वीकार किया है। यहाँ विसंगति यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें तो तीन भाग होनेको व्यवस्था स्वीकार की गई और उन तीनों भागोंमें कर्मपुंजका बॅटवारा प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयसे स्वीकार किया गया। .