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________________ मुख्य वक्तव्य RAIEEEXXXCODXXKOT CM. -.01 . . SEXRANKEDAREKARATAHARASHRA प्रिय पाठको आत्मा को ससार चक्र में परिभ्रमण करते हुए शुभाशुभ कर्मों के प्रयोग से प्रत्येक पदार्थों की प्राप्ति हुई और भविष्यत् काल में यदि मोक्ष पद उपलब्ध न हुआ तो अवश्यमेव होगा / अतः धर्म प्राप्ति का होना असम्भव नहीं है तो कठिनतर तो अवश्यमेव है। कारण कि धर्म प्राप्ति कर्मक्षय वा क्षयोपशम भाव के कारण से ही उपलब्ध हो सकती है। धर्म प्रचार से भी बहुत मे सुलभ आत्माओं को धर्मप्राप्ति हो सकती है इसलिये धार्मिक पाठशालाओं की अत्यन्त आवश्यकता है, जिससे प्रत्येक बालक और वालिकाओं के पवित्र और सकोमल हृदयों पर धार्मिक शिक्षाएँ अकित हो जाएँ। यद्यपि भारतवर्ष में मासारिक उन्नति के लिये अनेक राजकीय पाठशालाएँ वा विश्वविद्यालय विद्यमान हैं और उनमें प्रतिवर्ष सैकड़ों विद्यार्थी उत्तीर्ण होकर निकलते हैं तथापि धार्मिक शिक्षाओं के न होने से उन अविद्यार्थियों का चरित्र सगठन सम्यगतया नहीं देखा जाता इसका मुख्य कारण यही है कि वे विद्यार्थी प्रायः धार्मिक शिक्षा से वचित होते हैं / अतः उन ETERAEXEEXIMALKERAISATIRAKXCREAKER pm - mir - - - --
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________________ -ममननपद मानपEx. विपार्पियों के माता पिताओं को पोग्ग है कि जिस प्रकार सांसारिक समवि करते हुए अपने पुत्र और पुत्रियों को देखना भाहते है ठीक उसी प्रकार अपने मिव पाक और पाकिकामों * पार्मिक मीपन देखने की मी पेश करें। जिससे उनके पवित्र जीपम मविप्पत् की जनता के लिए मार्श रूप / बन माएँ। पार्मिक शिक्षाएं पोनों प्रभर की पाठशागों से सप मम्मए सकती₹से किएनीय पाठशाम्मो सेवागमवा की भोर से स्थापित पाठयाममों से / दिन 2 पाठशामों में पार्मिक शिषाएँ विशेष वा अनिवार्य रूप से दीगावी ते न उन पाठशाठामों से निपापियों को विशेप प्रम मेना ! पाहिए कारण किये पार्मिक शिपाय इस सम्म से सर पर मेक पक काम मातीमारी नहीं कि मन्तिम पर। ना निर्माण पर की प्राप्ति को बावामा पार्मिक पाठयामों को सुरक्षित रहन्ध और फिर उनसे मम प्राप्त करना पहरी मार्य पुरुषों का मुस्पोदेश्य होना चाहिए। मम प्रम मा पस्थित होता है कि पार्मिक शिक्षा दिन / का इस प्रम के समाधान में परा माता है कि भात्मा को पर्मों से मयुक्त मनापि मानते १ए फिर पन फों को BREFEREKHADEEODESE Peace .. ESEEL
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________________ EXICORAKAAREERRAATXXEKXcom BRARIERTAINMEIGARLXXKARMINAME-MA-- धार्मिक शिक्षाप्रो द्वारा आत्मा से पृथक् करने की चेष्टा करते रहना यही धार्मिक शिक्षाओं का मुख्योद्देश्य है / अतः सर्व धर्मों में सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र प्रधान श्री जैन धर्म की धार्मिक शिक्षाएँ परम प्रधान हैं। मेरे हृदय में चिरकाल से ये विचार उत्पन्न हो रहे थे कि एक इस प्रकार की शिक्षावली के भाग तय्यार किये जावें, जिनके पढ़ने से प्रत्येक विद्यार्थियों को जैनधर्म की धार्मिक शिक्षाओं का सौभाग्य उपलब्ध हो सके / तब मैंने स्वकीय विचार श्री श्री श्री 1008 स्वर्गीय श्री गणावच्छेदक वा स्थविरपदविभूषित श्री गणपतिराय जी महाराज के चरणों में निवेदन किये तव श्री महाराज जी ने मुझे इस काम को प्रारम्भ कर देने कि आज्ञा प्रदान की तब मैंने श्री महाराज जी की आज्ञा शिरोधारण करके इस काम को आरम्भ किया / हर्प का विषय है कि इस शिक्षावली के सात भाग निकल गये और कई भाग तो छठी श्रावृत्ति तक भी पहुंच चुके हैं जैन जनता ने इन भागों को अच्छी तरह अपनाया है। अब इस शिक्षावली का अष्टम भाग जनता के सामने श्रा रहा है इस भाग में उन उपयोगी विषयों का संग्रह किया गया / है जिस से अष्टम श्रेणी के बालक वा वालिकाएँ भली प्रकार से STREXTERTA ITRAM FIGRAPARXAXXXEXEXXEDDREDEXEEEXA
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________________ TREEeasantarves -- मम से सकर्मवार का सस्पताल परिसापार वार्म पुरूपापार भयरय पठनीय हनक अप्पपन से प्रत्येक पति का पास्तविक गम होसकता है। यह सब श्री श्री भी 1008 गयापक परिमपिव / मी मुनि परामरास श्री महाराय की मामी श्री श्री प्रबचक पर पिपिव भी मुनि शरिणाम नी मदाराम की पा काही फसदमो में इम सम को पूरा कर मका / अतः विचारियों कोपोग्य किये जैन धर्म की शिक्षामो से स्वयम्म को पवित्र - - - - गुरुपरपरसेवी भारमा
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________________ HIKARAxxx XXXAAAAXXEXB EXExxanxxxamroxERXXXDARODXEXXXXXIIXEDXX आत्मशुद्धिभावना (लेखक-श्रीयुत सेठ मनसाराम जी जीन्द) हे श्री जिनेन्द्र भगवन् / श्रीसिद्धभगवन् / श्रीकेवलीभगवन् / श्राप को मेरा अनेक वार नमस्कार हो / हे सर्वज्ञ वीतरागप्रभु ! मैं अनादि कालसे श्रज्ञान वश ससार चक्र मे फसा हुवा चारों गतियों में अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक दु.खों का अनुभव करता आया हू। मेरे अति पुण्य और श्योपशम भाव के उदय से प्रार्य क्षेत्र, मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, सत समागम, शास्त्रश्रवणादि, धर्म प्राप्त करने के दस वोलो की योगवाइ इस जन्म में मुझ को मिली है / हे परमारमन् ! अव आपके चरण कमलों में प्रार्थना करके मे यह चाहता हूँ मेरी श्रास्मा श्राठों प्रकार के कर्म मल 4 से रहित होकर शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष गति को प्राप्त हो आपके पवित्र सद् | जीवन का अनुकरण करू / हे शाशनदेव / मेरी बुद्धि निर्मल हो तथा श्राप मेरे हृदय कमल में ज्ञान द्वारा व्यापक होकर मेरी श्रात्मा में प्रकाशमान हूजिये जिससे मेरी प्रात्मा का निज गुण सम्यक्ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चारित्र सम्यक्तप शुद्ध क्षायकसम्यक्स्व रत्न प्रकट हो / हे अनन्त शनिमान् प्रमु जबतक मेरा मोक्ष न हो इस भव पर भवमें मेरा हर रोम हर स्वास हर समय श्रापकी पवित्र शरण प्राप्त कर आपके घधनों पर अटल श्रद्धा भग्नि रहे में सदा धापके फ़रमाये हुए पाच सुमति तीन गुप्ती वा धर्म का ही पालन करता रहू श्रापके शासन में परम प्रवन श्रद्धावान होते हुए मुझे दासत्व प्राप्त होना श्रेय है परन्तु जिन वचनों में RELATExnxxx XXCXCX Xxnxxsari
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________________ मममममम E-SEE EXHIBHERE भरा विहीव होम पर परा विभूति में मुमे इपा मही पाकि प्रापही समान में पता और मन बने से मेरा संसार सापा से पार होगा विवित हैपरम सच मेरे भतारपा मारा मेरी मारमा मिपाल मा पाच प्रमाणादि पांच बार रिमा एस पारी मेधुर परिमर प्रेष माष मारा धोम राय पापि अमर पापा से निसार समुह में हमारे पासा सर्व प्रभर भिषा सदा सम संग किनारपीच पंम पारा मार दामावर प अमित पण पाव मबाब पीचापि पारा मापबारमामा मार पावारिस हापधर्म में कमों की बिमारत मोपच काय पारी प्रमु! मेरी प्रास्मा बग शान्ति रस सागर में धर्म माम माम सपी प्रति रम्य निर्मश पर में पीत, क परपा की बारात्रों में साठ मनावित होकर योग रिपरि मृत बागपती हे च प्रमु / मेरा विचर, चार शापार सदराम मरी प्रारमा में सरासममालमियास रो बाम दगम पर अपपप समर मर सपोनलिोग पमा म विहार मरना में मम भाष में। मेरी मावीमा : मार माह बाये अहो नामारिला की त्या में भी थाम हरे संसार प्रति मासालामाचौं / पर मेरी चार पति भीमाती पर बोमी बीमा प्रति मैत्री मार से किसी प्राची स मप रेप माय मरो परितु मेरी चममा में इस मा म साप्त और पर पसा सिरसाभी की मी मी समर सरा सा भीर सहायता समाप पीर मेरे एप में भी ये निय से प्राधि माइविरसई परमात्मा ! गुबी बों मति मेरे REACHESecrab मा
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________________ EXANMAIYALALITERATota ( 3 ) प्रमोद भाव रहें मेरी दृष्टि सदा दूसरों के गुणों और अपने शवगुणों पर रहे मेरा हृदय गुणियों के प्रेमपाश में बंधा रहे, उन के ही प्रत्यक्ष दर्शन वातालाप तथा परोक्ष शास्त्र द्वारा सगति से हृदय असीम प्रफुल्लित रहे। मै औरो के दुर्गुण न देसता हुश्रा उन के गुणों का ग्राहक बनू / हे प्रलोक्यपत्ति मेरा जीवन जगतवासी जीवा के लिए श्रादर्श रूप हो, दीन दुखी अनाथों के थार्तनाद को सुनकर मेरा हृदय करणा और दया से / उन के दुःखों को अपने दुख के समान समझता हुअा अाई हो जावे। यथाशक्ति तन मन धन से उनकी सहायता करने में तत्पर रह / हे भगवन् / निन्दा स्तुति संसार का स्वभाव ही है मुझ में इस प्रकार A की सहन शनि उत्पन्न हो जिस से मैं निन्दा, क्रोध, अपमान, द्वेप एं करने वालों पर घृणा और प्रशसा, मान बडाई करने वालों पर प्रसन्नता प्रगट नहीं करू, याल्क निंदक पापी धारमा जो पाप प्रवृति में रमण करते हुए अपने अशुभ कर्मों का यध एकत्रित करते हैं उनके प्रति मेरे करुणा भाव रहें उनके हर प्रकार प्रास्म सुधार में तत्पर रहू। हे नाथ मेरी यह पवित्र भावना है कि मैं सर्व जीवों का परम हितेपी / होता हुवा थापके प्रतिपादन किये हुए अहिंसा न्याय पूर्वक व्रत का सर्वत्र प्रचार कर सकू / हे सर्वज्ञ देव ' मेरी प्रारमा मे ऐवा यल उत्पन्न हो जिस A से मैं प्रत्येक प्राणी के हृदय में शान्ति प्राप्त कर सकू और उस शान्ति प्रचार से प्रत्येक प्राणी प्रेममय जगत् का दर्शन कर सके और उसी शान्ति और प्रेम के माहात्म्य से निर्वाण पद के अधिकारी हो सकें / हे मोक्ष नायक प्रभु / मेरा वह दिन धन्य होगा जय कि मैं ससार के विशेष बन्धनों से छूटकर एकान्त स्थान सेवन करके अखड निर्मल निरातिचार श्रावक के यारह मस ग्यारह प्रतिमा श्राराधन करता हुआ अपनी आत्मा का RAMETEXTREIXXXX Exer-in-XXCXsxexxx Xnxxexxx X
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________________ मम्नाxxERIESमालxGExer - = = करकापमा / मायाय मागा गिरधर्म की प्रभाषमा कमान समी पणमा भारम पपा मार्ग में महापागातका बापि मासमर शाम पापहरांब सम्पकमारियन प्रविमरी बनाम पि में सर्व प्रकार संसार का साम के निरातितर सापांच महामत पाबन पातामा विषायोलमा ! मेराबानि परम पर होगा बर कि मैं भातिर समय में माधुपा महामता भाषा पारा मतो म्पारा प्रतिमानों में मोt प्रतिम प्रक्षिकम माविचार मनापार जामते पणापत पोपमा होणारी प्रायोचमा मिना पो र प्रापनियम पुर पाराविक होम पार गति रात्री बीच घोषि से सम्म समापना हानोक परनाक मापी मुखामियान परीमता पा मोर मुख मा प्रामुला मा समाधि मार में अबराब मत परे शरीर से ममत्व भाव इयररित पत्र में मम्स हेगा। दिनराज ! मेरो मन्तमय पर भाषण सस हो ही भाप से रोगों का पोष मत मस्तक हो पारंपार प्रार्थना है। घों यान्ति ! पारिता ! शान्तिः | = तन्नान = = B ee -SEROETTE
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________________ NEXTREMIERRY- UARYA णमोत्यु णं समयस्स भगवो महावीरस्स प्रथम पाठ XLamxxARXXXERIMARIXTEERICERXMAGEXICAXCIRBER (कर्मवाद) श्रात्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है जो चेतन सत्ता धारण करने वाला है जिसके धास्तव में वीर्य और उपयोग मुख्य लक्षण हैं। क्योंकि श्रात्मसत्ता की सिद्धि केवल चार वातों पर ही निर्भर है / जैसे किसान, दर्शन, सुख और दुख / पदार्थों के स्वरूप को विशेषतया जानना साथ ही उन पदार्थो के गुण और पर्याय के भेदों को भली प्रकार से अव. गत करना उसी का नाम शान है। पदार्यों के स्वरूप को सामान्यतया अवगत करना उसी को दर्शन कहते हैं। जैसे कि किसी व्यक्ति को नाम मात्र से किसी नगर का सामान्य वोध जो होता है, उसी का नाम दर्शन है / जब फिर वह व्यक्ति उस नगर की वसति, जनसंख्या तथा नगर की प्राकृति तथा व्यापारादि के सम्बन्ध में विशेष परिचय कर लेता है, उसी को शान कहते हैं। सो ये दोनों गुण रात्मा के साथ तदात्म सम्बन्ध रखने वाले हैं। ___ यदि किसी नय के आश्रित होकर गुणों के समूह को ही प्रात्मा कहा जाए तदपि अत्युक्ति नहीं कही जासकती। कारण कि-गुण और गुणी का तदात्म रूप से सम्बन्ध के होरहा है / ये दोनों गुण निश्चय से आत्मतत्व की सिद्धि करने BEAXXXREALEXAXARAYARXKERAL REXSAXRXXXKCXXCEOXXXXHARATAX - - - -
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________________ EXPERTAHAA मारलEEETBREBEE Aपासमता म्पपदार रएि से प्रारमत की सुगीर पुरस पारा भी सिरि की माती है। जैसे कि-मो पदार्प गाव गुपपासे ये सुधबा पर मनुमय माही परसात। जिस प्रकार सीतारमणाविरको प्रारमतस्व अनुमय करता फिर उसकी मिपत्ति के सिपेभसाम परिश्रम करने सग जाता है उसी प्रकार प्रमीप तप उक प्रकार को कान तो अनुभवी करताचौर मादी उसकी मिलि के लिप कुछ परिममनीरता। सो इसम सिमामा कि- / सुख पा पुमको ममुमा फरल पाता मारमतती है। पुलों को दूर करने के लिये व्यवहार पर मैं प्रमा प्रकार के रपार्यो भम्बेपत करमा फिर उस पापा के भनु सार परिश्रम करते गाना ये सब जीवतत्पर मस्तित्व होत सापारप ममा / स्मृति प्रापिहोने से प्रारमतप अपनी शाश्पता सिर कर सारे और पांच भौतिक पारा निराकरण भी साय फिपे जारहा है। कारस कि-पाच मातिकबार स्वीकार दिये जाने पर फिर स्मृति मादिभारम विकास गुषों का भभाष माना जाएगा / मतपप सिर मा हि-मारमतत्प की सिसि के सिप जान पनि सपा पुम पे कारण मानने पुतियुसिय नेपाली कारपोसे वास्तव मे भारम तत्वफ्ना अस्तित्व माप रजने में समर्पहै। परिभारमतात विषयमविपार स्वीकार किपा माप तब अफस बार का सापनी मसंग उपस्पिताबापमा। बारपरि की स्पिति मानने पर ही रसाप किये एप कर्मफस का समाप मामा मा सकताti HEAwaawa------ SEBERpsexमानामाXXHI) 44
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________________ AMERIMEXTREMIRATEXTERTAIRATRAI EXXXX ExexcomxxxxxxRICAXXDXOMXXX DATERIORXXSAXEKH जव हेतु ही नए होगया तो भला फिर फल किसको दिया जाए / अर्थात् जर कर्म करने वाला श्रात्मा ही क्षण विनश्वर मान लिया तो फिर उसको कर्मफल मिलना किस प्रकार माना जा सकता है। अतः निष्कर्ष यह निकला कि यात्मतत्त्व के नित्य होने पर पर्याय उत्पाद और व्यय धर्मयुक्त मानने युक्तियुक्त हैं। अर्यात् श्रात्मद्रव्य तणविनश्वर नहीं किन्तु पर्याय क्षणविनश्वर धर्म वाले हैं। श्रत. श्रात्मतत्त्व शाश्वत, नित्य, ध्रुव, अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अक्षय सुख और अनंत शक्ति वाला मानना न्याय संगत है। श्रय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्म द्रव्य उक गुणों से युक्त है तो फिर यह दुःखी, रोगी, वियोगी, अज्ञानी, मूढ इत्यादि अवगुणों से युक्त क्यों है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि-यह सब प्रात्मा की पर्यायें कर्मों के कारण से हुई है। जिस प्रकार निर्मल जल में निकृष्ट पदार्थो के मिलने से जल की निर्मलता वा स्वच्छता / श्रावरणयुक्त होजाती है तथा जिस प्रकार शुद्ध और पवित्र वस्त्र मल युक्त होने से अग्राह्य वा अप्रिय लगता है ठीक उसी प्रकार आत्म द्रव्य भी कर्मों के कारण निज गुणों को श्राच्छादित किए हुए है तथा उन कर्मों के प्रावरण से ही इस की उक्ल दशाएँ प्रतीत होती हैं और फिर यह स्वयं भी अनुभव करने लगता है कि मैं दुखी हूँ, रोगी है, शोगी हूँ, इत्यादि। परन्तु यह कौ का श्रावरण श्रात्मा के साथ तदात्म सम्बन्ध वाला नहीं है क्योंकि यदि इसका श्रात्मा के साथ तदात्म सम्बन्ध मान लिया जाए तब फिर उत्पाद और व्यय PRSMOKIMEXICExxxxxmamimar A RTomTXXM
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________________ APERIES ( 4) कर पर्याच्यापिनी मानीमा मातीमो फिर मामा कमी से पिमुरदासकता। जिस प्रकार मामा से शाम पापन ८प्रपामा दोसकते हसी मबार फिर कर्म मी भारमा स। प्रमही सांगे। अपबमों का प्रपदमा मसिममा वो फिर निर्याप की प्राण भरमा तपा निर्वाध पर की प्राप्ति , लिये संपादिपिामों में पुस्पा करमा माका-ममी पत् सिय होगा। प्रतएव मारमा को को मापरम से पुल मानना ही पुझियुक सिर रोता मनुको से बहारम सम्बन्धपाता।विस प्रकार बम मसयुका सुपर्व मसयुत ने पर फिर रेमिमिता मिलने पर गरोसबोटी रसी प्रकार मारम प्रम्प भी मारधारा नानोमागमन का निरोप पर फिर निरामारा पुरावन मो का पप कर निर्वाष पर की प्राधिकरता है। अब इस स्थान पर पा पसरपस्थित हातावर मिमिचौके मिलने पर मारम सात कमी से सपा विमुकदा सकता तो फिर प्रमम्म भामा मोष ममन पोप पापी मानेमा सकता इस ऐका के समाधान में कार माता किममप्प मारमा स्वमाषता इस प्रकार धर्म बाले पाते / किन अम्तम्भाप से कमै प्रम्य वीमहोती तपा नदी बनको मोष प्राति के लिए पूर्वतया सामग्री की प्राप्ति होती है। किमामा मम्प भारमारे सामग्री के मिसम पर साकीप गेस्प की परिकर सकते। सिम प्रकार भंग पा कर मूम स्वामाविस्तार क उसी प्रकार मम्प और ममम्प भारमा भी स्वामाविस्ता से माने जातेन बिमाषिक पर्याप से। साभारमतव एERESISESERTERESERनाममासम्म H-JEENDEEOमोनाटा
