Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 196
________________ m-BAAR 24XIXXHD ( 187 ) नि हो किन्तु समझदार आदमी की दृष्टि में वह ताड़ के वृक्ष के वरावर है। .5 कृतलता की सीमा किये हुए उपकार पर अवलम्मित हा है। उसका मूल्य उपकृत व्यक्ति की शराफ़त पर निर्भर है। 6 महात्मायों की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो जिन्होंने मुसीवत के वक्त तुम्हारी सहायता की। 7 जो किसी को कष्ट से उवारता है जन्म जन्मान्तर तक उस का नाम कृतज्ञता के साथ लिया जायेगा। 8 उपकार को भूल जाना नीचता है लेकिन यदि कोई भलाई के बदले वुराई करे तो उस को फौरन ही भुला देना शराफत की निशानी है। हानि पहुंचाने वाले की यदि कोई मेहरवानी याद आ ! जाती है तो महाभयकर व्यथा पहुंचाने वाली चोट उसी दम / भूल जाती है। 10 और सय दोपों से कलंकित मनुष्यों का तो उद्धार हो / सकता है किन्तु अभागे अकृतज्ञ मनुष्य का कभी उद्धार न होगा। EKRITERLXRXY RAIXXXRAKERACLEARRAXXXXX आत्म संयम 1 श्रात्म संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है, किन्तु असंयत इन्द्रिय लिप्सा रौरव नरक के लिये खुली शाह राह है। 2 आत्मसयम की अपने खजाने की तरह रक्षा करो उस से पढ़कर इस दुनिया में जीवन के पास और कोई धन नहीं है। 3 जो पुरुप ठीक तरह से समझ बूझकर अपनी इच्छाओं // (

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