Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: 

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Page 179
________________ GEGEGLIGGER ENEFIEIEES मृगाः सन्तीति किं कपिन क्रियते 56 अर्थ-क्या मगों मप से रुपकलोग पेती नहीं करते ! अजीर्यमपाद किं मोजनं परित्पन्यसे 57 / अर्थ-+पा प्रनीस के मय से मोसन की परित्याग विप जा सकता है। प्रियंवदः शिखीव विपत्सर्पानुप्यादयति 58 ' अप-विस प्रकार मोर के राम से सर्प माग जाते। उसी प्रकार मिप माषण से भाग मारो। दुरारोहपादप इस दण्गभियोगेन फलप्रदो भवति नीचमरुति 59 मर्थ-तुरारोह पर मिस प्रकार बलगम सही पस देवारसी प्रकार मीच मरुति पाने पुरप भी बरसे अह त / स महान् पो मिपस्म पर्यमवसम्मते 60 / मर्थ--पही पानी पिपत्तिकास में भी प्रबलम्बन उचापकसं हि सर्वकार्येषु सिबीनाप्रपमोतराप६१ मर्प-मित की पाऊत्तता ही सर्व कापी की सिपि में पामा भम्सराप प्रात् सब सह पर वित्त की पार सता ही कार्य मिसि में पापिन / न समारेन किमपि पस्तु मन्दरमसन्दरं वा पस्य M यदेव प्रतिमाति तस्प तदेव मुन्दरम - , -, 2SKE-2GIE

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