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________________ XXXXMornxxxaxxxx KamatiPuneJaan ठीक मानने पर श्रात्मा फिर श्रात्मदर्शी होसकता है। आत्मदर्शी श्रात्मा ही फिर लोकालोक का पूर्णतया ज्ञाता होकर निर्वाण पद प्राप्त कर सकता है। इसलिये प्रत्येक आत्मा को योग्य है कि वह सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र / द्वारा स्वकृत कर्मों को क्षय कर मोक्ष पद की प्राप्ति करे। वास्तव में जो श्रात्मा कर्मों से सर्वथा विमुक्त है उसी का नाम मोक्षात्मा है तथा उसी का नाम निर्वाण पद है / फिर उसी श्रात्मा को सिद्ध, युद्ध, अज, अजर, अमर, पारगत, परम्परागत, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सत्चिदानन्द, ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर इत्यादि नामों से कहा जाता है। xxxxxxxxx
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________________ कमाउEARRESTEES द्वितीय पाठ (कर्मगाव) मात्मा का अस्तित्व माष स्वीकार किये जाने परती मास्तिर का गा सकतापरण्ठ मबस स्थान पर पर मन उपस्थित होता कि सप भारमा बान परम सुबीर वीर्य गुरुतो फिर यह दुभव पयो दो पास मम के समापान में कहा जाता है हिको के सम्बन्ध से मारमा की पनीपपणोती कि जो भारमा कमी से पिमुत पा मुहोगप वास्तष में रह भास्मिाषी से पुक्त प्रापिमा मो सांसारिफमात्माएँ पाठ प्रकार के कर्मों से पुक्त A नामा मकार के शारीरिक और मानसिक बुम्मो को मनु मव करते। मम स विषय में पर प्रम भी उपस्थित होता है फिकमी का सम्माम मामा के साप कप से एमा! इस प्रमक समापान में मिप्रतिषित समाचर परले पाहिए! H मम-पा पहिलेपमें मीर पीपे जीव है। पचर-महो। पॉफिर्म एम का पास्तप में यही मर्य किमो किस करा किया गया हो। जब पतीही प्रमाण मान लिया तब फिरकर्म सब से परिसे किस महार माना जा सकता। / प्रम-तोया फिर परिसेनीय पारे / PERMERGRE E NERA EEEEEEEEE2EEB REVानापमान
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________________ PORXKEERTMareAREIXXXSEXE उत्तर-नहीं। ऐसा मानने पर पहिले जीव शुद्ध है इस प्रकार मानना पड़ेगा / जव जीव सर्वथा शुद्ध मानलिया गया तोफिर इसको कर्म लगे क्यों ? तथा इस प्रकार मानने पर अजीव अथवा सिद्धों को भी कर्म लग जाऐंगे इसलिये यह पक्ष भी ग्राह्य नहीं है। प्रश्न-तो क्या श्रात्मा और कर्म युगपत् समय में ही उत्पन्न हुए। उत्तर-नहीं। क्योंकि इस प्रकार मानने पर श्रात्मा और कर्म दोनों ही उत्पत्ति धर्म वाले मानने पड़ेंगे। सो जव आत्मा और कर्म उत्पत्ति धर्म वाले हैं तव इन का विनाश भी मानना पड़ेगा। तथा फिर दोनों की उत्पत्ति में दोनों के पहले कारण क्या क्या थे क्योंकि कारण के मानने पर ही कार्य माना जा सकता है जैसे मिट्टी से घड़ा / इसलिये यह पक्ष भी ठीक नहीं प्रतीत होता। प्रश्न-तो क्या फिर जीव सदा कर्मों से रहित ही है ? उत्तर-यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब जीव कमी से रहित ही मान लिया तो फिर इसको कर्म लगे क्यों? तथा कमों के बिना ये संसार में दु ख घा सुख किस प्रकार भोग सकता है / तथा यदि कर्म रहित भी श्रात्मा संसार चक्र में परिभ्रमण कर सकता है तो फिर मुक्तात्माएं भी संसार चक्र में परिभ्रमण करने वाली माननी पड़ेंगी / अतः जीव कर्मों से रहित भी नहीं माना जा सकता। प्रश्न-तो फिर जीव और कर्म का स्वरूप किस प्रकार मानना चाहिए? उत्तर-जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है। Nag a rmarwrew-manti NEXPERXXXXTARxxxxnxAIXXEEXXXCHERI -
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________________ a प्रम-बममादि काम से ममय तो फिर इस जीव का मोक्ष दोमा किम मकार माना जा सकता है। क्योंकि मनादि समाप कमी पटतानसे जीव साप बेतना पर्म का अनादि सम्पन्म। व रत्तर-तदात्मापस प्रमादि सम्पम्प नविन्य प्रकार FA (म) रूप से मनादि सम्पम्प, शिस प्रहार सपर्ष मोर मम र सम्बन्ध है। जिस प्रकार भनि मावि उपायोमारा सुवर्ष से मस पपरोसप्ताकरसी प्रकार मर्मयुहमारमा बामपन मीर बारिशरामों से विमुक्त हो सकता है। तपा शिम प्रकार पिता और पुत्र का प्रमापि समान्य बहार मातापा बीज और एपका मनादि सम्पाप बसा माता H है अथवा भार और कुछड़ी का सम्मग्य बमा माता अंक उसी प्रकार कास से कर्म भीरमात्मा का भी मनाविd संयोग पसा मा गा। जिस प्रकार संतति कमोने से पिता पुत्र का सम्मम्प म्पपणिहा माता बन बोने मे का प्रमाबाबाठा ठीकसी प्रकार प्रारमा भूवन कर्मों के मकरन से और पुपवन कमी के पय करने से.मी पिमुक्त हो जाता। निभप नप में कम सादि साम्त पदमावेसेअपकर्म किये गए वा रगती सावि भोर जप मा फोका ममममकर हिपा सब कर्म षान्त हो गए / फिम्तममा मर्याद कासम अनादिया पो मानतो दिये और भागे इस प्रकार कम से कर्म प्रमादि। मापनमा RESEPSEERESH GEEEEEE-more
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________________ DiXXXXXXImay Tomaton. प्रश्न-क्या कर्म करने का स्वभाव जीव में है वा कर्म का कर्ता कर्म ही है? उत्तर-इस प्रश्न के उत्तर में दोनों नयों का अवलम्बन करना पड़ता है जैसे कि व्यवहारनय और निश्चयनय / प्रश्न-दोनों नयों के मत में कर्म कर्ता कौन है ? * उत्तर-व्यवहारनय के मत में कर्म कर्ता जीव है, क्योंकि व्यवहार पक्ष में शुभाशुभ कर्मों का कर्ता जीव ही देखा जाता 5 है किन्तु निश्चय के मत में फर्म का कर्ता फर्म ही है क्योंकि फर्म कर्ता वास्तव में श्रास्रव है-कर्मसत्ता होने पर ही उनकी ट्र आकर्षण शक्ति द्वारा नूतन कर्मों का संचार होता है। जिस प्रकार रज्जु का संकलन करते समय पिछले अश के साथ नूतन अश का सम्वन्ध किया जाता है तथा चरने में जब सूत काता जाता है तब भी तंतुओं का परस्पर सकलन किया जाता a है ठीक तद्वत् कर्मसत्ता के होने पर ही वह कर्मसत्ता नूतन कर्मों का श्राकर्पण कर लेती है / इस न्याय के अनुसार कर्म के करनेवाला वास्तव में कर्म ही है। कर्म के दो भेद है। जैसे कि-द्रव्य कर्म और भाव कर्म / चतुःप्रदेशी जो कर्मों की वर्गणाएं हैं वह द्रव्य कर्म हैं किन्तु जो जीव के रागद्वेषादि युक्त भाव हैं वह वास्तव में भाषकर्म हैं क्योंकि जीव की शान चेतना और अज्ञान चेतना धास्तव में दोनों ही चेतना भावकर्म के करनेवाली प्रतिपादन की गई है अत निश्चयनय के मत् में कर्म कर्ता कर्म ही है। इस स्थान पर यदि ऐसा कहा जाए कि-"अप्पा कत्ता विकत्ताय" इस प्रकार सूत्र में श्रात्मा कर्त्ता और विकर्ता (भोक्ता) EERARIKXCXCELEXXXXXXXxsaree ARTHEASTREEDXnxxaaaxnixxRXXXSEXIRAX HIRACORNXXXCOMRAHr
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________________ KASEICE - - ReasoLEE ( 10 ) माना गपासका कारण क्या है। सारे समाभाग में कर माता किशास में उपचार नप मत से पाठ प्रकार से मारमा पर्यन किये गए से कि मम्पारमा २फपापारमा योगारमा पयोमारमा मामारमा पर्यनारमा 7 बारिवारमा और सबसपीरिमा / सस्पान पर कर्म के परने पासे पापात्मा भीरयोगास्मा पी प्रतिपादन किये गए मतुमभ्य मारमा / त्पा जिस प्रकार कपापारमा और योगास्मा इम्प कर्म के पर्चा मागे गए ठीक रसी प्रकार सम्पपुरस का मोल भीरकती मारमावण जिस प्रकार मारकमको बीच के रागादि मावठीक उसी प्रकार सुन पुग्मादिकेमसुमन करन पाने मी बीपके रामारि मावही / परन्तु म्पबहारनप के मत से कर्म करने पाहा बीय ही मनीष नही है। मापनी इस बात का भी मान रखना चाहिए कि वह मीचा फेवस मनीष कर्ता नही फितु मनीष मोर पुरुष का सम्पम्प सपनीकर्ता / कहा जाता है। जिस प्रकारकुम्मकार परका को माना जाता है ठीक उसी प्रकार मीप के फर्मयुक सम्पपसाप तो को बातेसलिये सियाम्त पर मिला कि भीष भीर में। का संयोग प्रचारूप (कम) से अनादि मानना युफियुद्ध। मम मम या मीरस सान पर उपसित वाफिकर्म सियान्त मानने का मुन्पोरेम पास प्रभसत्तर में का गावाजकिकमवार के मानने का मुम्पोरेस्प स्थापलम्पी पानातपायो म्पाहि मायना भारा अपने अशुभ कमोरे फरसे पचना पाते रमको शिक्षित करणापास प्रकार की भूत में म परें। कायम PEETAIEEEEPER
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________________ ELEDEEMAGEXTRACTICAREEREKXxxxexi.na..-. NEXTREATREATRE ( 11 ) कर्मवाद में होने वाले श्रादेपी का प्रत्युत्तर प्रथम कर्म 1 अन्य की प्रस्तावना में इस प्रकार से वर्णन किया गया है / जैसे कि फर्मवाद पर होनेवाले आक्षेप और उन का समाधान ईश्वर को कर्ता या प्रेरक मानने वाले कर्मवाद पर नीचे लिखे तीन आक्षेप करते है - (1) घड़ी मकान श्रादि छोटी-मोटी चीजें यदि किसी के व्यक्ति के द्वारा ही निर्मित होती है तो फिर सम्पूर्ण जगत् जो कार्य रूप दिखाई देता है उस का भी उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिये। (2) सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते है पर कोई बुरे कर्म का फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से किसी चेतन की प्रेरणा के विना फल देने में असमर्थ हैं। इसलिये कर्मवादियों को भी मानना चाहिये कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्मफल देता है। (3) ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिये कि जो सदा A से मुक्त हो और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी जिस में कुछ विशेषता हो इसलिये फर्मवाद का यह मानना ठीक नहीं कि / कर्म से छूट जाने पर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते है। a (1) पहले आक्षेप का समाधान यह जगत् किसी न समय नया नहीं चना-यह सदा ही से है। हाँ, इस में A परिवर्तन हुश्रा करते हैं / अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं कि inexxxxxATExxxxxxx imoonxxwcomxxnxxx xx
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________________ Reacारखा SHRESEBEERUT (12) जिन के होने में मनुप्प भावि पाणिवर्ग के प्रपत्र की अपक्षा पंची माती वा ऐसे परिवर्तन मी ते कि जिन में किसी के प्रयाकी अपेक्षा महीरावी / जब परवा 2 तर सपके संयोगों से सम्पवा पग झिया मावि शानियों से बनते रात। उदाहरण 4-मिकी पत्पर मारिधीजों का होने से पाटे मोटे टीने या पहाड़ियों का पन माना पर रपर से पानी का प्रबार मिल गाने से उनका नीरूप में पाना माप का पानीरूप में परसमा भीर फिर से पानी का मापकप पर माना इस्पादि / इसभिरको परि का कर्ता मानने की। क रत नाही। (2) दूसरे पाप का समापान-मासी सासर्य करते पैसा फस उनको कौमारा मिस गावाकमेव और प्राणी अपने किपे पुर फर्म का फल नहीं पाईवे-पा ठीक पर पाप्पान में रखना चाहिये कि जीपक पेतम के संग से कर्म में ऐसी शक्तिोबाची फि जिस से बामपने मणेपुर पिपाको निपत समय पर पीरपर प्रहर करता है।म पाव परमही मानता कितनसम्मम्प के सिपाप गर्म मोग केने में समर्प / / पाश्चमा पीकाता किफस देने के लिये परम्प बेसन की प्रेरणा मामले की . कोई बात नही पोषि-समी जीव वन सार्म करते रसके अनुसार पनकी दुशि सीजीबन जाती है. जिससे पुर बम फरकी पदामराने पर मीथे ऐसा काम कर पेठसबिशिससे समको अपने कर्मानुसार फल मिल मादाम करना एक बात और फल कोन बाहमा सरीपात। फेशन चारनामोनेदीसे दिये कमका start-E, Eschestern E समानाAmcareews
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________________ Tax Xxxemomxxcomxxx कि कम है कि जिऔर कमें उन Extensions xxx xx-5xxcite-X (--- - X - 2' 404-200 ( 13 ) A फल मिलने से रुक नहीं सकता। सामग्री इकट्ठी होगई फिर कार्य श्राप ही श्राप होने लगता है। उदाहरणार्थ-एक मनुष्य धूप में खड़ा है, गर्म चीज खाता है और चाहता है कि प्यास न लगे सो क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है? ईश्वर कर्तृत्ववादी कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर o कर्म अपना अपना फल प्राणियों पर प्रकट करते हैं / इस पर कर्मवादी कहते हैं कि कर्म करने के समय परिणामानुसार / जीव में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि जिनसे प्रेरित होकर कर्ता जाव कर्म के फल को आप ही भोगते हैं और कर्म उन पर अपने फल को श्राप ही प्रकट करते है। (3) तीसरे श्राक्षेप का समाधान-ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन, फिर उन में अन्तर ही क्या है ? हॉ, अन्तर इतना हो सकता है कि जीव की सभी शक्तिया श्रावरणों से घिरी हुई हैं और ईश्वर की नहीं। पर जिस समय जीव अपने के आवरणों को हटा देता है उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ पूर्णरूप में प्रकाशित हो जाती हैं फिर जीव और ईश्वर में विषमता फिस यात की? विपमता का कारण जो औपाधिक कर्म है, उसके हट जाने पर भी यदि विपमता बनी रही तो फिर मुक्ति ही क्या है ? विषमता का राज्य ससार तक ही परिमित है भागे नहीं। इस लिये कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि-सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं / केवल विश्वास के बल पर यह कहना कि ईश्वर एक ही होना ना चाहिये उचित नहीं। सभी श्रात्मा तात्त्विक दृष्टि से ईश्वर a ही है। केवल बन्धन के कारण वे छोटे मोटे जीव रूप में देने TAXEIREXAXEXXEXXEY
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________________ DESSA MDEEEEEI, - --- -- -- माते -पासिशाम्त सभी को अपना चिरस्व प्रकर करने के लिये पूर्ण बल देता है। / सो गाकथन से स्पतादी सिरो गया कि-कर्म सि साम्त का मानना पुलिपुलोसपा को बारपसे गीप / मुलीपा पुती रएि गोचर होते हैं। जैसे किभी भमर मग यान महावीर स्वामी मुबारविन से निकले ए-- सुपिपया कम्मा सषिपणा फसा मबति / दुषिपणा फम्मा दुधियणा फसा मबति॥ ये पवित्र वाक्य स्मरण कप कि एम को रे राम ही फल होते और माम कर्मों मशुम ही फल है। मता कम रुप ससार में कम से निपचिप किपामों माप मोह पर की मासि परनी चाहिए। " मारमा नियामम्द का रसी समप अनुभव कर सकता या फिपार्म कसा सबट जाप / असे मल उसी समय समतावा निर्ममता प्राप्त कर सकता किपा मस ] से रहित होनाए / सो निमानम्मी प्राप्ति के सिवे-सम्पग् पर्शन सम्पम् शान भीर सम्पम्वार से निम मारमा कोपिम् पित करना चाहिए। प्राचEVEDERAREareम - -- -- साब ERSERIES
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________________ TOTRAXEXTEETHEIRYEARRES तृतीय पाठ XXXXXXXXSEXHEROEXH..... (कर्मवाद) श्रात्मा एक चेतन पदार्थ है, अनंत शक्तियों का समूह है, सवका उपास्य है और प्राणिमात्र का रक्षक है किन्तु कर्मा की उपाधि से युक्त होकर और निज स्वरूप को भूलकर नाना प्रकार के सासारिक सुख वा दुःखों का अनुभव कर रहा है किन्तु धर्मयुक्त शुभ कर्म मोक्ष पद की प्राप्ति के लिये सहायक " बनता है और पाप कर्म मोक्ष पद की प्राप्ति में बहुत से विघ्न उपस्थित करता है अत धर्मयुक्त शुभ कर्म व्यवहार पक्ष में शेय होने पर भी किसी नय के मत से उपादेयं रूप है / जिस प्रकार नद में नाव शेय रूप न होकर उपादेय रूप होती है ठीक उसी प्रकार धर्म युक्त शुभ कर्म भी किसी नय के मत से / उपादेय रूप माना जाता है। जैसे कि मनुष्यत्व भाव मोक्षाधिकारी माना गया है नतु पशुत्वादि सो व्यवहार पक्ष में भी कर्म सिद्धान्त स्वीकार करना योग्यता का श्रादर्श है। कर्म ग्रंथ की प्रस्तावना में लिखा है व्यवहार और परमार्थ में कर्मवाद की उपयोगिता। इस लोक से या परलोक से सम्बन्ध रस्त्रने वाले किसी के काम में जव मनुष्य प्रवृत्ति करता है तव यह तो असंभव म ही है कि उसे किसी न किसी विघ्न का सामना करना न पड़े। सव काम में सवको थोरे बहुत प्रमाण में शारीरिक या मानWxxxxxxxAXERTExaxxxxexi C-AAL
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________________ E-EFERESUPREFREE -En E easलन FFER FEEL I सिफ पिन पाते / ऐसी रया में देगा माता है कि बात लोग चशम हो जाते हैं। पपहार दूसरों को दूषित हारा कर बोसतेइम हारिपटिके समय एक तरफताबारी पुश्मनपरमातेसरी तरफ पुरिमस्थिर होने से अपनी 4 मत दिमाई नहीं देती। भव का मसुम्प प्पमता के कारण भपणे मारमायेप सब कामों हो फोड़सार और प्रबल सपा / राकि साप म्याप मी पसा पोरता है इस लिये उस : समपस मनुष्य के लिये ऐसे गुदकी मापश्पकता दिगो साधुद्धिमेन को स्पिर फारसे पर देखने में मत पगाये किरपम्पिव निम का मसती कारण क्या हो तर पुतिमानों में विचार भियापही पठापनापि-पैसा गुरु कर्म का सियाम्ती / ममुष्प को या विश्वास करना पाहिए कि-वारे में जान पानही सेकिन मेरे पिन का मीतरीप मसती कारण मुम में ही दोना चाहिए। जिसप भूमि पर पितापगता उसका बीज भी उसी भूमिका में पोपा मादोना चाहिये। पपन पानी माविबाहरी मिमित्तो के समान रस बिन पो भकुरित होने काचित् सम्प कोई म्पति निमित हो सकता पर पर मिमका बीम नही पेसा विश्वास मनुष्य केमिष को स्थिर कर देता है। जिससे पारपाचन क प्रसकी कार को अपन में रेचर। हो रसक लिये इसरो कोसतारेभीरकपाता। ऐसे: पिनास बाम ममुप्पएप में तना बस प्रकार होता है कि शिससे साधारण संकर के समय विधित होपानी पसीपी पिपत्तियों को रुपमहीं सममता पीर अपने स्वा पहारिक पा पारमार्पिक काम को पूरी पी कर रापता है।
