________________ XNXXTARIKAnxinsxcemma -AAN ( 37 ) विना सन्तोप नहीं होता कि चेतन एक स्वतन्त्र तत्त्व है। वह / शान से या अज्ञान से जो अच्छा बुरा कर्म करता है उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है और इसीलिये उसे पुनर्जन्म के चक्कर में धूमना पड़ता है / पुनर्जन्म को वुद्ध भगवान् ने भी माना है / पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निटशे कर्मचक्रकृत पुनर्जन्म को मानता है। यह पुनर्जन्म का स्वीकार आत्मा के अस्तित्व को मानने के लिये प्रवल प्रमाण है / इस प्रकार श्रात्मा के अस्तित्व मानने पर ही संसारचक्र में भ्रमण वा , उससे निवृत्ति (निर्वाण पद) की प्राप्ति मानी जा सकती | है। कारण कि कर्म से ससार और अकर्म से मोक्षपद की | प्राप्ति होती है। इस स्थान पर अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब / सव आस्तिकवादी फर्मों को मानते हैं तो फिर जैनदर्शन। में कर्मों के मानने की क्या विशेषता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रथम कर्म ग्रंथ की प्रस्तावना में लिखा है कि कर्म तत्त्व के विषय में जैन दर्शन की विशेषता। जैन दर्शन में प्रत्येक कर्म की वध्यमान, सत् और उदयमान ये तीन अवस्थायें मानी हुई है। उन्हें क्रमशः वन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं। जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की इन अवस्थाओं का वर्णन है। उनमें वध्यमान कर्म को 'क्रियमाण' सत्कर्म को 'सञ्चित' और उदयमान को 'प्रारब्ध' कहा है / किन्तु जैन शास्त्र में शानावरणीय आदि रूप से कर्म का 8 तथा 148 मेदों में वर्गीकरण किया है, और इसके द्वारा ससारी आत्मा की अनुभव सिद्ध भिन्न भिन्न अवस्थाओं का जैसा विशद #विवेचन किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। EXAXEXXEREKARTEKATIHARMA KARKE Xxnxxxnxx RE- XXxxxxxxxx ,