Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 180
________________ ( Herit T RIPELLEndan ( 171 ) . श्रर्थ--स्वभाव से न कोई वस्तु सुन्दर है न असुन्दर "तु जिसको जो पदार्थ अच्छा लगता है उसके लिये यही पदार्थ सुन्दर है। परस्परं मर्मकथनमात्मविक्रम एव 63 श्रथे--परस्पर मर्म कथन करना ही कलह का फल है। क्षणिकचित्तः किश्चिदपि न साधयति 64 अर्थ-~क्षणिक चित्त वाला कोई भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता। स्वतन्त्रः सहसाकारित्वात सर्व विनाशयति 65 श्रर्थ~स्वतंत्र व्यक्ति विना विचारे काम करने से सब कुछ नष्ट कर देता है। अलसः सर्वकर्मणामनधिकारी 66 श्रर्थ--श्रालसी सब कामों के अयोग्य होता है। प्रमादवान् भवत्यवश्यं विद्विपां वशः 67 अर्थ- प्रमाद युक्त व्यक्ति अवश्य चैरियों के वश पड़ जाता है। ___ कालमलभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तेत 68 अर्थ-जय तक ठीक मौका नहीं मिलता तब तक शत्रु के साथ भले प्रकार से वर्तना चाहिए / किन्नु खलु लोको न वहति मी दग्धुमिन्धनम् 66 अर्थ-क्या लोग इन्धन को जलाने के लिये शिर पर नहीं उठाते हैं ? अवश्य उठाते हैं। REASIEXXKAKERAYERIESXXXIETY S

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