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________________ Breenetsman.mAEEEEEXTrics XIXIOXICIAXHORXIXExcexxxxxx A मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिये परिपूर्ण हार्दिक शांति प्राप्त करनी चाहिए जो एक मात्र कर्म के सिद्धान्त ही से हो सकती है। ऑधी और तूफान में जैसे हिमालय का शिखर स्थिर रहता है वैसे ही अनेक प्रतिकूलताओं के समय शान्त भाव में स्थिर रहना यही सया मनुप्यत्व है। जो कि भूतकाल के अनुभवों से शिक्षा देकर मनुष्य को अपनी त भावी भलाई के लिये तैयार करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ऐसा मनुष्यत्व कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास किये विना कभी श्रा नहीं सकता। इससे यही कहना पड़ता है कि क्या व्यवहार क्या परमार्थ सब जगह फर्म का सिद्धान्त एक-सा उपयोगी है। कर्म सिद्धान्त की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में डा० - मैक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है / वे कहते हैं यह तो निश्चित है कि कर्म मत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज के चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस F कष्ट को सहन कर लेगा / यदि वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहन शीलता से पुराना कर्जा चुकाया जा सकता है म तथा उसी से भविष्यत् के लिये नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही श्राप होगी। भला या वुरा कोई भी फर्म नष्ट नहीं / होता यह नीति शास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल के सरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय है इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता किसी भी नीति A Xxixxx - X( Com
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________________ ExFESTISEXANEES (10) शिवाक प्रतिस्प३ सम्मम्प में कितनी ही शरा, पान ते पर पर निर्षियार सिरकम मत सब मे मषित अगामाना गया समस सामों मनुष्योंकर का एE भीर उसी मा म ममुम्यों को तमान सफर महनेत्रीशकि पदा परम सपा मपिप्पत् जीपन को पारम में रोमा मिमा सपनस या स्पनादी सिसो माना कि कम सिमाम्त का मानना युझियह है। भास्मधार मानन मा पहिरोको कमपार भी मानना पगाकारण किमारा स्पीचार किये बिना भारमा संसार में : परिभ्रमण करना सियालीमही सस्ता फोसे की गरीर 1 ग्पमा तपा तिपादि का सत्पप रोना सिर होता है।मिस प्रकार एकाशिम (भमार) फा में पानीसबरपनि पुगे / पावसमीप्रकार प्रापक मामा केशरीपरिकी रचना समर पा मसुम्बा उसकेको अनुसारसीहोती। अब पा मम पम्पित होता वाशिम फस i में पाने कौन लगातार लगाता ! और उनमें नाना प्रकार * रंगो की रचना कौन करता है? तपा मपूर अपनों को सिमित भीमपरता ! इस प्रम समापान में कहा जाता है कि पारिम फस में पने बाले वीरश्रीषों पा मयूर मीर का जिस प्रकार नाम कर्म धन सिपा एमाहोता. ठीक उसी प्रकार मरीरों की सरा मसदर रसमा दो गाती है। सपा कम सिमान मायम करने में मही मातिगानीमा सन्ती। प्रपम में प्रेप की मस्तावना में विवामि -- मशाल मै शरीर मापा दिप प्रादि पर विचार / --VER SERIES
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________________ EAKIROKARKanpuria-... ( 16 ) शरीर जिन तत्वों से बनता है वे तत्त्व, शरीर के सूक्ष्म . स्थूल श्रादि प्रकार, उसकी रचना, उसका वृद्धि क्रम ह्रास क्रम र आदि अनेक अंशों को लेकर शरीर का विचार शरीर शास्त्र में / किया जाता है, इसी से उस शास्त्र का वास्तविक गौरव है। वह / गौरष कर्म-शास्त्र को भी प्राप्त है। क्योंकि उसमें भी प्रसंगवश ऐसी अनेक वातों का वर्णन किया गया है जो कि शरीर से / सम्बन्ध रखती हैं / शरीर सम्बन्धिनी ये बातें पुरातन पद्धति से कही हुई हैं सही परन्तु इस से उनका महत्त्व कम नहीं / / क्योंकि सभी वर्णन सदा नये नहीं रहते / आज जो विषय नया दिखाई देता है वह थोड़े दिनों के वाद पुराना हो जायगा। वस्तुतः काल के वीतने से किसी में पुरानापन नहीं आता। पुरानापन पाता है उसका विचार न करने से / सामयिक पद्धति से विचार करने पर पुरातन शोधों में भी नवीनता सी आ जाती है, इसलिये अति पुरातन कर्म शास्त्र में भी शरीर की बनावट, उसके प्रकार, उसकी मजबूती और उसके कारण भूत तत्त्वों पर जो कुछ थोड़े यहुत विचार पाये जाते है, वे उस शास्त्र की यथार्थ महत्ता के चिह्न हैं। इसी प्रकार कर्म शास्त्र में भाषा के सम्बन्ध में तथा इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी मनोरंजक व विचारणीय चर्चा मिलती है। भाषा किस तत्व से बनती है ? उसके वनने में कितना समय लगता है ? उसकी रचना के लिये अपनी वीर्य शक्ति का प्रयोग श्रात्मा किस तरह और किस साधन द्वारा करता है ? भाषा की सत्यता तथा असत्यता का आधार क्या है ? कौन कौन प्राणीभापायोल सकते हैं ? किस किस जाति के प्राणी में किम A किस प्रकार की भाषा बोलने की शक्ति है ? इत्यादि अनेक EmmarA hem .mar -.-----.---. CELEXICORIER
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________________ / MESHRSSHREEEEEE ( 20 ) मन मापा से सम्पम्प रखते हैं। उनमा मात्वपूर्ण वगैमीर / : विचार फर्मशान में पिपरीति से पियामा मिलता है। इसी प्रकार इन्द्रिपो फित्तनी सीएम सेमे m मेव वासी कैसी शामिल पिस मासी को कितनी " कितनी इन्द्रिपा प्राप्त वाम मोर माम्पम्तरिक म्द्रयों का पापम में क्या सम्बन्ध है।सा भाकारस्पाविमा प्रकार का ईदियों से सम्बम्प रखने पाला विचार कर्मशाल H] में पाया जाता रत्यादि। , यह कपन से हारीरिक बना सको कारण से ही बनती है। कारण किकर्म होने की भारमा सांसारिफ Mजाता।पो यो पारमा धर्मगायन से पिमहो गरमशरीरी सिद पुर, अगर अमर, पारंगत वा परम्परागत पापि नामों से कोमाते। इतना ही नहीं किन्तु वे अपत् उपास्प है। मनः कमी से परमे के लिये प्रपनाशील बनना चाहिए। जिसमे मारमपी बनने का सीमाम्प प्राप्त रोसकर्म रिपय काहान भनी पाँति करना चाहिए पौकिकर्म सिदान्त मापा दर्पण तुम्प / जिस प्रकारर्पण पर नियमानीभारुति पपापत् पती ही इसी प्रकार योकर्म किया जाता रस का फारसी कप में जीव को प्रभुमर करना पड़ता है। प्रता कर्म पपका फल मोसीमा कर्म फल का नाम मोता: उम्दाना म FF
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________________ CERITESHEE . I NEHEATEELERY चतुर्थ पाठ RELEAKIRANIXEXEEEEEEEEER (कर्मवाद) जय श्रात्मा कमी से सर्वथा विमुक्त हो जाता है तब यह स्वकीय आनन्द का अनुभव करने वाला होता है / जिस प्रकार मदिरा शुद्ध चेतना पर आवरण किए हुप होती है ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म द्वारा श्रात्मिक मुगों पर आवरण होरहा है। अब इस स्थान पर यह प्रश्न उपस्थित होना है। कि क्या कर्म सिद्धान्त का अध्यात्मवाद पर भी प्रभाव पड़ता है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि हॉ, अवश्य पड़ता है / वास्तव में कर्मों के ही प्रावरण ने पात्मिक निजानन्द को ढॉपा टुश्रा है। जैसे कि-फर्मग्रंथ की प्रस्तावना में लिखा है कि कर्म शास्त्र का अध्यात्मशास्त्रपन / अध्यात्म शास्त्र का उद्देश्य श्रात्मा सम्बन्धी विपयों a पर विचार करना है / श्रतएव उसको आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के पहले उसके व्यावहारिक स्वरूप फा भी कथन करना पड़ता है। ऐसा न करने से यह प्रश्न सहज ही में उठता है कि मनुष्य, पशु, पक्षी, सुखी, दुःखी श्रादि आत्मा a की दृश्यमान अवस्थाओं का स्वरूप ठीक ठीक जाने विना उसके-पार का स्वरूप जानने की योग्यता दृष्टि को कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके सिवाय यह भी प्रश्न होता है कि दृश्यRELARIXEEXXXITMENarnaxxx E-XIXxx
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________________ LIBERTERMEREEEEEEX ( 12 ) मानपमान अवस्था में बीमारमा का समापश्यों नही। सलिये प्रापास्म शाम को भाषस्मक है कि पा पासे / भारमा के स्पमान साप की उपपति विषाकर मागे हे। पही काम पर्मशालकिपा मास्यमाम सववस्थानों को कर्मसम्प पतमाफर उनसे मात्मा के स्वभाव की गई। की सुबना रखा है। इस राशि से कर्मशास अभ्यारमगाम का दीपक भंश है। परि मप्पास्म शासका उदस्य मामा राम स्परप का प रमापी माना गाय तर मी फर्मशाम को उसका प्रपम सोपान मानना ही पड़ता है। इसका कारण यातिक मनुमप में माने काही वर्तमान अबस्थामों पाप मारमा के सम्माप का सचा पसासा न घोसपटकरपि मागे से पड़ सकती है। अब पास हो साकिसपर सबप मापिका पैमाधिकरवब स्पयमेष शिसा होती कि मारमा का सगा सप्प क्यारसी समय मारमा पर शुर स्वरूप का प्रति पावन सार्थक होता है। परमारमा साप मारमा का सम्बम्परिणामा मीमम्परम बाल का पिपपास समय मैं पनिपों में पागीता में असे विचार पाए जाते से ही कर्मशान में भी। पर्मपाल कातामारमा ही परमारमा जीप परमारमा का परमात्मा में मिस गाबा, सामवसर पदकभारमा कामपोकमान पामारममाव को पार कर परमारम पोमाना / सीप परमात्मा का मंचसा मवसरम | सबीररिसपा: कि मीर में जितनीशामाता मत परिपूर्ण परम् प्रवाह (भात) पतमापदिकारा पर AFTEREHREE SERIFaना
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________________ FACExtnaXXEREDEXERE meTREEXXXXREKORAORARKARKIRArememor NexxxxexTEAM-Ake...... Lyu II ( 23 ) अंश मात्र है। कर्म का प्रावरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है, उसी को ईश्वर भाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिये। धन, शरीर आदि वाह्यविभूतियों में आत्मबुद्धि करना अर्थात् जड़ में ममता करना वाह्यदृष्टि है। इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा कर्म शास्त्र देता है। जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं। उन्हें कर्म-शास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो परन्तु इससे उसकी सचाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता। शरीर और आत्मा के अभेद-भ्रम को दूर कराकर उसके भेद ज्ञान को विवेक-ख्याति को कर्म शास्त्र प्रकटाता है। इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है / अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने में स वर्तमान परमात्मभाव देखा जाता है / परमात्म-भाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना-यह जीव का शिव (ब्रह्म) होना है / इसी ब्रह्मभाष को व्यक्त कराने का काम कुछ और। ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने उपर ले रक्खा है, क्योंकि वह आत्मा को अभेद भ्रम से भेद शान की तरफ झुका कर। फिर स्वाभाविक अभेद ज्ञान की उच्च भूमिका की ओर खींचता है। वस, उसका कर्तव्य क्षेत्र उतना ही है। साथ ही योग शाल के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिये, यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र अनेक प्रकार के श्राध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की सान है। वही उसका महत्त्व है। बहुत लोगों को प्रकृतियों की गिनती, संख्या की बहुलता आदि से उस पर रुचि नहीं होनी / परन्तु इस में कर्म शास्त्र का क्या दोष ? गणित, पदार्थ विज्ञान आदि गूढ व / AMERITRIKAXMARArmer Commy
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________________ नमाज E RESUERIES ( 25) रसपूर्ण विषयों पर स्पून पी बोंगों की रपि नही जमती और उ सनहीं पाता इसमें बज पिषयों का क्या दोषा: पोप समझने वालों को मि का किसी भी विषय के भम्पासी कोस पिपप में रम वमी भाता है कि पा समें ताकतर भाय। इसकपन से पूर्ववपा सिद्रो गया फिर्मपाव पाश्रमसियान्ता भम्पारमवाद साप प्रतिनिकर सम्बन्पमप्पास्म प्रकार तमी हो सकता बम फर्मबारका पवाबोपोगाए / कारपनिसपटकर्म पुरनहोजाएँ तब तक मध्यारम प्रकाशोपी नही सकता। अप मम पा उपस्थित होता किवास्तव में कर्मा सकप स्पास प्रश्न के समापान में काराबाता कि मिप्पात्व पाय भाषि कारपों से जीप मारा को किया जाता है वही पर्म कामाता।कर्म का पासप पर्यंत मापकर्म सम्पफर्म दोनों में पदित होता मोकि भाषकर्म भारमा का-खीव का वैमाधिक परिणाम है। इससे पसका पादाम पकतो जीवनी और मम्प मो दि कार्मर माति के सामानों का रिकार सका मी का निमित्त कर से बीष दी है।माष कर्म होने में प्रम्पकम निमिच और प्रम्प में मावधर्म मिमिनारस प्रकार पदोनोकामापस में बीमाकरकीराकार्यकारक माष सम्मापरे। - IREDEODES - -
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________________ पञ्चम पाठ AMERIODERATORREARRIERREDITORXXCXAXERARRAxarmulu! (कर्मवाद) श्रात्मा के अस्तित्व होने पर ही कर्मवाद का अस्तित्व माना जा सकता है क्योंकि जब आत्मा का ही अभाव हो तव कर्म का सद्भाव किस प्रकार माना जा सकता है। जैसे किवृक्ष के अभाव होने पर शाखा प्रतिशाखा वा पत्रादि का अभाव स्वयं ही हो जाता है ठीक उसी प्रकार श्रात्मा के अभाव मानने पर कमाँ का असाव स्वयमेव सिद्ध होता है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि श्रात्मा का अस्तित्व किन फिन प्रमाणों से सिद्ध है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि प्रथम कर्म ग्रंथ की प्रस्तावना में इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया गया है। जैसे कि आत्मा स्वतंत्र तत्त्व है। फर्म के सम्बन्ध में ऊपर जो कुछ कहा गया है उसकी ठीक ठीक संगति तभी हो सकती है जय कि श्रात्मा को जड़ से अलग तत्त्व माना जाए / आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नीचे - लिखे सात प्रमाणों से माना जा सकता है (1) स्वसंवेदनरूप साधक प्रमाण (2) वाधक प्रमाण का अमाव (3) निषेध से निषेध कर्ता की सिद्धि (4) तर्क (5) शास्त्र व महात्माओं का प्रमाण (6) आधुनिक विद्वानों की सम्मति और (7) जन्म। XXCOMXMARIXXRKERXXXCAREERXXREAKERAXXXXX Yoxxxwwxiy E XICENROMAXIMIXAXE
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________________ PEEEXI.EE (१)वसंघदन प सापक प्रमाण / पपपि सभी पारी मानके भावरण से म्यूमापित रूप में घिरेप और इससे ये अपने ही मस्तित्व का सद करते तथापि मिस समय उनकी एदि पोड़ी सी, प्र भी स्पिरो गाती रस समप उनको पास्फुरया होती है। 1 किमया स्फरसा कमी नही होती कि मैं नहीं। 'ससे सलग पामी निम्प होता कि मैं महीपापात: नहीं। इसी बात को मीराराचा मे मी कहासों मारमाऽस्ति स्वं प्रस्पेति न नाहमस्मीवि (प्रभा माम. 11) उसी निशप मोदी ससंबेदन (मारमनिमय) / (2) पापक प्रमार का प्रभाषा ऐसा कोई प्रमाणही मो मारमा के मस्तित्व का बाप (निपेप)करता है। इस पर पपपि पाशंका हो सकती। कि मन और इन्द्रियों द्वारा प्रात्मा का पालन होना पीसका बाप है। परंतु इसका समाधान सामापिसी विपप का पामक प्रभाव पडी मामा माताको रस विपय को मामले की राशि रखता और मप सब सामग्री मीर होने पर उसे भाप रन सके रिमारिहार्प-मॉम मिहीर - परेको ऐच सकतीपर रिस समप प्रकाय, समापवा मादि सामग्री राने पर मौका मिकी के परेको नरेने रस समय रसे उस विषय का पापा सममाना चाहिए / धियों समी मोतिष की प्राण शशि त परिमितमीतिर पदापी में भी स्पस मिपरी भोर निपात पिपर्यो ।बी ऊपर सपर से गान सकती।सम्म प पत्र माता समसमासा माससमasam OESPF JEEEEEE
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________________ Ekonoms) Xew] Xom ali 20 -01 Xper pasti Tomas X II RAMAXIMIRE EXERXxxreAXEXXXXIMIREOXXXX साधनों की भी वही दशा हे, वे अभी तक भौतिक प्रदेशों में ही कार्यकारी सिद्ध हुए है, इसलिये उनका अमौतिकअमूर्त श्रात्मा को जान न सकना वाध नहीं कहा जा सकता। मन भौतिक होने पर भी इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान् है सही पर जव वह इंद्रियों का दास बन जाता है-एक के पीछे एक इस तरह अनेक विषयों में वंदर के समान दौड़ लगाता फिरता है तब उसमें राजस व तामस वृत्तियाँ पैदा होती है सात्विक भाव प्रकट होने नहीं पाता 1 यही बात' गीता में भी कही है.-- इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते / तदस्य हरति प्रज्ञा वायुनावमिवाऽम्भसि / (10 2 श्लोक 67) इसलिये चंचल मन में आत्मा की स्फुरणा भी नहीं। होती। यह देखी हुई बात है कि प्रतिविम्य प्रहण करने की 2 शक्ति जिस दर्पण में वर्तमान है वह भी जब मलिन हो जाता है तब उस में किसी वस्तु का प्रतिविम्व व्यक्त नहीं होता। इससे यह वात-सिद्ध है कि बाहरी विषयों में दौड़ लगाने वाले अस्थिर मन से आत्मा का ग्रहण न होना उसका वाध नहीं है किन्तु मन की शक्ति मात्र है। इस प्रकार विचार करने से यह सिद्ध होता है कि मन, इन्द्रियों, सूक्ष्म दर्शक यत्र आदि सभी साधन भौतिक होने से प्रात्मा का निषेध करने की शक्ति नहीं रखते। (3) निषेध से निषेध कर्ता की सिद्धि / कुछ लोग यह कहते हैं कि हमें श्रात्मा का निश्चय नहीं ! होता, बल्कि कमी कभी उसके प्रभाव की स्फुरणा हो पाती ATESXAXIREKREYMARAXARAxmarwari XEXXEDXXXREXXKarton WATrana na
