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होने के बाद संगीत व भक्ति-रस की लालच से जाने लगा । गांव में कोई भी जिनालय में पूजा हो, मेरी उपस्थिति अवश्य रहती ।
शादी के समय भी रात्रि-भोजन नहीं किया । प्रकृति से मेरा बोलना कम था, लेकिन हिसाब में मैं पक्का था ।
फलोदी में सुबह ८.०० बजे दूध पी कर चिंतामणि मंदिर में चला जाता । दोपहर भोजन के लिए बहत देरी से घर पहुंचता । कभी-कभी २-३ भी बज जाते । दोपहर सिर्फ एक घंटा चनणमलजी के साथ दलाली कर के संगीत सीखने चला जाता । कभी-कभी जिम कर मंदिर में पूरा दिन कायोत्सर्ग आदि में बीता देता । परिचित पूजारी बाहर से ताला लगा देता । भीतर मैं अकेला परलोक - आत्मा आदि की विचारणा करता... अपनी समझ के मुताबिक चिंतन के चक्कर चालु रहते ।
। एक वक्त भोजन के समय मेरी मां ने सहज रूप से बात की : 'इस तरह कब तक खाना है ?' ___मुझे भी विचार आया कि व्यवहार के लिए भी मुझे बाहर जाना चाहिए ।
र कमाई के लिए कभी खास प्रयत्न नहीं किया है । प्रभु पर पक्का भरोसा । प्रभु के बल से मेरा कार्य बराबर हो जाता ।
मां के कहने से मैं राजनांद गांव गया । वहां भी मैं धर्म भूला नहीं हूं । धार्मिक नियम अच्छी तरह से पालता था । पूजा-सामायिक आदि कैसी भी परिस्थिति में करने ही है, ऐसा मेरा संकल्प था ।
_पहले मैं तिविहार करता, लेकिन संपतलाल छाजेड़ के कहने से मैं चोविहार करने लगा ।
एक वक्त दुकान में काम ज्यादा होने से रात को दो बज गये । अब क्या किया जाय ? देवसिय प्रतिक्रमण तो हो नहीं सकता । अतः मैं सामायिक करने लगा । सामायिक करते हुए मुझे सेठजी देख गये और उन्हें आश्चर्य हुआ । कहा : 'दुकान का काम तो होता रहेगा । तू तेरा धर्म का कार्य पहले कर लेना ।'
मेड़ता रोड़ तथा करेड़ा जैसी प्रतिमा (कालीया बाबा) राजनांद गांव में थी और पास में वसंतपुर में कपड़े का गोडाउन