Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( ३० ) 'ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि । -कषाय प्राभूत चूणि मूल पृ० ८६२ । लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि।
षट्खण्डागम धवला पु० ६. पृ० ३७९ (आ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पञ्चसंग्रहमें 'अवरित' के लिए 'अजय' या 'अजत' शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभूत और षट्खण्डागममें यह शब्द इस अर्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके लिये कर्मप्रकृति ( श्वे० ) पर दृष्टिपात कीजिए
वेयगसम्मद्दिट्ठी चरित्तमोहुवसमाइ चिट्ठतो।। अजउ देशजई वा विरतो व विसोहिअद्धाए।-उपश० करण ।। २७॥ इसी प्रकार पञ्चसंग्रहमें भी इस शब्दका इसी अर्थमें प्रयोग हुआ है।
इनके अतिरिक्त ,वरिसवर' 'उव्वलण' आदि शब्द हैं जो श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक ग्रन्थोंमें ही दृष्टिगोचर होते हैं, दिम्बर पराम्पराके ग्रंथोंमें नहीं। ये कतिपय उदाहरण हैं। इनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कषायप्राभृत और उसकी चूणि ये दोनों श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति न होकर दिगम्बर आचार्योंकी ही अमर कृति है।
. ( २ ) कषायप्राभृत और उसको चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेके लिये उनका दूसरा तर्क है कि दिगम्बर आचार्यकृत ग्रन्थोंपर श्वेताम्बर आचार्योंकी टीकाएँ और श्वेताम्बर आचार्यकृत ग्रंथोंपर दिगम्बर आचार्योंकी टीकायें है आदि । उसी प्रकार कषायप्राभत मूल तथा उसकी चूणि पर दि० आचार्योंकी टीका होनेमात्रसे उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृतिरूपसे निश्चित नहीं किया जा सकता। ( प्रस्तावना पृ० ३० )
यह उनका तर्क है। किन्तु श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थोंसे कषायप्राभूत और उसकी चूणिमें वर्णित पदार्थ भेदको स्पष्ट रूपसे जानते हुए भी वे ऐसा असत् विधान कैसे करते हैं इसका किसीको भी आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा । 'मुद्रित कषायप्राभूत चूणिनी प्रस्तावनामां रजू थपेली मान्यतानी समीक्षा' इस उपशीर्षकके अन्तर्गत उन्होंने पदार्थ भेदके कतिपय उदाहरण स्वयं उपस्थित किये है। इन उदाहरणोंको उपस्थित करते हुए उन्होंने कषायप्राभूतके साथ कषायप्राभत चणि कर्मप्रकृतिणि इन ग्रन्थोंके उद्धरण दिये है। किन्तु श्वेताम्बर पञ्चसंग्रहको दृष्टि पथमें लेने पर विदित होता है कि उक्त ग्रन्थ भी कषायप्राभूत चूणिका अनुसरण न कर कर्मप्रकृति चूर्णिका ही अनुसरण करता है । यथा
(१) मिश्रगुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृति भजनीय है इस मतका प्रतिपादन करनेवाली पञ्चसंग्रहके सत्कर्मस्वामित्वकी गाथा इस प्रकार है
सासयणंमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥ १३५ ।। कर्मप्रकृति चूणिसे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। (चूणि सत्ताधिकारप० ३५) [प्रदेशसंक्रम प.९४]
(२) संज्वलन क्रोधादिका जघन्य प्रदेशसंक्रम अन्तिम समयप्रबद्धका अन्यत्र संक्रम करते हुए क्षपकके अन्तिम समयमें सर्वसंक्रमसे होता है। यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है और यही मत श्वेताम्बर पंचसंग्रहका भी है। यथा
पुंसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए।
सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए ॥ ११९ ।। (३) प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टिके, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय मिथ्यात्वके तीन पुंज होनेपर एक आवलि काल तक सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रम नहीं होता यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है। पंचसंग्रह प्रकृति संक्रम गाथा ११ को मलयगिरि टीकासे भी इसी मतकी पुष्टि होती है। यथा