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________________ - -- - -- - - - -- ( 2 ) है।पाकि किसी समय मन में ऐसी कामासने समती है। : कि में नही है हरयादि। परन्तु उनको जानना चाहिये कि चमकी पदपरसनादी मारमाके मस्तित्वको सिमपरती। ज्योकि पति मारमा दीनो तो ऐसी कस्पना का मामाच / से मोनिषेप करापास्वप ही पारमास पात / को भीराचार्य नभपने मझममाप्य में भीमाप एप हि निराका सदेस तस्प स्मरूपम् / / (मा२ पा.६.१५.७) ----.. पानमसन __ यह भी मारमा के स्वतन्त्र अस्तित्व की पुएि परवा।। पाकरता गित् में समी पापीका निरोपी कोई कोई देखागाता से भेषकारमापिरोपी प्रकाश उप्पताका, पिरोपी शेस्प सुषका बिरोपी पुलिसी सराह पपार्ष का विरोधी मी कोई तस्वहोना चाहिये / यो तत्व सर का पिरोभीपही टन मास्मा। स पर पहत किया जा सकता किमाबेसन- दोस्पतंत्र विरोधी तत्व मानने रचित नही किन्न किसी पसी प्रकार के मूल पदार्प में महत्वपबेतमाल-पेपोमा क्रिया माननी अधित हैं। जिस समय चेतनवराति का विनास नेसगतासकीम्पति होतीस समय बवाह का तिरोमा राता है। समी बेवम शहिवासे माखी गर पदार्थक विकास के पी परिणाम पर प्रतिरिक अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नही रखते पिता व परिका सोने से शीषमारी कप में रिचाईवे पैसाही मम्तम्पमा मारि भनेक परिसमीप विद्वानों का मी। समाजESLEEx SUESUE-पवस्व
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________________ ---HIKARA...anama PunausxxxyamroYOORXH ( 26 ) इस प्रतिकुल तर्क का निवारण अशक्य नहीं है। यह देखा जाता है कि किसी वस्तु में जव एक शक्ति का प्रादुर्भाव होता / है तब उस में दूसरी विरोधिनी शक्ति का तिरोभाव हो जाता है / परन्तु जो शक्ति तिरोहित हो जाती है वह सदा के लिये नहीं, किसी समय अनुकूल निमित्त मिलने पर फिर भी उस का प्रादुर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार जो शक्ति प्रादुर्भूत हुई होती है वह सदा के लिये नहीं, प्रतिकूल निमित्त मिलते ही | उसका तिरोभाव हो जाता है। उदाहरणार्थ-पानी के अणुओं को लीजिये / वे गरमी पाते ही भापरूप में परिणत हो जाते हैं। फिर शैत्य आदि निमित्त मिलते ही पानीरूप में वरसते / / अधिक शीतत्व होने पर द्रव्यत्वरूप को छोड़ वर्फरूप में से घनत्व को प्राप्त कर लेते है। इसी तरह यदि जड़त्व,चेतनत्व-इन दोनों शक्तियों को किसी एक मूल तत्त्वगत मान लें तो विकासवाद ठहर ही न सकेगा। क्योंकि चेतनत्व शक्ति के विकास के कारण जो श्राज चेतन (प्राणी)समझे जाते हैं वे ही सब जड़त्व शक्ति का विकास / होने पर फिर जड़ हो जायगे / जो पाषाण आदि पदार्थ आज जहरूप में दिखाई देते हैं वे कभी चेतन हो जायंगे और चेतन रूप से दिखाई देने वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणी कभी जहरूप भी हो जायेंगे। श्रतएव एक पदार्थ में जड़त्व चेतनत्वइन दोनों विरोधिनी शक्तियों को नमानकर जड़ चेतनदो स्वतंत्र तत्त्वों को ही मानना ठीक है। (5) शास्त्र व महात्माओं का प्रामाण्य / या अनेक पुरातन शास्त्र मी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का A प्रतिपादन करते हैं। जिन शास्त्रकारों ने बड़ी शातिव गंभीरता / KATARIKAAMRIDAmarwarrermerrr xxxxxEROXEXXEXXXXXXXXCRICAXEKH Yoxxxcxxxxxxxxxxxxxxxxxnxxom
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________________ MEEानाreaEEPEE ----LUEEEEEE के साथ भारमा पिपप में बोस को उनले शासगत मनु भरको पदिम बिना भममा फिर्य ती चपलता से पोही रंसी में रहातोस में आता किस की। मागास भी : भनेक महारमा ऐसे रखे जाते कि निम्होंने अपना जीवन पवित्रतापूर्वक मारमा पिचार में पितापा। मगर भनुमप को म परिमपमे भ्राम्त मनुमपरपा परन माये वो इस में म्यूमता हमारीही। पुरातम शान और वर्तमाष मनुमची मदारमा निस्वार्प माप से प्रारमा के मस्तित्व को / पला रो। (1) माधुनिक हानिकों की सम्मति। माना होग प्रत्येक विषप का विपन करने के लिये पापा शामिक विधानों का विचार माना चाहते पा पीक फिप्रमेक पमिमीप मीविषविवाम विवाद मारमा को नहीं मानते पास विपप में संदिग्प पर पसे मी मोकपर शामित चिन्होंने अपनी सारी भापु मौविकलोग में विशारे पर जिम की रएि मूनों से परे मास्म तल की मोर मी परचीन में से सर मोती पर मॉरीररहपिन का पाम बाधित संसार में पापेभोनों पिधारसम तत्व को घर से सरा माननेपा में यापारियों की प्रक्रियाबाब पी सापपानी, विचारसरपि से दिपा / का। सम्पपिता मतग मसिव के सिपाप जीप : पारिपोरकी विसार रचना किसी राम नही सकती।भीर मोतिकारियों की तरा मस्तिपको | मामा
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________________ um- LHILO-AS -..' PRAXAXIXXXEXERXXIGITIERXXX ( 31 ) | की जर नहीं समझते किन्तु उसे मान के श्राविर्भाव का साचनमात्र समझते हैं। डा० जगदीश चोस, जिन्होंने सारे वैधानिक संसार में नाम पाया है, उन की खोज से यहां तक निश्चय हो गया है कि वनस्पतियों में भी स्मरणशक्ति विद्यमान है। घोस महाशय ने अपने श्राविकारों से स्वतन्त्र यात्म-तत्त्व मानने के लिय वैज्ञानिक संसार को मजबूर किया है। (7) पुनर्जन्म नीचे लिख्ने भनक प्रश्न ऐसे है कि जिनका पूरा समाधान पुनर्जन्म के माने विना नहीं हो सकता। गर्भ के श्रारम्भ से लेकर जन्म तक वालक को जो जो कष्ट भोगने पड़ते हैं ये सब उस बालक की कृति के परिणाम है या उस के माता पिता की कृति के ? उन्हें बालक की उस जन्म की कृति का परिणाम नहीं कह सकते, क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा या वुरा कुछ भी काम नहीं किया है। यदि माता पिता अच्छा या बुरा जो कुछ भी करें तो उसका परिणाम विना कारण वालक " को क्यों भोगना पड़े ? बालक को जो कुछ सुख दुख भोगना al पड़ता है, वह योही विना कारण भोगना पड़ता है-यह मानना * तो अज्ञान की पराकाष्ठा है क्योंकि विना कारण किसी कार्य H का होना असम्भव है। यदि यह कहा जाय कि माता पिता के श्राहारविहार का, विचार वर्तन का और शारीरिक मानसिक अवस्थाओं का / * इन दोनों चैतन्यवादियों के विचार की छाया, सवत् 1661 के न ज्येष्ठ मास के तथा सवत् 166. के मार्गशीप माम के और सवत् 1665 के भाद्रपद मास के "वसन्त" पत्र में प्रकाशित हुई है। HENXxxxxxxxxxxxxxx मxAEXEEEEEEEEEEEEEERuxxxwat: KAR
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________________ पEE-- ज मसर पालक पर गर्मापस्पा सेटी पदमा एक सातााता फिर यह प्रमादिपालक को ऐसे माता पिता का.. योग फ्पों मा! और इसका स्या समाधान किमी कमी पासक की पोम्पता माता पिता से पिस कुलदीप प्रकार की होती है। ऐसे मनेरवारपरेने माने कि माता पिता पिसफुस प्रपोते और लाफा पूरा शिपित पन साताप करेचा गावी फिघिमी किमी माता : पितामों की रवि मिस बात पर विलकुलदीनही होती रस में पासक सियास्त हो गाता है। इसका कारण केपसमाप्त पास की परिस्थिति नहीं मानी जा सकती क्योंकि समाव: परिस्थिति और परापर देष मास होते मी प्रमेक विचा पियों में विचारपसम की विषमता देवी गाती है।परि कहा जाप किपा परिणाम बालक के मनमुतमाम तम्सुमो का तो इस पर पाशंका होती किवासा कामठो: माता पिता के थक शोपित मे बना होता है फिर पममें / प्रषिपमाम ऐसे जानतम् पासा के मस्ति मेमापे पाहा, से! काही माता पिता पी सी पावराति पास में रेली। वातीसही पर इसमें भी प्रम कि ऐसा प्रपोग क्यों मिता किनी बिसी नगा पामीरेना मागी कि माता पिता की पोम्पता पापड़ी बड़ी होती है भीर रामके सौ प्रपक्ष परमे पर मी सका भूपीए माता है। पासप कोरिदिती कि पा साप पुगहरूप से मम्मे पदो पालकमी समान नही रोते / माता पिता कीपमाल परापर Hोने पर मी एक साधारणवीरता और दूसरा काही भामे परमाताहै। पाका पिएर रोग से नाीरता और सरा सम- FREER मान SEAREER in ब
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________________ PREPAXEXICAXIERXXXXXXxxxzernsar ExcexerYANE KExexxwxx sexs ( 33 ) बड़े बड़े कुस्तीवाजों से भिड़ता है / एक दीर्घ वी , वनता है और दूसरा सौ यत्न होते रहने पर भी अकाल में यम का अतिथि बन जाता है। एक की इच्छा सयत होती है / और दूसरे की असंयत। जो शक्ति भगवान महावीर, वुद्ध और शंकराचार्य में थी वह उनके माता पितालों में न थी। हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा 1 के कारण उनके माता पिता नहीं माने जा सकते, उनके गुरु भी उनकी प्रतिभा के मुख्य कारण नहीं क्योंकि देवचन्द्र सूरि के हेमचन्द्र के अतिरिक्त और भी शिप्य थे फिर य कारण है कि दूसरे शिष्यों का नाम लोग जानते तक नहीं और। के हेमचन्द्राचार्य का नाम इतना प्रसिद्ध है ? वर्तमान युग के नेता अहिंसाधर्म के प्रचारक प्रतिभा और सदाचार से युक्त महात्मा गाँधी जी में जो आत्मिक शक्ति है वह उनके माता पिता में न थी, न उनके माता पिता उनकी आत्मिक शक्ति के कारण माने जा सकते हैं / श्रीमती एनी विसेंट में जो विशिष्ट शक्ति देखी जाती है वह उनके माता पिताओं में न थी और न उनकी पुत्री में देखी गई है। अच्छा, और भी कुछ प्रामाणिक उदाहरणों को सुनिएप्रकाश की खोज करने वाले डा० यंग दो वर्ष की अवस्था में पुस्तक को यहुन अच्छी तरह वॉच सकते थे। चार वर्ष की अवस्था में वे दो वार वाइविल पढ़ चुके थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने गणित शास्त्र पढ़ना प्रारंभ किया था और तेरह वर्ष की अवस्था में लेटिन, श्रीक, हिब्रू, फ्रेंच, इटालियन श्रादि मापाएँ सीख ली थीं। सर विलियम रोवन हेमिल्ट ने तीन A वर्ष की अवस्था में हिब्रू भाषा को सीखना आरंभ किया और xATARAKERKARYANARTrxxxxxx ICORIXxxmmmxxn XXXHXmxxnxxcxx XXXCERRERAKrixnx
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________________ SEEEEEEEEERED ( 18 ) H सावपकीभपस्पामे उसमापामेसनामेएम्प प्राप्त कर लिया किरपिम निरी फासेश के एक फेसोको स्वीकार करना पड़ा। कि कामे मे फेसो पद के मार्थियों में भी रम परापर बात || मही।तरावर्ष की अवस्था में धोरणनि कम से कम ! तेगमापामों पर पूर्व अधिकारसमा किया था।सम् 18 : में जम्मी एकताकी में सन् 15... मैपशव की भव: स्पा में कमाउकतिष शिप पे उसकी मावापनानुसार बापांच वर्ष की पय में कई चोटी मोरी कविताएं पमा सेठी पी। उसकी सिषीका कविताएं मारानी विरोरिपा के पाम मी पाँपी पी। उस समय उस पालिका का भप्रेमी पान मी मार्यममा पा पाकातीपी फिमें अंग्रेजी पड़ी। नहीं परन्तु मानती हैं। रफ बारिषों पर पान देने से पा स्पर ग्राम पड़ता किस सम्म में देवी पाने बासी सप विसषयवाएं न तो पर्चमान अाम की रुति के ही परिणाम मास माता पिवाफेवल संस्कार के और नया परिस्थिति के दी। इसभिपे मारमा 2 मस्तित्व की मापा को मर्म के Mभारंम समप से और भी पूर्व मानना चाहिए 1 बी पूर्ण समस्याला पूर्व सम्म में इगा पा प्रातिशारा यो संस्कार संचित / परमी के पापार पर पपुंज कामों का तथा वित सपनामा का ससगत समापाम हो जाता है। जिस प्रतिसे पा पूर्वजन्म सिसमा उसी के पस से भोक पूर्वजन्मबी परम्परा सियोशाती।स्पोकिअपरिमित माधिप सम्म भर सका फस महो सकता। इस प्रकारमारमा REEमान्य
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________________ Sexxxxx XxxxxxxxxxxKIKHAYR HDXEXXEXAXAAOXXXXXXXXXXXRAN ( 35 ) देह से पृथक् अनादि सिद्ध होता है। अनादि तत्त्व का कभी नाश नहीं होता / इस सिद्धान्त को सभी दार्शनिक मानते हैं। गीता में भी कहा है किनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (102 श्लो० 16) इतना ही नहीं, बल्कि वर्तमान शरीर के पश्चात् आत्मा - का अस्तित्व मान विना अनेक प्रश्न हल नहीं हो सकते। ___ बहुत लोग ऐसे देखे जाते है कि वे इस जन्म में तो प्रामाणिक जीवन विताते हैं परन्तु रहते हैं दरिद्री / और वहुत ऐसे भी देखे जाते हैं कि जो न्याय, नीति और धर्म का नाम सुन कर चिढ़ते हैं परन्तु होते है वे सब तरह से सुखी ऐसी अनेक व्यक्तियों मिल सकती हैं, जो हैं तो स्वयं दोषी और उनके दोषों (अपराधों) का फल भोग रहे हैं दूसरे / एक हत्या करता है और दूसरा पकड़ा जाकर फॉसी पर लटकाया जाता है। एक चोरी करता है और पकड़ा जाता है दूसरा। म यहाँ इस पर विचार करना चाहिए कि जिनको अपनी अच्छा l या बुरी कृति का बदला इस जन्म में नहीं मिला, उनकी कृति क्या यों हीविफल हो जाएगी? यह कहना कि कृति विफल होती है, ठीक नहीं। यदि कर्ताको फल नहीं मिला,तोभी उसका असर व समाज के या देश के अन्य लोगों पर होता ही है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि मनुष्य जो कुछ करता है वह सव दूसरों के लिये ही नहीं। रात दिन परोपकार करने में निरत महात्माओं 2 की भी इच्छा दूसरों की भलाई करने के निमित्त से अपना परमात्मत्व प्रकट करने की ही रहती है। EHCRIXXXX.RRXKARXXXKARACamxxxxxxxxKRIXXXXXXXXXXXX
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________________ PRELIGEEXXXTERaaca BEBEEen विश्पपीम्पपस्पा में इप्पा का पाल वा स्पान / पेसी बया में वर्षमान पेसाप मामलामाशमान समा यहि-संगत नदी / मनुप्प अपने जीपन की माखिरी पड़ी तक ऐसीही पाशियपरताना मिस स कि मपना, मला दो। पर नहीं कि ऐसा परने पास सब भाती स्व: Pपन भाग पाये हुये स्थिर पिपशान्त प्रहापाम् योगी / मी इसी विचार से मपने सापम का सिय करने पीपरा में लगे होते किस जन्म में नही वो इसरे में ही सही पिसी / समय म परमात्मभाव को प्रारमे। इसके सिवाय समी के पित्त में पा फराएमा फरतीकि परापर, कापमरंगा / शरीरमाश होने के पश्चात् तमका मस्तित्व म माना गाय तो म्पषित का गोस्प पिठमा संकुषित पन। जाताभीर कार्यप भी कितना प्रम्प पगावामीरों के लिये दो किया साप परम परमपमे लिये किये जाने वाले कामों के बराबर हो नहीं सकता। बेवन की उत्तर मपदाकोपमान म्हिमारक मामले सेप्पक्ति को महत्वाकांक्षा पसरासे बोर देनी पड़ती है। इस अम्म में ही तो भगरे सम्म में भी सही। परंतु में पपना गरेप अपत्य सिय काँगा पर मावना मनुषो केपप में जितना पा प्रमटा सकतीतमा पर मम्प कोई मावना नही मकरा सकती। पामी नहीं कहा जा सकता विपसमापना मिप्पास्पोकिसका भाधिौष मसर्गिक मीर सर्वपिडित विकास पाप मोदी मीतिक रचनामों को पंचकर सर तपो पर पड़ा किया गया हो पर सपा विपय वेतन मी बम साता है। इन सब बातों पर ध्यान देने से परमान कियाप्रमपात 23FEEEEEन
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________________ XNXXTARIKAnxinsxcemma -AAN ( 37 ) विना सन्तोप नहीं होता कि चेतन एक स्वतन्त्र तत्त्व है। वह / शान से या अज्ञान से जो अच्छा बुरा कर्म करता है उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है और इसीलिये उसे पुनर्जन्म के चक्कर में धूमना पड़ता है / पुनर्जन्म को वुद्ध भगवान् ने भी माना है / पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निटशे कर्मचक्रकृत पुनर्जन्म को मानता है। यह पुनर्जन्म का स्वीकार आत्मा के अस्तित्व को मानने के लिये प्रवल प्रमाण है / इस प्रकार श्रात्मा के अस्तित्व मानने पर ही संसारचक्र में भ्रमण वा , उससे निवृत्ति (निर्वाण पद) की प्राप्ति मानी जा सकती | है। कारण कि कर्म से ससार और अकर्म से मोक्षपद की | प्राप्ति होती है। इस स्थान पर अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब / सव आस्तिकवादी फर्मों को मानते हैं तो फिर जैनदर्शन। में कर्मों के मानने की क्या विशेषता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रथम कर्म ग्रंथ की प्रस्तावना में लिखा है कि कर्म तत्त्व के विषय में जैन दर्शन की विशेषता। जैन दर्शन में प्रत्येक कर्म की वध्यमान, सत् और उदयमान ये तीन अवस्थायें मानी हुई है। उन्हें क्रमशः वन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं। जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की इन अवस्थाओं का वर्णन है। उनमें वध्यमान कर्म को 'क्रियमाण' सत्कर्म को 'सञ्चित' और उदयमान को 'प्रारब्ध' कहा है / किन्तु जैन शास्त्र में शानावरणीय आदि रूप से कर्म का 8 तथा 148 मेदों में वर्गीकरण किया है, और इसके द्वारा ससारी आत्मा की अनुभव सिद्ध भिन्न भिन्न अवस्थाओं का जैसा विशद #विवेचन किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। EXAXEXXEREKARTEKATIHARMA KARKE Xxnxxxnxx RE- XXxxxxxxxx ,
