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इस प्रकार दीक्षा की भावना हुई ।
पत्नी को कहा : मैं का.सु. १५ के बाद दीक्षा लूंगा । रजा नहीं दोगे तो चारों आहार का त्याग ।
ससुरजी मिश्रीमलजी ने मेरी बात को मजबूत की। उन्होंने कहा कि मेरी भी वर्षों से दीक्षा की भावना है ।
पत्नी ने कहा कि हमारा क्या होगा ? हमारा तो कुछ विचार करो । हमें भी तैयार करो । हम भी दीक्षा लेंगे ।
उस वक्त चातुर्मास-स्थित पू. सुखसागरजी ने सलाह दी: तुम दीक्षा तो लोगे, लेकिन किसीका परिचय किया है? अभ्यास है? प्रथम अभ्यास करो । किसी साधु का परिचय करो । बच्चों को तैयार करो । बाद में दीक्षा लेना ।
मुझे यह सलाह ठीक लगी ।
१२ महिने तक पालीताना रहा । चातुर्मास में अहमदाबाद पू. बापजी म. तथा पू. कनकसूरिजी के पास रहा । रतनबेन भावनगर में निर्मलाश्रीजी के पास रहे । उस वक्त मुमुक्षुपन में प्रभाकरवि. तथा नानालाल भी थे ।
चातुर्मास के बाद भावनगर से समाचार आये कि स्वभाव सेट नहीं हो रहा है ।
फिर धंधुका में पू. कनकसूरिजी ने सा. सुनंदाश्रीजी का नाम सूचित किया ।
दीक्षा का मुहूर्त न निकले तब तक छ विगइओं का त्याग होने से जयपुर से सासु-ससुरजी आ पहूंचे ।
कई लोग दीक्षा का विरोध भी करते थे। मैं उन्हें कहता था : आप भला तो जग भला ।
इस प्रकार गृहस्थी जीवन का परिचय पूरा हुआ । दीक्षा के बाद तो सब जानते है ।
- पू. आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. नागोर (राज.), जैन उपाश्रय वि. सं. २०४१, वै. सु. २ दोपहर ३.३० से ४.४५ तक
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