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था । वहां से माल देने का काम करता था । काम तो एक घंटे जितना ही रहता । बाकी के घंटे गोडाउन में जीव-जगत् आदि तत्त्वों के चिन्तन में गुजारता था । सच कहूं तो ध्यान का रंग तब से लगा है। आ उस वक्त प्रतिमास २५.०० रूपये मिलते थे। फिर दूसरी वक्त राजनांदगांव आया तब संपतलालजी मृत्यु को प्राप्त हुए । जमनालालजी को मेरी धर्मक्रिया अच्छी नहीं लगने से मैंने नोकरी छोड़ कर सोना-चांदी का धंधा शुरू किया, किन्तु उसमें जमा नहीं । फिर कपड़े का धंधा शुरू किया । उसमें पक्कड़ आ गई। क्योंकि ओरिस्सा के जयपुर में कपड़े का धंधा सीखा हुआ था ।
मंदिर में जाता तब जेब में जितने पैसे होते वे सब भंडार में खाली कर देता । नोकरी के समय तो थोड़े ही पैसे रहते, परंतु धंधा शुरु करने के बाद ज्यादा रहते, लेकिन मंदिर में जाउं तब सब भंडार में डाले बिना रहता नहीं ।
वहां (राजनांद गांव में) पू. वल्लभसूरिजी के पू. रूपविजयजी का चातुर्मास था। उनके पास पू. रामचन्द्रसूरिजी का 'जैन प्रवचन' साप्ताहिक आता था । उसे पढने से वैराग्य में वृद्धि हुई । वैराग्य इतना मजबूत हो गया था कि उसके बाद किसीके भी मरण से आंसु नहीं आये । हां... पू. कनकसूरिजी के कालधर्म के समय आंसु आये थे। कि उस वक्त अगर दीक्षा ली होती तो पू. रामचन्द्रसूरिजी के पास ली होती ।
वि.सं. २००६ में मां का और २००७ में पिताजी का निधन हुआ। (दोनों के बीच सिर्फ छ महिने का फासला था ।) फिर पू. रूपविजयजी के पास चतुर्थ व्रत लिया । सब लोग कहने लगे थे कि अक्षयराज दीक्षा लेगा । यद्यपि उस वक्त मेरा दीक्षा का कोई विचार नहीं था। प्रथम पुत्र ज्ञानचंद (पू. कलाप्रभसूरिजी) का जन्म वि.सं. २०००, का.सु. ९ शाम को पांच बजे हुआ । द्वितीय पुत्र आसकरण (पू. पं. कल्पतरुविजयजी) का जन्म वि.सं. २००२, पोष व. ४ (गुजराती मार्ग. व. ४) रात को ११.३० बजे हुआ ।
फिर तो ऐसा वैराग्य आया कि पैसे किसके लिए कमाना ?