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________________ सम्ममममममन्याल DESIGREZI + 5 _ (28) पातबस पर्सन में कर्म के जाति प्रायु मोर मोग ये वीम तरा केपिपाक पतलापमा जैन दर्शन में फर्म सम्बन्ध में रिये गये पियारक सामन पर पर्गन नाम मात्र का। मारमा क साथ कर्म का पम्म कसे होता है। किन पिन / कारयो साता। किस कारण से चर्म में सी राशि पदा हाती!कर्म प्रधिक से अधिक भोर कम से कम किसने समय तक भारमाफ साप लगाएसमता मारमासाप लगाएमा मी फर्म कितने समय तक विपाने में असमर्थ / है। पिपाक का नियत समय मीपसायासकटापा नहीं! : पदि पवला जा सकता है तो उसके लिये पैसा मारमपरिणाम प्रायस्पक पक कर्म भम्प कर्म कप परन सकता! उसकी पम्प कासीम तीम मन्द गायों किस प्रकार पपगी मा. सकती! पीसे विपाक ने पासा पर्म परोकप और फिम तरा मोगा जा सकता है। फितना मी बापमान कम पोनरो पर पसका पिपाक रायमारिमक परिणामों से कैसे राक रिया गावामी कमी मारमा के स्वया मया करने | परमीम अपना पिपापविना मागवाये नहीपटवा मारमा किस तराफर्म का कर्ता भीर मौका है। इसमाने पर मी पशुमा भारमा में फर्म का कर्तृत्व और मोमवाव किस प्रकार महीसागसप परिणाम अपनी मारपंप शक्ति से प्रारमा पर एक प्रकार की सम एका पदम किस दरासस भास्मा बीर्य शशिमाधिर्मावकारा इस सासपालको फिम तयरा फरासिमामत्ता मामी कर्म के प्रमापसे किस किस प्रकार मसिन सा पीतामीर पायगामापरयों के होने पर मी सपनाम:
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________________ IAxonagexxx र करके अपन परमात्मा तथा अनिवृTAL MARRARAMMEAXMARKETAKERATORXXXXXXXSAXErazersnA- ( 36 ) अपने शुद्ध स्वरूप से किस तरह च्युत नहीं होता? वह में अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्ववद्ध तीव्र कर्मों को किस तरह हरा देता है ? वह अपने में वर्तमान परमात्म भाव को देखने / के लिये जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व युद्ध होता है ? अन्त में वीर्यवान् श्रात्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कंटक करता है ? श्रात्म मन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं, उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम तरगमाला के वैद्युतिक-यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर / चूर चूर कर डालता है ? कभी कभी गुलांट खा कर कर्म ही, जो कि कुछ देर के लिये दवे होते है, प्रगतिशील श्रात्मा को किस तरह नीचे पटक देते हैं? कौन कौन कर्म वन्ध व उदय की अपेक्षा आपस में विरोधी है ? किस कर्म का वध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत में अनियत है ? आत्म सम्बन्ध अतीन्द्रिय कर्म रज किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से स्थूल पुद्गलों को खींचा करती है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्म शरीर आदि का निर्माण किया करती है ? इत्यादि संख्यातीत प्रश्न जो कर्म से सम्बन्ध रखते है, उनका सयुक्तिक विस्तृत व विशद विवेचन जैन साहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य से नहीं किया जा सकता / यही कर्मतत्त्व के विषय में जैन दर्शन की विशेपता है।
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________________ समजाममा ( 5 ) __ पाठक जमों को पामसी मावि विपितो गया रोगा जिस प्रकार प्रारमपार और कर्मचारका सविस्तरपर्यन और न मादिस्य में मिलतास प्रकार किसी भी क्षेमेतरप में पज पिषय पटकप से पर्पन नही किया गया / मासे सोग इस प्रकार से करा पर कि जिस प्रकार सेम पिपे जात ही पसी प्रकार समका फस मी मोगले र में माता सोपा मी तप तक ती का किया मावा, अपतकमहति स्थिति अनुमाग प्रदेश-स्पादिकमी के मेरों कोमधिगत नाही किया गया। पारस किमौका पम्प भाग्मा के राग मेष के मानों पर ही भवमपित, भात निस प्रकार के तीन मंद भास प्रकारचे पम्प या एमबम प्रहादियों का मोबावा। भता जिस प्रकार से कम किपे गपेपस प्रकार से मी मोग सफताप प्रकार से भी भोग सकता है। बारकि मारमा माचों मारा मोबी महरिपोका पाव : संक्रमण माना गया।जसेवियमकों का यम विपाक, 2 शुम पो त भयम विपाक प्रयम मों का गम पिपाष भाम कर्मों का प्रयम विपास। सपतुर्मगी में इस बात पर प्रकाराण पयामिर्म मास्मा मानों पर ही निर्मापतेरस कि पहले और बर्ष मंग में वो कोई विचार दी / पितु बोरिवीप और वतीय मा भाप विचारतीय / जैसे कि-२ यम कमी का मयम विपार और मम फी का राम विपासान दोनों प्रगा कपन करने का सारा इसमा दीकि रामादिगम कर्म करके फिर पमानापादिकरम सग साना-पारिरिपानों REEEEEEEEER SEEEE मन
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________________ EXCHAKRAXAXARKARTAKIXXXRXXMRATE ( 41 ) Xoom- m: द्वारा जिस तरह शुभ कर्मों का अशुभविपाक हो जाता है ठीक उसी प्रकार हिंसादि अशुभ क्रिया कर के फिर अन्तःकरण से पश्चात्तापादि क्रियाओं द्वारा अशुभ कर्मों का शुभ विपाक अनुभव किया जाता है। क्योंकि कर्मों के कारण में मुख्यतया श्रात्मा के भाव ही लिये जाते है तथा उन भावों से कर्म से निवृत्ति और प्रवृत्ति देखी जाती है। SAALLER
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________________ समEDEE-- - -- छठा पाठ -- (कर्मषाद) कम मोर मास्मा का अस्तित्व मानने पर ही निर्माण पर का प्रस्तित्व माना गा सफता। प्रब मनपा उपसित होता कि पासाप में कर्म किसे काय पनके मूल मेद पा 1) रचर मे कितने है। इस माम का समापान इस प्रकार है कर्म पुनम रसे करते मिस में रूप रस गम्म भौर : F स्पर्श / प्रपिवी पानी प्राप्ति और पाय पाम से बने। यो पुनसकर्म बनते ये एक प्रकार की सम्म एम मयमा पमित,जिसको इन्द्रियों पंच की सहायता से भी नहीवान सकतीं। सर्प परमारमा प्रथा परम-मधिपानबाजे पोगी जी ससस को देख सकते।बीयरे माप पपारद प्रहवीगाती तब उसे कर्म करते। म गरीर में सम्माफर कोई प्रति में मोरे यो परिसर शरीर में चिपक मातीसी प्रकार मिप्पाव कपाय पोग मादिसे जीव मदेशों में अब परिस्पन्द (सिस)ोता हर शिप्स माकारा में भारमा प्रदेशपहीभनम्तममम्स कर्मयोम्प पुल परमासुशीष के एफ एफ मनेग सापप - जावेस प्रकार जीप भीर कर्म का मापस में पम्प होता सप भीर पानी का सपा भाग का भीरसकेगो का सम्बन्योता है उसी प्रकार सीप मोर प. Bews9EB-या . PEEमममममा
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________________ JHASEAXESXxxxnxcseeKERAKEEKEDARKHESAREERIEPARED (43 ) सम्बन्ध होता है। इसी को कर्म कहते हैं तथा कमाँ की मूल प्रकृतियां और 148 उत्तर प्रकृतियां हैं। कर्म बंध चार प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि१ प्रकृति चन्ध 2 स्थिति वन्ध 3 अनुभाग यन्ध और 4 प्रदेश वन्ध / इन का स्वरूप निम्न प्रकार से पढ़िये।। १-प्रकृति वन्ध / / जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में जुदे जुदे * स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना प्रकृति वन्ध / कहलाता है। २-स्थिति वन्ध / जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में अपने अपने काल तक अपने स्वभावों का त्याग न कर जीव के साथ रहने की काल मर्यादा का होना स्थिति वन्ध कहलाता है। ३-रस बन्ध। ___ जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों में रस के तर / तम भाव का अर्थात् अत्यन्त फल देने की न्यूनाधिक शक्ति म का होना रस बन्ध कहलाता है। ४-प्रदेश बन्ध। जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेश वन्ध कहलाता है। अव इस स्थान पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि१प्रकृति वन्ध 2 स्थिति धन्ध 3 रस वन्ध और 4 प्रदेश बन्धal इन यन्धों को फिस दृष्टान्त द्वारा पूर्णतया अधिगत करना 1 चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि मोदक के दृष्टान्त और दाष्टान्तिक में प्रकृति आदि का स्वरूप यो सम
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________________ DECE -- म भना पादिपे। सेकिपात नाशपदार्य-सोग, मिर्च पीपत मादि से पने येसरामों का स्वमायनित प्रकार बायुमार करने का पित नायक पदापों से बने पसरामो का M समाव जिस प्रकार पित्त के पूर करने का कफ नारा " पापों से बने पेवरामों का समाप जिस प्रकार कफ : नए फरमे का उसी प्रकार प्रारमा के द्वारा प्राय किए। एकपकर्म पुरतों में भारमा रेशान गुपके पाठ करने की राशि उत्पपोती कुपकर्म पुलमों में भारमा केपर्गम गुण कोरफले की गति सत्पन होती धर्म पुरसों में मात्मा " के भामद गुपको दिपा देने की शक्ति पैदा होती है काम, पुरमों में प्रात्मा की भगत सामप्प को पाने की बात पैदा होती है। इस तरा मित्र मिस फर्म पुगलों में मिड मित्र प्रकार की प्रकृतियों (शकियों) के पापको भर्याद सत्पर होने को प्रहति पाप करते हैं। कासरह एक सप्ताह तक पते कासरा एक पर। सफ कुसमरा एक महीने तपासवरा पररामो की प्रदीपरी कास मर्यावाहोती।काल मर्यादाको स्पितिकरते। स्पिति के पूर्व होने पर समपने अपन स्वमाएको को मर्यात् बिमा गाते हैं। सोमबार कोई धर्म रस प्रारमारे साप सत्तर होगा मोरी सागरोपम तक कोई पीस कोराकोसी सागरोपम तकको मतमार्च तक पते है। इस तरा पुरेपुरे कर्म बसों में पुरीएपी स्थितियों का मर्यात अपने सामाषा त्यामनकर मारमा के साप बरे पले की काम मचामोकामाप प्रदत्तपोमा स्पिति बन्य कामासा स्पिति के पूर्वोने परकर्मबल पर स्वभाष को पोरते-भाग्मा से हरेगा। सामनार रजालनालय सामDEST
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________________ EXERIENDR.xxxATER XKamJABSCR3Rana EXCEXXXXXROTEIREXXXVERMERARMS कुछ लड्डुओं में मधुर रस अधिक रहता है, कुछ लड्डुश्री से में कम / कुछ लड्दुओं में कटु रस अधिक, कुछ लड्डुओं में कम / इस तरह मधुर, कटु, श्रादि रसों की न्यूनाधिकता देखी जाती है। इसी प्रकार कुछ कर्म दलों में शुम रस आधिक, कुछ कर्म दलों में कम, कुछ कर्म दलों में अशुभ रस अधिक, कुछ कर्म दलों में कम / इस तरह विविध प्रकार के अर्थात् तीव तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम, शुभ अशुभ रसों का कर्म पुद्गलों में बन्धना अर्थात् उत्पन्न होना 'रसवन्ध' कहलाता है। शुम कमाँ का रस ईख, द्राक्षा श्रादि रस के सटश मधुर होता है, जिसके अनुभव से जीव खुश होता है। अशुभ कर्मों का रस नींव आदि के रस के सदृश कडुवा होता है, जिस के अनुभव से जीव बुरी तरह घबड़ा उठता है। तीव, तीव्रतरादि को समझने के लिये दृष्टांत के तौर पर ईख या नींव का चार सेर रस लिया जाय इस रस को स्वाभाविक रस कहना चाहिये / श्रॉच के द्वारा औटा कर जव चार सेर की जगह तीन सर रस वच जाय तो उसे तीव्र कहना चाहिये और औटा कर जव एक सेर वच ज य तो तीव्रतम कहना चाहिये / ईख / या नींव का एक सेर स्वाभाविक रस लिया जाय, उस में एक सेर पानी मिलाने से मन्दरस वन जायगा / दो सेर पानी मिलाने से मन्दतर रस बनेगा।तीन सेर पानी मिलाने से मन्द तम रस बनेगा / कुछ लड्डुओं का परिमाण दो तोले का, कुछ To लड्डुओं का छटांक का और कुछ लड्डुओं का परिमाण पाव भर का होता है। उसी प्रकार कुछ कर्म दलों में परमाणुओं की संख्या A अधिक रहती है, कुछ कर्म दलों में कम / इस तरह भिन्न भिन्न / Amxmxam.
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________________ READममा परमाणुस्पानों से पुककर्म वसी का मारमा से सम्मम्म होमा प्रदेशाप कासाता। जीव संस्पात प्रसस्पात प्रथया मर्मत परमाणुमा से पवे पए स्कप को माप मही करवा फिम् ममम्त प्रमात परमा समों से धमे पे कम्पको प्राण करता है। कमी कीमत महतियो माठ से कि-१पानावर पीप 2 पलंगावरपीप बेपनीय 5 मोहमीय 5 मायु 5 भाम . गोष मौर मम्सराप / उत्तर महातियाँ 14 मा 18 सेकि-परसे कर्म के उत्तर मेद पांच सरेक मी तीसरे पीपे भास पाच के पार, बठेके. एक सौ तीन पाराम सातदो और मायके पांच है।पाठो कमी तर मेदों की सपा पक सौभापन। बेसमा मारमा का गुप। उस (चेतना) पापको उप पोग का उपयोग के दो भेद वानमौर पना भान को साकार उपयोग पाते। मौरन को निराकार उपपोयामो उपपोप पापोंक्षेपिरोप ममी कामाठि गुण किया मादि का प्रारकोपाबा कालाता। भीरमो पपयोग परापों के सामान्य धर्म (सचा)का मारक से पान काते / सो पा पेठमा के गुप कमी के मत्वरवले / प्रापपारित होगे। मम मम पापपस्थित होता दियो पर भाउको - नाम लिये गपका मर्यपास प्रम केसमा भाष में पडा माता कि इस मार कर्मों के प्रकोप | पहिये। जैसे कि BEEGसपना
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________________ MARKET-TAREERXXXKAKKARXexerxxxeras XXXXxxxxxxXY ( 47 ) १ज्ञानावरणीय-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को श्राच्छादित करे (दॉपे), उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं। 5 2 दर्शनावरणीय-जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को श्राच्छाMaदित करे, वह दर्शनावरणीय कहा जाता है। 5 3 वेदनीय-जो कर्म श्रात्मा को सुख दुःख पहुँचावे. वह वेदनीय कहा गया है। 4 मोहनीय-जो कर्म स्व–पर विवेक में तथा स्वरूप रमण में वाधा पहुंचाता है, वह मोहनीय कहा जाता है। . ५श्रायु-जिस कर्म के अस्तित्व (रहने) से प्राणी जीता है तथा क्षय होने से मरता है, उसे श्रायु कहते हैं। नाम-जिस कर्म के उदय से जीव नारक तिर्यञ्च श्रादि 2 नामों से संबोधित होता है, अर्थात्-अमुक जीव नारक है, अमुक तियञ्च है, अमुक मनुष्य है, अमुक देव है, इस प्रकार कहा जाता है, उसे नाम कर्म कहते हैं। 7 गोत्र-जो कर्म आत्मा को उच्च तथा नीच कुल में / जन्मावे उसे गोत्र कहते हैं। 8 अन्तराय-जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग, और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है, वह अन्तराय कहा जाता है। ___ अव मूल प्रकृतियों के पश्चात् उत्तर प्रकृतियों का विषय कहते में हैं। जैनागमतत्त्वदीपिकासे उक्त प्रकृतियाँअर्थयुफ्त लिखी जाती हैं। प्र०-ज्ञानावरणीय कितने प्रकार का है ? उ०-पांच प्रकार का / 1 मतिज्ञानावरणीय,२ श्रुतज्ञाना. वरणीय, 3 अवधिज्ञानावरणीय, 4 मनःपर्यायज्ञानावरणीय, 5 केवलझानावरणीय / हालाAMEReaxnormane xxxonxoryxnxx.XTOREXXXSamsong YamAXC COAR REME Un
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________________ RRE EVER H - - म.-मतिकानापरपीय प्राविकिसे पाते। मोम्द्रिय मोर मनसे पैदागोमेशापानमा भारत। ये, रसे मतिज्ञानावरपीपरासी प्रकार जो भूत नाम प्रचापि काम मना पर्यायानभीर केपन वान का माष करें, भुवज्ञानापरपीप भाषि समम।। म-पर्यनापरपीय कर्म कितने मेरा भी मेरारनापरपीपरप्रयासपनापरपीप: भवपिनापरमीप पेपर्शमावरपीपर निदा निद्रा मिमा 7 मा 8 प्रबहामना / सयाम पनि। म नाबरपाय किसे करते। १०-मन्द्रियों से होन मिति पान के पा सामाम्प शाम होतासे गो भाप्पादित करे। म-पपदमावरपीप किसे पाते। भतिकिासरी इन्द्रिोसोमेवाडमतिमान पूर्व सामान्पवान जिस से मापादित हो ।(पा बाप)। म०--प्रवपिनावरणीय किसे कहते। -विस से प्रापन माम्बारितो। म.-सपनापरणाप किसे काय? 7.-शिस फेबम पनि प्राप्पादित हो। प्र.-निद्रा किसे पाते। ४.-मिस से मन से सोपे सुख सेवागे ऐसी मियाका। म -निद्रामिदा किसे काते -पावामरेने मेरे पेसी बिदा को। H-प्रथमा किमेकावे। T-48ठे नीरमाये ऐसी मिपाको। HTTAEx -- -- TTHL-T SEREEDESORDEEDE
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________________ P RXKERAKARAXCXXXXnxKEEXXXX KancaineCXIGIODAImat. प्र०-प्रथलाप्रचला किसे कहते हैं? उ०-घोड़े की तरह चलते फिरते नींद आवेऐसी निद्राको प्र०-स्त्यानगृद्धि निद्रा किसे कहते हैं ? A. उ०-दिन में सोचे हुए कार्य को नींद में ही कर डाले / ऐसी निद्रा को / प्र०-वेदनीय के कितने भेद हैं ? उ०-दो / 1 साता वेदनीय और 2 असाता वेदनीय / प्र०-साता वेदनीय किसे कहते है ? उ०-जिससे साता(सांसारिक सुख)वेदाजाय (भोगा जाय)। प्र०-साता वेदनीय किसे कहते है ? उ०-जिस के कारण से दुःख वेदा जाय (भोगा जाय)। प्र०-मोहनीय के कितने भेद हैं ? उ०-मुख्य दो भेद।१ दर्शन मोहनीय और २चारित्रमोहनीय प्र०-दर्शन मोहनीय किसे कहते हैं ? उ०--यथार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं, उस दर्शन को मोहित (विकृत) करे, उसे दर्शन मोहनीय कहते हैं। प्र०-चारित्र मोहनीय किसे कहते हैं ? उ०-जिस के द्वारा आत्मा के चारित्र गुण का घात हो। प्र०-दर्शन मोहनीय के कितने भेद हैं ? उ०-तीन / 1 सम्यक्त्व मोहनीय 2 मिश्र मोहनीय 3 मिथ्यात्व मोहनीय / प्र०-सम्यक्त्व मोहनीय किसे कहते हैं ? उ०-जिस प्रकार कूटे हुए कोद्रव घान्य के छिलकों में पूर्ण मादकशक्ति नहीं होती उसी प्रकार जिस कर्म के द्वारा सम्यक्त्व A mra-TECENTRAXXMAR
