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तारा का।
नीय जानना यातें व्यवहार को परमार्थ का कहनहारा मानि स्थापन योग्य है। अथवा ब्राह्मणको म्लेच्छ न होना इस वचन ते व्यव हार नयकू सर्वथा उपादेय मानकर अगीकार करना । इस पंथन से व्यवहार नय उपादेय है जंगाकार करने योग्य है इसके आगे व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है ऐसा निरूपण करें है । "जोहि सुदेश भिगच्छदि अप्पामि तु केवलं सुद्धं । तं सुदके व लिमिसियो भांति लोगप्पदीवयरा, ६ “जोसुदशायं सव्वं जायदि सुद केवलिं तमाहुजिया । गाणं अप्पासच्वं जम्लामुदकेवलीतला,, १०
आत्मख्यातिः यः श्रुतेन केवलंशुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स त केवल तिव्यवहारः । तदत्रसर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा, न तावद्नात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थ, पंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः ततोगत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यातः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः श्रात्मा न जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञा निनोभेदेन व्यपदिश्यता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रएव प्रतिपद्यत न किचिदप्यतिरिक्त अथच यः श्रुतेन केवलशुद्धमात्मानं जानाति स श्रतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारपरमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ।
हिंदी टीका - जो श्रुतकरि केवल शुद्धआत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली है यह तो प्रथम परमार्थ है । वहुरि जो श्रुतज्ञान सर्व: जाने हैं सो श्रुतकेबली है । यह व्यवहार है । सो यहां परीक्षा दोय पक्षकार कहे हैं। जो यह कहा हुवा सर्व हीं ज्ञान, अनात्मा
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