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श्रमण-धर्म
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अर्थात्-केवल मुडित हो जाने मात्र से ही करता है, उसे पापों का शमन को होने से श्रमण कोई श्रमण नहीं होता किन्तु समता की साधना से कहते हैं। ही श्रमण कहलाता है।
___उपरोक्त विवेचन से श्रमण संस्कृति की महानता ___ सुप्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रन्थ “धम्म पद" में तथागत् और उच्चता स्वर सिद्ध है। यदि यह कह दिया भगवान बुद्ध ने 'श्रमण' शब्द पर निम्न प्रकार जाय तो सर्व प्रकारेण विशेष उपयुक्त होगा कि प्रकाश डाला है:
"भारतीय संस्कृति की आत्मा श्रमणसंस्कृति है।" न मुन्ड केन समणो अव्यतो अलिक भणं। इसी श्रमण संस्कृति को जैन धर्म ने अपने साधुओं इच्छालोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति ||६ के लिये प्ररूपण किया और इसी महान उच्च
अर्थात्-जो व्रतहीन है, मिथ्या भाषी है, वह संस्कृति का अनुशीलन करने से ही आज जैन श्रमण मुन्डित होने मात्र से ही श्रमण नहीं होता। इच्छा अपनो साधुचर्या के लिये जम श्रमण भारतवर्ष को लोभ से भरा मनुष्य क्या श्रमण बनेगा?
ही नहीं समस्त विश्व के संत समाज में विशिष्ट एवं योवो च समेति पापानि अणु थूलानी सच्चसो। अनुपमेय बने हुए हैं । और ऐसे महान संतों के समितत्ता हि पापानं समणाति पवुन्चति ॥?॥ संरक्षण में चलने वाले जैन धर्म का पर्यायवाची
अर्थात्-जो छोटे बड़े सभी पापों का शमन नाम 'श्रमण धर्म' बन गया है
श्रमण-धर्म
["श्रमण-धर्म" के सम्बन्ध में जैनसमाज के महान्-श्रद्धय संत कविवर उपाध्याय मुनिराज श्री अमरचन्दजी महाराज ने अपने "श्रमण सत्र" प्रन्थ में अति गवेषणापूर्ण विवेचन दिया है-हम उसे ही यहां उद्धृत करना विशेष उपयुक्त मान कर 'लेखक' के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वह लेख यहाँ उद्धृत करते हैं।
• लेखक ] __ श्रावक-धर्म से आगे की कोटि साधु-धर्म की है। श्राकाश । इस जड़ आकाश में तो मक्खी मच्छर साधु-धर्म के लिए हमारे प्राचीन आचार्यों ने आकाश भी उड़ लेते हैं, परन्तु संयम-जीवन की पूर्ण पवित्रता यात्रा शब्द का प्रयोग किया है। प्रस्तु, यह साधु. के चैतन्य आकाश में उड़ने वाले विरले ही कर्मवीर धम की यात्रा साधारण यात्रा नहीं है। आकाश में मिलते हैं। उड़ कर चलना कुछ सहज बात है ? और वह प्रा. साधु होने के लिए केवल बाहर से वेष बदल काश भी केसा ? संयम जीवन की पर्ण पवित्रता का लेना ही काफी नहीं है, यहां तो अन्दर से सारा
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