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________________ . एलसBEमानाxBDEER गुणका पूर्ण पात तोमरो परम्बाहमा मागाइयोप उत्पनहो।। मपम कर्म प्राय में एक पिपप को इस प्रकार से फर। तया पर्पन पिपामे विपर्यन मोमीप कहीम मेवर-- 1 सम्यकार मोहनीय कमिभ मोनीय मिम्पास्म मोतीप! सम्परव मोरनीय केमिक यसमिम मोहमीप मर्य विरार पीर मिथ्यास्प मोनीप के मयुर। (1) को (कोद्रप) एमकारा प्रोमिसकेबाने में नया होता है परम्स मम का हिसका मिकामा जाप भोर बाबमापिसे यापा माप तो पर नया नहीं करता। उसी प्रकार मीष को शिव भक्ति परीक्षा में विकास परवाने मिप्यात्व मोहनीय पुरस पत्र में सर्पपाती रस होता मा है। मिसानक बिस्थानक और बास्पामक रस सरंपाठी / - MOST गीष अपने चिराय परिणाम से उन पुरतों के सर्वपाती रस को बढा देता सिर्फ एकस्वामक रस पब माता है, इम पकसानक रसपासे मिप्यत्व मोहनीपपुरों को दी। सम्पाप मोरनीय कापरकर्म गुय होने के कारण सस्वरुचि रूप सम्पकाल में पापा नही पहुंचाता परत इसके उदय से भारम-ससमाष कप भोपामिक सम्परच उपा पापिक सम्पाव होने नही पाता भीर सपम पापों विचारले में का मारती विससे कि सम्पत्व में मसिनता मा गाती है। इसीरोपकारवयापम सम्पपल मोहनीय कामाता है। (२)का माग रायमीर माम भयय ऐसे कोसोर ममान मिभ मोहनीय है।सकसपमेगी SUEEEEEEBायब
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________________ - - KEDXXXREXIXEXXERRAZERXXXSAXX Xxxxinmexxxwwwxxx रुचि नहीं होने पाती और श्रतत्त्व रुचि भी नहीं होती / मिश्र मोहनीय का दूसरा नाम सम्यक् मिथ्यात्व मोहनीय है इन कर्म पुद्गलों में द्विस्थानक रस होता है। (3) सर्वथा अशुद्ध कोदो के समान मिथ्यात्व मोहनीय है इस फर्म के उदय से जीव को हित में अहित वुद्धि और अहित में हित वुद्धि होती है अर्थात् हित को अहित समझता है और अहित को हित / इन कर्म पुद्गलों में चतुःस्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस होता है।४ को चतुःके स्थानक को त्रिस्थानक और को द्विस्थानक रस कहते हैं। जो रस सहज है अर्थात् स्वाभाविक है उसे एक स्थानक कहते हैं / इस विषय को समझने के लिये नींव का एक सेर रस लिया इसे एक स्थानक रस कहेंगे / नींव के इस स्वामाविक रस को कटु और ईस्त्र के रस को मधुर कहना चाहिये। / उक्त एक सेर रस को श्राग के द्वारा कढ़ाकर आधा जला दिया / बचे हुए श्राधे रस को द्रिस्थानक रस कहते हैं / यह रस स्वाभाविक कटु और मधुर रस की अपेक्षा कटुकतर A और मधुरतर कहा जायगा / एक सेर रस के दो हिस्से जला 0 जाये तो बचे हुए एक हिस्से को त्रिस्थानक रस कहते हैं। यह रस नींव का हुआ तो कटुकतम और ईख का हुआ तो मधुरतम कहा जायगा / एक सेर रस के तीन हिस्से जला दिये जायँ तो बचे हुए पाव भर रस को चतुःस्थानक कहते हैं / यह रस नींघ का हुश्रा तो अतिकटुकतम और ईख का हुश्रा तो अतिमधुरतम कहा जायगा। इस प्रकार शुभ अशुभ फल देने की कर्म की तीव्रतम शक्ति को चतु:स्थानक, तीनतरशक्ति Mom Xxnxx XXXnxxdesixxx EMERA
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________________ E SIRESERVE L E KEEYEसनासBERESUCCES को विस्थामा तीवधिको विस्थामक पीर मनराका एकस्पान समममा बाहिये / इस लिए कुपोपयुकोने सेही पर सम्पक्व मोरनीया माता। म-पदोप किसे का / .-से एकजीवनामा तरंगों में परिपतवापसी प्रकार तीरों में समान मर्मतराशोमी भी विप सीति करने में और भी पायवाय जी परिचय देने में समर्प इस प्रकार अनेक विषयों में बनापमान होने के कारणभूत दोपको पक्षपोष करते। म-मायोप किसकावे! --से निर्मशमुबई मी मसकारण मसिनका माता से ही सिसो कारप सम्पर पर्गन मै अपस्पपय की वरंग से मसिमता मा बाप उसे मन दोषपाते। म.--मापार रोप किसे करते! -से पर पुरषाप में बीमारी कॉपी: सेही विस सम्पम् परबकेयोते पपी निससे पा मेप। शिम्पमा शिप्पत्पादि प्रम दो से भागार होपाते हैं। म.--मिम मोपलीव पिसेका --मिस कर्म के पाप से भीष की मिम पिसे अर्यात् पी और केमिमिव रोने से पपपपीकास्मार भाताम पूरा कापी मन पूरी तत्वविदोनपरी प्रतस्परविदो। म-मिप्यात मोरनायो / .NE PESHEEमपम
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________________ KEEEXXXxxxx Xxxxxxxxxx ( 53 ) / उ०—जैसे पित्त ज्वर के रोगी को ज्वर के कारण दूध 6 श्रादि मीठे पदार्थ कडवे लगते हैं। इसी प्रकार जिस कर्म के / उदय से जिन प्रणीततत्त्व अच्छा नहीं लगता। प्र०-कषाय किसे कहते हैं ? उ०—जो आत्मगुणों को कषै (नष्ट करे) अर्थात् जो जन्म मरण रूपी ससार को बढ़ावे / प्र०-चारित्र मोहनीय कर्म के कितने भेद हैं ? / उ०-दो / एक कषाय मोहनीय और दूसरा नोकपाय / / - मोहनीय। प्र०-कषाय किसे कहते हैं ? ___ उ०—जो अात्म गुणों को कपै (नष्ट करे) अर्थात् जो जन्म मरण रूपी संसार को बढ़ावे / प्र०-नो कपाय किसे कहते हैं ? उ०-कम कषाय को अर्थात् कपाय को उत्तेजित (प्रेरित करने वाले हास्य श्रादि को। प्र०-कपाय के कितने भेद हैं ? / उ०-सोलह / अनन्तानुवन्धी फोघ मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोम, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोम, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ / प्र०--अनन्तानुवधी चौकड़ी (फ्रोध मान माया लोभ) किसे कहते हैं ? उ०-जो जीव के सम्यक्त्व को नष्ट करके अनन्तकाल पूष्प तक संसार में परिभ्रमण करावे / प्र०-अप्रत्याख्यानावरण चौकड़ी किसे कहते हैं ? NEEKHEENCELEE ... net names RXXXMAXKXICO EXnxxameXXENAXX MERICEXEXXEXEEXXXXEDXXnxxcom 7 - - र
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________________ नयमcEEEEx TEEEEEEEEEEEE "मो कपाप भारमा के देय पिरति गुप (मागाव) पात करे। प्र-प्रत्यास्पानावरण बोकड़ी किसे कावे। 3-सिस पाय से प्रारमा का सर्वविरति बारिम गुरु नए रो। प्र-सबसनबीकडी पिसे कावे! 6 -जिस चौकड़ीसे भास्माकोपपापात पारिन। प्र--नो कपाप के कितने मे र–ी। रास्प 2 रवि भरवि मप हो / गुप्सा 7 सीवेद 8 पुरुषवेदर नपुंसकर / म पाम्प नो पाप फिके पाते। .-मिसोबदय से देसी मारे। म -चिनो कपाय पिसे करते हैं। जविसके समय से विषयो मे उसकता। प्र -मरति किसे काले। 1.-सिमप से पर्म कार्य में प्रधिको। मा-गोपनो साप दिसते / -जिसके पास से शोरो / / म -मप मो रूपाय किसे काते। To-सिमो पप से मप हो। प्र०-गुगुप्सा नो कपाप किसे पाते? उ.--मिसके समय से सरेकी निन्दा की जाय। प्र-स्त्रीबेर किसे करते? 1-शिटकेबरसेपुरपसापरमारने की। LA-PERFEBE
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________________ EXICAXXERRORXIXXXCOXXX M HOMEOXXXXXXXXXXXXXXXXXDEHA YKORAAGMATKACOMXXXXmamJALORBAALAS प्र०-पुरुष वेद किसे कहते हैं ? उ०—जिसके उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो। प्र०-नपुंसक वेद किसे कहते हैं ? ___ उ०—जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो। प्र०-द्रव्य वेद किसे कहते हैं ? उ०-नामकर्म के उदय से प्रगट हुए वाह्य चिह्न विशेष को। प्र०-भाव वेद किसे कहते हैं ? उ०-मैथुन करने की अभिलाषा को। प्र०-किस किस की काम वासना किस किस प्रकार की होती है ? उ०-पुरुष की कामाग्नि घास के पूले के समान होती है, स्त्री की कामाग्नि वकरी की लेडी ( मंगणी) के समान और है नपुंसक की कामाग्नि नगर दाह की अग्नि के समान / प्र०-आयु कर्म के कितने भेद हैं ? उ०—चार। नरकायु रतिर्यंचायु ३मनुष्यायु और ४देवायु। प्र०-नाम कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं ? उ०-तेरानवे।४ गति (देव, मनुष्य, तिर्यच और नारक)५ ' जाति ( एकेन्द्रिय जाति, डीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति)५शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण) 3 अगोपांग (औदारिक, वैक्रिय To और आहारक) 5 बन्धन (औदारिक शरीर बन्धन, नाम कर्म वैक्रिय शरीर बन्धन, आहारक शरीर बन्धन, तैजस शरीर : बन्धन, कार्मण शरीर वन्धन)५ सघात नाम कर्म (औदारिक,
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________________ EENEEnाय Aझिय प्राधारक यस और कामव समात) सनर नाम कर्म (अनअपम नाराषअपम नाराच अर्थ मारा कीसा Bीर सेवा) सस्पान नाम कर्म (समरस ध्यप्रोम परिमरख सापि, हम बामन र सस्पान) 5 वर्षमाम कर्म (कास रा माल पीसा भीरत) 2 पंपमाम कर्म / (पुरम दुरमि) रस नाम कर्म (विह, का, कपास, मम्स मपुर) 8 प नाम कर्म (गुरु म, मानर, शीठ का चिप और सत) मानुषी नाम कर्म (देवगत्पानुपूर्षी / मनुष्यगत्यामुपूर्वी. तिचगस्पानुपूर्षी मारफगत्यामुपूर्वी) २विहायोगति नाम कर्म (राम और भयम विहायोगति)" 1 परापात सासोन्मास 1 मावाप परपोत गुरुस १तीर्थकर नाम कर्म निर्मातरम्पपात १.असायक (स मादर पर्याप्त प्रत्येक स्पिर, शुम समग सुस्प, मादेपर, यशकीर्ति) 1. स्थावर वयक (स्पापसम भपर्याप्त साधारण मस्पिर अयम धर्मप स्पर, ममारेप प्रपया कीर्सि) म ~गति नाम मरिसेपते -जिस गप से प्रारमा मनुप्य मारिगतियों में जाये। प्रा-मातिमाम धर्म पिसेपासे! 7.--शिसके पप से प्रारमा पम्पिदीन्द्रिप पीमित्रप परिमित्रप और परदिप कहा जाये। म -शरीर माम कर्म किसे पाते। --जिसके बप मे परीरमा प्र शरीर के किसमे मेर काoaEEEEEEwee ज -IALLL
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________________ RELExaxeKIYOXXXGARH PERMANCAREERIMENDMAMANANEXANEXHotxxnnn........ उ०-पॉच / 1 औदारिक 2 वैक्रिय 3 आहारक 4 तैजस और 5 कार्मण। प्र०-औदारिक शरीर किसे कहते है ? उ०-उदार-प्रधान अर्थात् जिस शरीर से मोक्ष पाया जा सके तथा जो मांस अस्थि आदि से बना हुआ हो। प्र०-वैक्रिय शरीर किसे कहते हैं ? उ०—जिससे एक से अनेक और विचित्र विचित्र रूप यन सके। प्र०-श्राहारक शरीर किसे कहते है? उ०प्राणि दया, तीर्थकरों की ऋद्धि का देखना, सूदम पदार्थ का जानना, संशय छेदन करना, इत्यादि कारणों के होने पर चौदह पूर्वधारी मुनिराज योगवल से जो शरीर बनाते है, उसे आहारक शरीर कहते हैं। . प्र०-तैजस शरीर किसे कहते हैं ? उ०-औदारिक वैक्रिय शरीर को तेज (कांति) देने वाला, आहार को पचाने वाला और तेजोलेश्या का साधक में शरीर तैजस शरीर कहलाता है। प्र०-कार्मण शरीर किसे कहते हैं ? उ०-झानावरण आदि कर्मों का खजाना और माहार को शरीर में ठिकाने ठिकाने पहुँचाने वाला। प्र०-अंगोपांग नाम कर्म किसे कहते हैं ? aa_ उ०-जिस कर्म के उदय से अंग (शिर, पैर, हाथ भादि) और उपाग (अंगुलि, नाक, कान आदि) यने / प्र०-यन्धन नाम कर्म किसे कहते हैं ? NEXAXEIRECENTRENT T
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________________ मानामा SITIFSTE __ -रिस कर्म के पप से प्रौदारिक मारि गरी रे परमाणु परस्पर पंधन को प्राप्त / म.-संपात नाम फिरते -सिस कर्म गप से धीवारिक मावि शरीके पुल परमाण म्पपस्पित पति से मिले चिन्द्र परत एकता को प्राप्त हो। प्रा-सामन माम पिसे का ? ! .-सिससारा शरीर पुल एफिया गाप। म.-चन अपम नापब सानन नाम फिसे कावे। २०-निस फर्म के पप से मोट पम्म से पंधीयो दहियों पर तीसरीही कामेएन हो मौर तीनको भेषने पाली पट्टी की कीस जिस सहनन में हो। म -अपम् माराप सहनम नाम में फिसे करते। 7. जिस कर्मोदय से तीनों मोराहाका मर्डर बम्पन हो और तीसरे पारका एन / " -नागर संहनन नाम किसे ते ! -गिस कर्म गप से रबमा में शादियों का मा बापनोएन भीरकीचमहो। मा--पर्यनापप साना नाम किसे करते उ.-जिस कर्म के बप सेनापी रपमा में एक तरफ मट पम्पन हो और इमरी पोरगीतो। मा-बीला संहनन माम किसे पाते। उ.--मिस कर्म के पप सेदारकीलों से पन्धेते। प्र-सपात सामन माम किसे ? समापन -TED - -- -- 1 - 1
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________________ XEXTROGRAMODAKOTaxarxxH - ~ - - maAROORXXXEDX- KLAUNJLA ( 56 ) उ०—जिस कर्म के उदय से हाड़ आपस में जुड़े हों। प्र०-संस्थान नाम किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बने / प्र०-सम चतुरस्त्र संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस के उदय से पलॉठी (पालखी) मारने पर शरीर की शकल चारों ओर से समान हो। प्र०-न्यग्रोध परिमडल संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं? उ.--जिस के उदय से शरीर की शकल वड़ वृक्ष जैसी हो अर्थात् नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण हों और नीचे के अपूर्ण छोटे छोटे हों। प्र०--सादि संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? ____उ०-जिस के उदय से नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण हों, ऊपर के छोटे छोटे हों। प्र०—कुज संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०--जिसके उदय से शरीर कुवड़ा हो। प्र०-वामन संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस के उदय से शरीर वामन (बौना) हो। प्र०-हुंडक संस्थान नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से शरीर के सव अवयव बेढंगे हों, उसको हुंडक संस्थान नाम कर्म कहते हैं। प्र०-वर्ण नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस नाम कर्म के उदय से शरीर में काला श्वेत आदि रग हो। प्र०-गन्ध नाम कर्म किसे कहते हैं ? AXEDKKARXERIAxxxAXIDANXXCXEEXXXREAXXoxii -
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________________ - ह SHTii पत्रिकाकी मानपRIER- FREE ( 10 ) ___ -जिस माम कर्म के परप से शरीर में अभी पा | पुरी गम्यते। मा-रस नाम कर्म कसे करते * शिस नाम फर्म केदय से शरीर में रसो। प्र.--स्पर्य नाम कर्म किसे पाते। 5. शिस कर्मापसे शरीर में कोमलमचारिस्पयो। म. भानुपूर्वी नाम कर्म किसे पाये। --निसर्म के उदय से सीप विमा गति में अपने रत्पत्ति स्थान पर पचे। प्र-विमरगतिमाम कर्म किसे काये। उ• पातापूर्वक रेटी पति को। मा-पितापोगति माम कर्म किसे कहते T-विसकर्म के समय से भीष की चायापी सी पास के समान गुम हो पा र गधे की पावरे समान प्रयम से। म०-परापात नाम कर्म पिसेपाते। T-मिस पर्म के जप से जीव बोबडेमायामों की: रएि मैं मी झोप मासूम हो। प्रा-भासोमास नाम कम पिसे करते। -जिस मप से पारीपाको शरीरममा सितारा बीचमा(वास) और गरीर के अंदर की पाको मासिका मारामारोहमा(ग्भपासो-दोनोकिया। म-माताप नाम कम किसे पाते। -जिस कम के समय सशरीर मावाप परो। से मप मास। HIFai
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________________ SEXREAKERLIERTIES m-sur-site-ite Prestate restrict csxxx xxxxxxxxxxxxxxxxx2XX प्र०-उधोत नाम कर्म किसे कहते है ? उ०-जिस कर्म के उदय से उद्योत रूप शरीर हो। जैसे चन्द्र मंडल नक्षत्रादि / प्र०-गुरुलघु नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर न शीशे के गोले के समान भारी हो और न अर्फतूल के समान हलका हो। प्र०-तीर्थकर नाम कर्म फिसे कहते हैं ? उ०-जिस नाम कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति हो।। प्र०-निर्माण नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस फर्म के उदय से अंग और उपांग शरीर में अपमे अपने स्थान में व्यवस्थित रहें। प्र०-उपघात नाम कर्म किसे कहते हैं ? __उ०—जिस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों (पड़ सीम छठी अंगुली आदि) से क्लेश को पावे / प्र०—स नाम कर्म किसे कहते है ? ___ उ०-जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रियादि प्रस काय की माप्ति हो। प्र०-चादर नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०—जिस कर्म के उदय से जीव को यादर स्थूल काय प्राप्ति हो। प्र०-पर्याप्त नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से जीव अपनी अपनी पर्याप्तियों म से युक्त हो। PICARRIERRIODXXCOMBEEXXXXXXXXXXXXX
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________________ RIESVEENAERODE . BESWEEPERIERE उ०-निस कर्म गप से एक शरीर का एक सीप स्वामी / --स्थिर नाम कर्म किसे करते ---शिस कर्म एव से पाती बगैगरीर अवयव स्थिर (प्रपेन अपने ठिकाने रोते। प्र-राम नाम कर्म किसे पते! -मित कर्म के उपप से शरीर के भवपन सुपर। म. सुमग माम कर्म किसे पाते। •-मिस फर्म केबप से घरेसीप अपने ऊपर बिना कारण मीविरे। म-सस्पर नाम कम विकाते? To--गिस कर्म पिप से स्वर अप्पा। मा--भाषेप नाम कर्म विस करते। Tw-मिस फर्म पप से बीम का वचन सर्व माम्पको। ___ -पयामीतिमाम कर्म विपते। --सिसकर्म मपस संसार में पराभौरीति फो। (पररिया में मरांसा फैले उसे कीर्षि पाते मीर सब रियामा मै मसा फैले रसे परामत।) प्र. स्थापर नाम पम किसे काते। - --भिसकेगम से मीप स्पिर रो घरपी गप्मीमारि। एसेपचने का पाप कर सकेस फर्म पर से पप्पी प्र तेस पापु भीर पनस्पति मै सम्म होता है। __--सम्म नाम कर्म पिसे करते / -जिस कर्मापसे जीव को एम DEEPF -:मयम य
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________________ saxERIXEXXXXXXXCAXEDXSAXEXEREDMRIXEDARXes ( 63 ) / न किसी को रोके और न किसी से रुके ) की प्राप्ति हो। प्र०-अपर्याप्ति नाम कर्म किसे कहते हैं? उ०—जिस कर्म के उदय से जीव पर्याप्ति पूर्ण न करे / / A इसके दो भेद हैं-१ लब्धपर्याप्ति और 2 करणा पर्याप्ति / जिम फर्म के उदय से जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण किये विना ही मरे उसे 'लब्ध पर्याप्ति' कहते हैं और जिसके उदय से श्राहार, शरीर और इन्द्रिय-इन तीन पर्याप्तियों को अभी तक पूर्ण नहीं किया किन्तु प्रागे करने वाला हो, उसे 'करणा पर्याप्ति' कहते हैं। प्र०-साधारण नाम कर्म किसे कहते हैं? उ०—जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी हों। प्र०-अस्थिर नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से कान, भी और जीभ श्रादि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल हों। प्र०--अशुभ नाम कर्म किसे कहते हैं ? उ०-जिस कर्म के उदय से शरीर के पैर आदि अवयव अशुभ हों। प्र०-दुर्भग नाम कर्म किसे कहते हैं ? ___ उ०-जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव शत्रुता या धैरभाव करें। प्र०--दुःस्वर नाम कर्म किसे कहते हैं ? न उ०—जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कठोर अप्रिय हो।। प्र०-अनादेय नाम कर्म किसे कहते हैं? "Mandir
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________________ मरसEEVERE: म र -मिस फर्म के रखप से ग्रीव काममा मी परन प्राममहो। म.-अपपयाकीसिनाम कर्म पिसे पाते। -जिसपर्ममप से निपों में भपपराया अपकीर्ति LADK GEEममासा A -गोत्र कर्म के कितने मे / -दो। भौर 2 नीच। गिस कर्म से प्रणेकस मेसम्मो से रण गोष करवे और मिस कम पिप। सेनीस में सम्मो रसेनीष मोषपाते। म-प्रतपय कर्म के कितने मेव। -पांच।१पानाम्सराय सामान्य मोगान्तराप | रपमोमाम्बराय और दीपोतराप / परकर्म पानादि -५कायों में विन करता है अर्थात् पानान्तवान बने / में विनोबाना सामान्तराप-पस्तु की प्राप्ति में विन उपस्पित होचाना मोगान्तराप-सो बस्तु एक बार मोगी याप पसे मोगकरवे मोउसके मोगये में मिल पोगाना उपमोगान्तराप-जो पस्तुपारम्बार मोगने में बाये गसमें पिका पप गाना / इसमभार कमाँ की मूल प्रहतियों भीर ! उत्तर प्रतिपों का संप से बर्दन किपा गया है। जिस प्रकार पर प्रासनाने से शरीर के सप्त पारसी पास रस से उत्पन होते पारि पाdk ठीकसी प्रकार एक कर्म करने से फिर रस कर्म के परमाणु कमी की मूस प्रतिपोबा सतर महतियों में से बाते भत् परि होगाते। किन्तु स्थिति पम्प में इस पिपप पर्यन ED
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________________ FREEKRANTEDxxxxxxxxnera ( 65 ) किया गया है कि यावन्मात्र कर्मों की मूल चा उत्तर प्रकतियाँ हैं, वे सर्व स्थिति यत है। अत स्थिति के पश्चात् फिर वे फल देने में असमर्थ हो जाती है / जिस प्रकार काठ 'वा इन्धन जल कर जब भस्म रूप हो जाता है तब फिर वह द्वितीय वार इन्धन रूप में नहीं श्रा सकता। ठीक उसी प्रकार जो कर्म एक वार फल दे चुका फिर वह द्वितीय वार फल नहीं दे सकता। क्योंकि उस कर्म ने श्रात्म प्रदेशों पर अपना अनु / भव करा दिया फिर वह फल देने के पश्चात् निप्फल हो / जाता है। सूत्रकर्ता ने कर्मों का फलादेश अनेकान्तरूप से प्रतिपादन किया है। जैसे कि अणत्थियाणं मंते, एवमाइक्खंति जावपरूति सव्वे पाणा सच्चे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एवंभूयं वेयणं / वेदंति, से कहमेयं भंते, एवं गोयमा जगणं ते अणत्थिया एवमाइक्खंति जाव वेदंति जे ते एवमाहंसुमिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाच परवमि / अत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवभूयं वेयणं वेदंति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता प्रणेवभूयं वेयणं वेयंति।। से केण हेणं अत्थेगइया तं चैव उच्चारियन्वं गोयमा ! * जेण पाणा भूया जीवा सत्ता जहाँ कडा कम्मा तहा वेयणं / - वेदंति तेणं-पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूय वेयणं चेदति / / जेणं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा, कम्मा नो तहा' KCERAMERICARERARAMERIKERKEEX xxxxxxxxxcwxwxwXERER
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________________ CREENSHerREDEEP - - - - पेपर्ण वेदवि सं पाया भया जीवा सपा प्रमेव पेइति / से तेस संतोष // शरण 5 सू०२) मावा-मगपान मौतम स्वामी भीममम मगवान् मा पीर स्वामी से पूरते कि मगवम् ! परमत पाले इस प्रचारपाच पापत् प्रापपा पर फिसर्व प्रापी, सर्व / भूव सर्पसल एकाव कप से जिस प्रकार करते ही रसी मकार न कोही फहरप वेदना मोगते (देवते) Y सोपे कपन कैसे समझ पचर में भीमगवार का किमीतम ! यो मान्य यधिक गह प्रकार से पाते। पिन पकात कप से सस्प नही कर्मों का फस, भनेकान्त कप से अनुमप परमे मैं भाता है इसलिये मैं इस प्रकार कासा फिगोई मापीभूत नीष और सत्व पर्षभूत : सपेरमा मोगत कोई पाती मून ग्रीष'भौर मत ममेक एसप मेरमा मोगते हैं। इस प्रकार करतरको सुनकर गीतम स्वामी ने फिर मम पिपा फिर मगर ! पापण विस प्रकार मे! ब भी ममवार ने प्रतिपापम पिपा फिरे गौतम 'गो प्रापी मूतजीव और सस्प मिस प्रकार कर्म करते उसी प्रकार उनके फलों का मनुमबकरते।तो पास रूप से पपमृत चना मोगवे श्रीरयो मिस प्रकार से परोसी प्रचारमन कमी के फस को भमुमय नाही करतेमनमत परवा मोगतेपोटिकमी का बम्पन जीमों के मानों पर ही निर्मर है।" E /
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________________ TERATAXCXRXXESAACARRIERRAOKARMER ( 67 ) - इस कथन से सिद्ध हुआ कि कर्मों का वन्धन और उनका फल रूप अनुभव यह सव जीवों के भावों पर ही निर्भर न है। अतः सदैव शुभ योग ही धारण करना चाहिए, जिसके कारण से श्रात्मा कर्मों के बन्धन से या उनके अशुभ फल से प्रवचा रहे। यदि इस स्थान पर यह प्रश्न किया जाय कि जब कर्म प्रकृतियाँ इस प्रकार से वर्णन की गई है तो फिर इन से जीव विमुक्त किस प्रकार हो सकता है? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि संवरतत्त्व और निर्जरातत्त्व-ये दोनों ही तत्त्व फर्म प्रकृतियों से सर्वथा विमुक्त कराने में अपनी समर्थता रखते / / है अर्थात् इन्हीं के द्वारा जीव निर्वाणपद प्राप्त कर सकता है। कारण कि जब नूतन कर्म करने का निरोध किया गया अर्थात् सवर किया गया तय स्वाध्याय और ध्यान (योग समाधि) द्वारा प्राचीन कर्म क्षय किये जा सकते हैं, और तब श्रात्मा सर्व प्रकार की कर्म प्रकृतियों से विमुक्त हो सकता है। यदि ऐसा कहा जाय कि जव स्वाध्याय और ध्यान द्वारा / कर्म क्षय किये जा सकते है तब वह जो स्वाध्याय और ध्यान * रूप क्रिया है उसके द्वारा फिर नूनन कर्म था सकते हैं। इस क्रम से फिर किसी भी श्रात्मा को मोक्ष पद की प्राप्ति नहीं हि हो सकेगी। इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि श्रात्मा के वीर्य और उपयोग रूप दो लक्षण प्रतिपादन किये गए हैं। A सो वीर्य तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है / जैसे कि 1 पंडितवीर्य 2 वालवीर्य और 3 वालपंडितवीर्य / पडितवीर्य द्वारा ही कर्म क्षय किये जा सकते है, शेप अन्य द्वारा नहीं। SEXXXNXXner_ RAMRATRIKA tre BYExcy CAXGXxxxxxXEXAXXnxxmire
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________________ --- ( 1 ) अपप्प भाार से रोग की पूरिहती है और प्रौपपके सेवन से रोग की रानि / राहदोनों प्रकार का पुरणार्प मिस प्रकार रोग की दिौर हामि करता कमी मकार परित। वीर्य कम चप करने में अपनी समर्थवा रखता मोर,पास "पीपं कर्म की आदि में एक प्रकार से करवीभूत पय माता है। मता परित वीर्य मारा कर्म पप परक निर्वाय पर प्राप्त करना PERIEBानाPEDIEIDEIRMER -Eमनमा
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________________ XIETIERRIERRENERAXIEEEEEXX सातवाँ पाठ (अहिंसावाद) प्रत्येक प्राणी की रक्षा और वृद्धि में अहिंसा एक मुख्य कारण है / यदि प्रेम संपादन करना चाहते हो ? यदि निर्वैरता के साथ जीवन व्यतीत करना चाहते हो ? यदि सुखमय 7 जीवन व्यतीत करना चाहते हो ? यदि शान्तमय जीवन व्य। तीत करना चाहते हो ? यदि जीवन विकास चाहते हो? यदि धर्म और देशोन्नति चाहते हो? यदि ब्रह्म में लीन होना चाहते हो अर्थात् निर्वाण पद चाहते हो ? तब अहिंसा भगवती के + आश्रित होजानो। it अहिंसामय जगत् ही जगदुद्धार कर सकता है नतु / a हिंसामय सुरक्षित गोवर्ग ही जगत् का उपकार कर सकता है इसके विपरीत सिंह श्रादि हिंसक पशु जगत्ररक्षण में असमर्थ होते हैं / इसलिये ससार से पार होने के लिये अहिंसा देवी की शरण ग्रहण करनी चाहिये / जिस प्रकार पृथिवी प्राणिमात्र के लिये आधारभूत है। ठीक उसी प्रकार अहिंसा भगवती प्राणिमात्र के लिये, श्राश्रयभूत है। जिस प्रकार श्रात्मा में लान तदात्म सम्बन्ध से.विराजमान है ठीक उसी तरह अहिंसा भगवती मोक्षेच्छु श्रात्मा के लिय तदात्म सम्बन्ध से सम्बन्धित होती है। इसीलिए शानी श्रात्माओं ने भाषण किया है कि-- ECEIXXXXXXXXXXXXXX XEXISEXIEAXISEXXX
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________________ EacetaSERIES 15LEC Forx - - एष खु नासीयो सारं न हिंसा पिसे / मस्सिा समय पर एवापत विवाशिया // 1 // भावार्थ-मी भगवान् प्रतिपादन पर किोभायो ! हामी पान प्राप्त करने का पही सारो किसी भी जीव की हिंसा नहीं करें। योंकि तानों का सारभूव पक मरिसा भगवतीही भा - 1 इस कथन मया मनी मांति सिरोमाता बाम का भार एक मासिाही पॉफि पपिपिचों मम्ममा ] करके फिर रिसा में लग पाये तो पापिया महीपत। / भविषारीमपा महामताहीमावा रिसा में। / सरीईन रिसा मे / मता मारिसासापको मनी मोति जान कर फिर रिसा मगवनी के मामपोर किशकश्याप पा परोपकार प्रयास करना जाए। ___मब इस स्पान पर प्रश्न पाउपस्थित होतालिबास्तव): में मरिसा भगवतीबा स्वाप पाt! समसमा ll पान में कहा गाता कि / EPTE: प्रमचपोगात् पासम्पपरोपर्व हिंसा (वत्ता पूर्व प्र. ) इम पत्र में इस विषय का विधान किपा गया कि ममच योग मे जो मानों का प्रतिपात करणारे उसी पानामा अपात् गरेप के पशीभूत होकर जो प्रम्प माणियों प्रागा का पारसकरला पास्तव में दिसा उसी का नाम हैपपपि रिसा भनक फारशीसहोती। पापित - -- --
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________________ NareerHAYARH SEXIREXTENTRIEAAREERTRAIEEEX M arit ( 71 ) कारण राग द्वेप के ही अन्तर्गत हो जाते हैं। जैसे फि क्रोध, में मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, काम, आशा, / स्वरश, परवश, अर्थ, अनर्थ, मूर्खता इत्यादि अनेक कारणों / से जीवतव्य, धर्म और अर्थ के लिये हिंसा हो जाती है। किन्तु वे सब कारण राग और द्वेप के ही अन्तर्गत हो जाते है / इसलिये सूत्रकार का यह कथन ठीक ही है कि प्रमत्त योग से जो प्राणों का प्रतिपात होना है, वास्तव में उसी का नाम हिंसा है। क्योंकि हिंसा के कारण वास्तव में जीव के भाव ही होते है। हिंसा के मुख्यतया दो भेद वर्णन किये गए है जैसे कि द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा / सकल्प विना जो प्राणों का है प्रतिपात हो जाना है, उसी को द्रव्य हिंसा कहते हैं। जैसे रक्षा करते करते किसी जीव के प्राणों का संहार हो जाता है उसी का नाम द्रव्य हिंसा है। जो स्वसंकल्प पूर्वक हिंसा होती है, उसी को भाव हिंसा कहते है। . स्वसंकल्प पूर्वक हिंसा अर्थ और अनर्थ दो तरह से होती है / साधु वर्ग के लिए तो दोनों प्रकार की हिंसा सर्वथात्याज्य हैं। क्योंकि साधुत्व में शत्रु और मित्र दोनों समभाव से देखे जाते हैं / इसलिये अहिंसा नामक महावत के पालन करने वाले ही महापुरुष है / परंच गृहस्थ वर्ग के लिए अनर्थ हिंसा का परित्याग होता है। क्योंकि संसार में निवास करने से वे अर्थ हिंसा का सर्वथा परित्याग कर ही नहीं सकते। अतः उनके / लिये अर्थ और न्यायशीलता अवश्य धारण करनी चाहिये / है इसलिए वास्तव में न्यायशीलता का ही नाम अहिंसा है। FREXSAEXEXERCEXXXX 1.hu
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________________ BERD ERERE ( 72 ) क्योकि-से किसी बोरबोरीपी परिससफोरसकर्मा / नुसार पिपित न किया गया तो फिरपा सकिपा में और प्राधिरेगा तथा प्रम्पमापी मी फिर उसी का अनुकरण करले बाहो मापे / कारण किये विचार पर इसको रसकर्म की कोई शिक्षा नही मिलतीतो फिर सर्म परन का हमको पा रासलिये इस म्पमिवार को पूर करने के लिये भीर उस मास्मा की सुदिपरने के लिये पाप : शीलता की प्रत्पन्त भावपाता है। 2 परिवर (शिक्षा) का भाम मी हिंसा होता तो मुनिषग रेसिपे मापभितपिपान करमे पास समों की रचना क्यों होती! इसलिप इससे स्मता सियो माताहिबास्तब में पाय शीसवा सो पापी उसी का नाम मरिसा। इस नियम को मामाम्प पछि सार समार्फ तवपूर्वक पालन कर सकते। सापही अनयामकारों में पहस्पिोंक मिये परमा प्रतिपादन कर दिया बिगान कर पीर सेक सा करके निरपराधी सीपों की हिंसा का परिस्पाम करें। रिम्नु गो सापरापी ते समको म्यापपूर्पक गिपित करना / उनका धर्म स्पोकिरे परम्प , परस मीरा आपसापुति में तो सापरापी और निरपरापी सममान सतीच मात पोलिमा स्वामी भात मापिनु परस्पों परणाम का निर्धार रमा मालप मा मुम्प निपम पही होता मिरपाभी जीयो की दिमा पापिनमोरमसाप - पिपी को भम्पापपूर्पशिक्षित करें। 4. 4. edule-SERIE. F-जनमा -27 समाजERESTHA
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________________ HALIPXXYoKINARRORATORRH MEIGeoxXEXEEKLEXEXICAXEKXICOMMELA.....! ( 73 ) , हिंसा के होने के मुख्य कारण आत्मा के संकल्प ही है। यद्यपि मन, वचन और काय के द्वारा भी हिंसा हो जाती है तथापि मानसिक हिंसा वलवती होती है / तथा च पाठः जे केइ खुड्डगा पाणा अदुवा संति महालया / सरिसं तेहिं ति वेरति अंसरिसंति यणो वदे // 6 // एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो न विजई। / एएहिं दोहिं ठाणेहिं श्रणा यारतु जाणए // 7 // (युग्मम्) (सूर्य गडांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध अ०५ गाथा 6-7) दीपिकाटीका-ये केचित् क्षुद्राः प्राणिन. एकेन्द्रियान्द्रिया. दयोऽल्पकाया वा पञ्चन्द्रियाः अथवा महालया महाकाया. सन्ति, तेषां तुद्राणा कुंथ्वादीनां महतां हस्त्यादीनां च हनने सदृशं वैरं कर्मवन्धस्तुल्य इत्येकान्तेन नो वदेत् असदृश वा तधाते वैरं कर्मवन्ध इन्द्रियज्ञानकामानां विचित्रत्वादित्यपि नो वदेत् / नहि वध्यवशात् कर्मवन्ध किन्तु अध्यवसायघशात् / तीवाध्यवसायादल्पमपि सत्वं नतो महान् कर्मवन्धः अकामस्तु महाकायप्राणिहननेऽपि स्वल्पवन्ध इत्यर्थः // 6 // 'एएहिं' इनि-पताभ्या तुल्यातुल्यविरूपाभ्यां स्थानाभ्यां a व्यवहारो न विद्यते अध्यवसायस्यैव वधावन्धहेतुत्वात् / एताभ्या द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रवृत्तस्यानाचार जानीयात् / तथाहि नहि जीववधे हिंसा स्यात् तस्य नित्यत्वात् / यदुनम् - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छवासनिश्वासमथाऽन्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेषां वियोजीकरण / तु हिंसा // इति / Exaxxxxxxxxsex
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________________ FACE E ER 1.-""3EERIN RSAEमालासराव ( 4 ) विशमापापेत पर कमबरपोपया-पस्म सम्प लियोन कर्यता पचपि रोगी मिपते तपापिन चस्प कर्मचम्भा पुरा म्पमामायामामात् / मन्यस्य तु सारया सुमपि मतो माबमोपात् कर्मचम्पा / पदागमा- ! - उवासिय मियाए इरिया समियस्स संकमहार। बामधिल कलिंगी मरिश सभोममा सा // 1 // नप वस्स समिमिचो पो सहमो विदेसिमो समए / प्रसवमा उपठगेय सम्म माससोचमा // 2 // इत्यादि / तपासमास्पास्पानक धमसियमेव मापापइस सूप में इस विषय का पईन किया गपा कि यदि किसी व्यक्ति से पुम (सम्म) जीपनी मृत्यु हो गई बा किसास स्पस भीष की मृत्यु हो गई तो ऐसे एकाम्त मनकाना चाहिए कि तुम जीप मारने का पोड़ा पाप: और स्पूत गीय मारमें का पात पाप है या स्पून कापोड़ा पाप और सूक्ष्म का पाप है। इस प्रकार बोलने से म्पहार ठीक नही सकता। कारण कि पापकर्म का बम्प सम्म पा स्था गीष के बष पर मिर्मर मातीपातो मौष के तीन पा मन भाषा परी निर्मर है। मतपप मिथर पानिकहा कि रिसा जीव मानो पर रा निर्भर है।पंप पा सासर रोगी की रखा करते करत पदि रोगी की मरयु हो सार साये मासिवय के करन मासेमी मागे जा सकते नारी राज्यशासम में शिक्षा कपात्री रमते ।सो मारिसाहामो पोगपती और परिमा राम मनोयोग से भी हो जाती है। SALEER E YALA EPALI CRE _ -_12 GREE.
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________________ SAXITERMIREMIERMIRECEMERICERAY Reaxeekl-HLIL / अब इस स्थान पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अर्थहिंसा और सापराधी किसे कहते है ? इस प्रश्न के समा. धान में कहा जाता है कि किसी प्रयोजन को मुख्य रसफर या किसी प्रयोजन के लिये जो प्रारम्भादि क्रियाएं की जाती है, उन्हीं को अर्थहिंसा कहते है / जैस-सानादि के लिये म जलादि का प्रयोग करना, शालादि बनवाने के लिये उस की सामग्री को एकत्रित करना, अर्थात् सप्रयोजन हिंसा का नाम ही अर्थहिंसा है। किन्तु जो व्यक्ति अपना अपराधी हो है उसी को सापराधी कहते हैं। जैसे किसी व्यक्ति ने किसी र की कोई वस्तु चुराली या किसी को मारा तथा किसी ने किसी स्त्री से बलात्कार किया-इत्यादि अपराधों के सिद्ध हो जाने पर फिर अपराधी को शिक्षित करना उसी को सापराधी शिक्षा कहत हैं। श्रतः गृहस्थी लोगों के लिये निरपराधी और अनर्थ हिंसा a का त्याग प्रतिपादन किया गया है। / जो आत्मा निरपराधी है, अनाथ है, किसी का कुछ भी न नहीं विगाहते, उन जीवों की हिंसा में कटिवद्ध हो जाना यह केवल अन्यायता और अनर्थ हिंसा है / जैसे- श्राखेटक (शिकार) कर्म करना, तथा मास भक्षण करना, वा हास्यादि / ह के वशीभूत होकर जीवहिंसा करना / जिस प्रकार बहुत से बालक अज्ञानता के वश होकर वर्षा ऋतु में मेंडकों को पत्थरों। से मारते हे या पीत तथा लाल वर्णवाले जीवों को मारते है। छु यह सब अनर्थ हिंसा है। यद्यपि द्रव्य हिंसा द्वारा भी बहुत से कर्मों का धन्ध किया / हो शिक्षा का लोगों के
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________________ -EBEEEEL प्रा . स ( ज) मावास्यापि मारिसा शाप मति निरिकी का बाप किया जा सकता है। स्पोकि मास्सिा के करने में ममोपोप की मुम्पता मानी जाती।मता मन में पीरों के लिये शामि कर पाते रपापों का प्रत्येपवरमा मारिता है। किसी की परिको रेषकर मन में उसन उत्पम करना और फिर रस को फरमपम होगाप, उसकी पूमि में विन होगाप, इस्पादि मनोपोग द्वारा उपायों का मन्षेपण पना-पे सब माष हिंसा के कारण है / मन में रुपमा द्वारा मस्पेष मासीके नाय करनेके भाव पत्पच करने भीर मन से प्रत्येक मासी से पैर रखना पे सप माष रिसाही कारण। जिस प्रकार मधुम मनोपोग पारण परन से भाषी रिसा होती है ठीक उसी प्रकार मगम पचम योग धारा मी माहिसा होगाती से किसान कर मेरा सपन फर रेमा / तपा युगसी परमा (मामा) इसमादी नहीं किन्तु पस्येक मारी की मिला करते रामा प सब माप रिसा केही कारस। पवन पोगदाप भएम पचनों का प्रयोग करना मिस से माप मारियों की हिंसा रोजाप पा सको मानसिक वना उत्पच हो जाए-4 सरप्राण मावहिंसा के दौरासी / प्रकार कापपोग विपप में भी जानना चाहिए / ठात्पर्य प्रार किजिससा म झाप मान मापा और सोम का सदप म उसी का नाम मापरिसापितु जिस सा में एक कारणों का गप नही बीम्स रिसा। बासाव में पास्सापास में म्यायपूर्ण पर्वावरताए प्राली भी निर्वाणपरमपिकारी समतेविस मसार RAKEXICHAR .. -- FIFTEENIFEFTODIE M - - .-- 3 B
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________________ EXAXMARRIAxxxxxxxxxxx भरत चक्रवर्ती ने पद खण्ड का न्यायपूर्वक राज्य करते हुए फिर अन्त में शुभ भावनाओं द्वारा निर्वाणपद की प्राप्ति की ठीक इसी प्रकार शान्तिनाथ जी, कुन्थुनाथ जी, अमरनाथ जीय तीनों तीर्थकर गृहस्थावस्था में चक्रवर्ती की पदवी प्राप्त कर और पद् खण्ड का न्यायपूर्वक राज्यशासन करके फिर / तीर्थकर पद प्राप्त करके निर्वाणपद प्राप्त कर गए / यदि राज्य में शासन करते हुए उनकी अनर्थ रूप भावहिंसा होती तो वे / कदापि निर्वाणपद प्राप्त न कर सकते। क्योंकि इस वर्णन से प्रतिपक्ष में एक विपाक सूत्र में मृगापुत्र का वर्णन किया गया है कि उसने अत्यन्त दुखित होकर दीर्घकाल तक ससारचक्र में परिभ्रमण किया। उस के पूर्व जन्म के विषय का वर्णन ( करते हुए लिखा है कि वह पूर्व जन्म में एक एकाई राष्ट्र कूट नामक 500 सौ ग्रामों का शासन करने वाला अधिपति था, उसने 500 सौ ग्रामों के साथ अन्याय से वर्ताव किया था जिस से उसने दीर्घ संसार के कर्मों की उपार्जना की। इस कथन से स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि वास्तव में न्याय का ही नाम अहिंसा है। पछुत सी अनभिज्ञ श्रात्माएँ इस प्रकार से प्रलाप करती / है कि जैनमत की. अहिंसा के कारण से ही भारतवर्ष का अधोपतन हुआ है। यह सय उन की अनमिशता ही है। क्योंकि जव जैनमत का राज्यशासन भारतवर्ष पर चलता था उस समय किसी भी विदेशी राजा का भारत पर # आक्रमण हुआ ही नहीं यदि कोई हुआ है तो वह पराजित हो गया। इस विषय में पाठकों को महाराजा चन्द्रगुप्त का EXROXEYemixCARRIEmeri
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________________ CEREBERRESUGEEE. रविदास पाना चाहिए। हाँ पापाव तो निर्विवाद सिरो। कि मारतवर्ष के प्रमोपवन के सम्पकारण सा परस्पर ! छठ परस्पर मेप पो भस्पा प्रत्येक म्पत्ति के साप पका भरी का राम परस्सर ममस्प भाप इत्पादिए / अहिंसा / पहपात भनी प्रकार से मानीको पर महिमा भगवती की पूजा होती पहों पर सीमेम रत्पप होता है और जहाँ मम होता पहा ही परस्पर सहानुभूति होती है। दिम के कारपसे फिर गरमी मी रिपर होगाती / मतपय सिय मा किमोपतम का कारण दिसाम भरिसा / इसलिए भरिसा का स्वरूप प्रत्येक पछि कोसूक्ष्म रिसे भाषण करना चाहिए / भी भमस मगपाम् महावीर "स्सामी का मुम्पोपदेय पाही कि समे पाणापियाउया मासापा दुस्वपरिक्सामाप्पिय : पहा पियनीरिमो मीविठकामा समंसि बीपि पियं / / (मावाग सूत्र मोषी पामा T.-21) मर्प- मय जाब भायुम्प और सुपको बाहते पुन " और मृत्यु पर का प्रमिप है।र एक मिपसीपी और सीने की पत्ति रमत जीना मरो पारा लगता। इम सिगास के माभित होकर कमी मी अम्पाप से म : पत्तमा पारिए पाप कि जब किमी निरपरापी मारमा प्राणीम हिय तो महा इसम परकर चौर भम्पाप स्पा हो सकता! प्रत म्पापपूर्व पत्ताय करते नए भारत 1 सामगपती की भाशा पासम परनी चाहिए रिममे पर्म और देशका भम्युरप हो / BEBEEXEBHEE
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________________ rano-xx-- wwXXXnxxaoxTRAMAIRMAN ( 76 ) यह बात भी भली प्रकार प्रसिद्ध है कि जब अहिंसावादियों का चल वा राज्य होता है तव हिंसक जन अपने आप शान्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं किन्तु वहुत से अधर्मी | जन भी प्राय. धर्म से जीवन व्यतीत करने वाले बन जाते हैं। यह सब अहिंसा भगवती का ही माहात्म्य है क्योंकि जव अन्यायशील व्यक्तियां न्याय शील शासन को देखती है, तब उनके मन में अन्याय शीलता के भाव इस प्रकार भागते हैं जिस प्रकार रवि किरणों से अन्धकार भाग जाता है। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि अहिंसामय शासन ही जनता के लिए सुखप्रद हो सकता है। __ अब इस स्थान पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि किसी व्यक्ति ने त्रस प्राणी के वध करने का परित्याग कर दिया तो फिर किसी समय पृथिवी श्रादि के आरभ // करते समय उससे यदि किसी त्रस प्राणी की हिंसा होजाए है तो क्या फिर उसका नियम ठीक रह सकता है ? इस शका के समाधान में भगवती सूत्र में इस प्रकार से लिखा है कि समणोवासगस्सणं भंते / पुयामेव तसपाणसमारंभे / पञ्चक्खाए भवति पुढविसमारंभे अपच्चक्खाए भवइ से य पुढवि खणमाणेऽएणयरं तसं पाण विहिंसेजा से णं भंते / तं वयं अतिचरति / णो तिणहे समठे / नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट्टति / समणोवासयस्सणं भते / पुन्यामेव वणस्सइसमारंभे पच्चक्खाए से य पुढविं खण। __ माणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेज्जा से णं भंते / HERE xxxIEXPERXXREKARKESAKARIEXI EXEXKAXMLonxxxxxxwwwxxxxxx Xxx
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________________ pexempA9AEBP SAIEEEEEER पप प्रविचरति / यो विगो समठे नो बह तस्स मा वायाए माउति॥ (भगवती सन ग्रत्तक सोयीस.२१). रीका--भमपोपामकाधिपाराष"समपोषास" स्यादि भकरणम् / तत्र वसपासमारमे चि प्रसपमा नो बस से वस्स प्रतिवापार मार तिनब तस्प समाचस्प प्रतिपाताप माय मापसते मयत रविन साम्पवयोऽसी सरसम्पादेष नितोऽसी नप तस्प संपन्न राति ना मापतिपरवि मतम् इति / भावार्य-स सूत्र में इस विषय का प्रतिपादन किया पया कि भी गीवम स्वामी जी भी समय भगवान महावीर स्वामी से पचते फि-रे भगपम् ! किसी भमयोपासक में प्रम मावीपम का परित्याग कर दिया कि सरे पछी काय के समारंम का त्याग नही तो फिर उससे किसी ममप पिवी को मनन दुर रसीपारा यदि किसी प्रस जीप की दिमा होगाये नो या फिर रम का नियम होररर मानाम पर के उत्तर में श्रीमगवान् परत करे गीतम' रस का निपम ठीक द मनापोलिसा सपस्स बम गीय माग्ने रामही इसीलिये उसको प्रत में मनियार नदी हगता प्रस- भगपर ' भमणापामा बमति कार - भारमका परािपाग कियाइमा,चिम्नु पूपिनी पायर ममारमका स्पाग माफियामाता एपिसीकापरता , मानिमी सम्पराकम को पानपरतो ! ". -- - -- - -
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________________ CREATExamsaemixEXEErocessxnxxstsARIESREE REATRIXXECENTERACAXXESAR ( 1 ) क्या उसके गृहीत नियम में अतिचार (दोष) लगता है ? उत्तर- हे गोतम ! नहीं लगता है। क्योंकि उसका संकल्प वृक्ष के मूल छेदन करने का नहीं है। इस लिए उक्त दोनों प्रश्नों के उत्तर से भली भांति सिद्ध हा गया है कि हिंसा का भाव जीव के भावों पर ही निर्भर है। अतएव भाव हिंसा जीवों के भावों पर ही निर्मर है किन्तु द्रव्य हिंसा व्यावहारिक हिंसा कहलाती है। गृहस्थ लोगों का मुख्य नियम यह है कि न्याय पक वत्तेना चाहिए / किन्तु भावना सदा यही होनी चाहिए नक सवे प्राणिमात्र की हिंसा से निवृत्त होकर श्रात्म समाधि म लगानी चाहिए। जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो सके और मात्मा अहिंसा के प्रभाव से संसारी वर्ग का उपास्य देव वन सक। क्योंकि इसअहिंसा भगवती के माहात्म्य से ही श्रात्मा # पूर्णतया प्रेम संपादन कर सकता है। फिर उस धार्मिक प्रेम धारा प्राणिमात्र से निर्वैरता धारण करता हुभा निर्वाण पद माप्त कर सकता है जिससे फिर वह संसार वक के जन्म मरण रूप श्रावर्तन से छूट कर सादि अपर्यवसित पद वाला सिद्ध भगवान् बन जाता है अर्थात् अपुनरावृत्ति वाला होकर परमेश्वरत्व भाव को धारण कर अनन्त और अक्षय श्रानंद में निमग्न होकर अनन्त काल मोक्ष में ठहरता है अर्थात् शास्वत पद को धारण कर लेता है।
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________________ आठवाँ पाठ. .. ExaBER (सस्पषाद) भात्मा को स्वप्प और विकसित करने पासा समाधि का बनेपाम्म सापाप भीरप्पानसम्म कारस भासिता | पार की सिधि में प्रशिवीय कारण प्रस्पेक प्रावीएप में पिनास सत्पथ पर पामा पात और रोद पान को कोर कर धर्म सम्मान में मास्मा को मतिषित करने पाम पराधी स्वरूप को पपापत् निर्मपता पूर्वक करने वाला माहिमा का दित करनपासा पर सत्पवार ीसरे माभिताप प्राली नाना प्रकार सारों से दूरपर निमामला: की प्राप्ति करते है।सत्य प्रत्येक प्राचीसियेमाभपमूल। सत्यवादी मन में न विपार और मपदी सत्पत्र होता चिन्तु सब मन में मारम भीर पंप मौष पने पते / सत्यवादी मन में प्याकुलता और भयाम्ति कमी पत्र मही होती / उस पिच में प्रसन्नता और परोपकार की स्फरसा फुरित होती रातीहै। प्रत्य मासेवीकी पुलिस प्रकार पिकसित होने लगती मिस प्रकार पारी मन: मापसे पुस्प विकसित परते। उस का मा परोपकार की M मोर इस प्रकार से पीरवा मिस प्रकार प्रातकाल में सर्व 5 बर पिस्वत होकर स्वरको महाशित करने लगती मता सत्प पारपरमा अत्यावश्यक है। AFममममममार सपESIDE-E
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________________ Partoonxxx XXX ( 83 ) REMEETURESxxesveeMAXIMAGEXX अव इस स्थान पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सत्य किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि है जिस प्रकार से पदार्थ हो उसे उसी प्रकार से मानने को सत्य कहते हैं / तथा प्रत्येक द्रव्य गुण पर्याय वाला माना गया है वा सत् द्रव्य का लक्षण है किन्तु द्रव्य उसको कहते हैं जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य गुणवाला होता है / प्रेसा कोई भी द्रव्य नहीं है जो उन तीन गुणों वाला न हो। र अनएर सिद्ध हुश्रा कि प्रत्येक द्रव्य जिस प्रकार से हो उस को उसी. प्रकार से मानना सत्य का लक्षण है / इसलिये जिज्ञासुत्रों के बोध के लिये सत्य के दो भेद कर दिये गए है.। जैसे कि द्रव्य (व्यावहारिक) सत्य और भाव सत्य / द्रव्य सत्य उस का नाम है जिसका प्रत्येक व्यावहारिक क्रियाएं करते समय ध्यान रक्खा जाए / मुख से वही वात कहनी चाहिए जिस के पूर्ण करने की शक्ति अपने में देखी जाय / असत्य विश्वास देना बहुत ही निन्ध है / जो व्यक्तियां अपने यश के लिये अन्य व्यक्तियों को असत्य विश्वास / देती है वे अन्त में निज अविश्वास को ही उत्पन्न कर लेती है फिर वे चाहे सत्य कथन ही करें, लोग सहसा उन पर विश्वास नहीं करते। फिर उन का नाम जनता में असभ्यता से लिया जाता है न उन की सहायता के लिये ही फिर कोई न उद्यत होता है / अपितु उन को फिर नाना प्रकार के कष्टों A का सामना करना पड़ता है / अत एव व्यावहारिक कार्यो म भी असत्य का प्रयोग न करना चाहिए / जो व्यक्ति करते है सा है, वे व्यवहार का नाश करते है मनमाFETTERTIERY ExamxxxxAIXXXaxxnxxRTEXXXXxxxxxxXx:
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________________ नयामपERED . . . . - -AELEमकर-स पागात मही प्रकार मानी सर्व मो कापी / भी सिधि सस्पापी हो सकती है। सरप पारा प्राणी प्रस्पेक म्पत्ति का विश्वास पाम बम सातास नि, प्रस्पक म्पतिको पोम्पी किपरम्प सत्य मापयरका मम्पास करे। सस्प मापी के लिये पोम्पक पारपेष 5 सोम 3 भय भोर हास्य का परित्याग गरेसरही सत्य की राहो सकेगी। तपा पापम्मान बिरस्पान न के गाही मुम्म कारस। मता प्रत्येक पारिको मित मधुर और सत्प मापी बने केलिपे करियर होना चाहिए / माचाम्स कर होने पर मी ! असत्य का प्रपोग पापिन परमा पारिए। पोंकि शाम में / हिनाभि मसाबाउ तोगम्मि सम्म साए मोगरिहिमो। प्रपिस्सासो पमुपायं तमा मोसं विषम्मए // 1 // मर्यात भसस्पबार सोप में सर्व पापुमोबारा मस्ति सपा मापिमान सिपे अत्यन्त प्रविणास का कारसमक्षा मपापार विनिमर्णत् असत्प मापवरमा चाहिए। सपम्प सम्प की मापण करने का प्रम्पास पागापगा तो फिर माघ सस्प के लिये मी पूर्वतया मोपण पिया या सगा ।म्प सस्प का पालन करना तो मत्यम्व संगम धिमा माष मात्प का मपण करना बसाम्प नहीं तो नि तर तो भवत्प।पौषि पापम्माम मत मारसम 4 सपकेम्पस करने की फसपा पोपे मार मापन ममममेकीकार। SIDEBAERaan: दEALEDEFSALAR
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________________ XXRAKERAxexeKER ACHHExaxis माRELESEXSAREEKRIORamaula. श्रय यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भाव सत्य किसे कहते है? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि जिस प्रकार के पदार्थ हो उनको उसी प्रकार से माना जाए उसी का नाम भाष सत्य है, जो उन पदार्थों के स्वभाव से विपरीत माना जाए, यही भाव असत्य है। भाव असत्य किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि भाव असत्य दो प्रकार का वर्णन किया गया है जैसे कि 1 विद्यमान पदार्थों का न मानना और 2 अविद्यके मान का मानना अर्थात् 1 भाव को अमाव मानना और 2 प्रभाव को भाव मानना-यही भाव असत्य है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब तक उक्त दोनों विपयों की व्याख्या न की जाएगी तव तक थटुत सी अनमिक्ष प्रात्माएँ, भाव असत्य से किस प्रकार से बच सकेंगी? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि यदि जिज्ञासुओं o को व्याख्या से लाभ होसकता है तो मैं संक्षेप से उक्त विषय की व्याख्या कर देता हूँ जिस से पाठक भाव असत्य का परित्याग करके सुगमता पूर्वक भाव सत्य के श्राश्रित हो सके। १भाव को प्रभाव मानना--जैसे आत्मा सत्य पदार्थ है उसको न मानना--तथा आत्म पदार्थ की उत्पत्ति पांच 9 भूतों से मान लेना इसी का नाम भाव को प्रभाव मानना है। a क्योंकि यह यात भली प्रकार मानी गई है कि कारण के सदृश ही कार्य होता है जैसे तन्तुओं से वस्त्र / सो जब पांच भूत ही A आत्म पदार्थ के कारण मान लिये गए तो फिर यह शंका हो / PERIETRICKMATi-Termins
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________________ AC-IXEEEEEEEEF सम्मानन रा सकती है पाप भूत तार पदार्थतनकीगत्पत्रि में कारप भूत सपनेंगे सड़ता गुणहोने से। सेविकपमा परोपप्पी तत्व से शरीर की मस्पियों पर गौ 2 गत सता से घिर पम गया। अग्नि ततसे जठराप्ति सत्पम्नामा "पायु तत्व से भासपास होगपा और 5 भाकाय वाल से शरीर में प्रकाश मारा / प्रब बतताइए पैतम्प सहाकिस तस से उत्पए मानी जाए। क्योकि पाच भूत तो साता गुशवाहास हिपे मामा का प्रभाष मानना पा पाच भूतों से उत्पच मा मानमा पो भाष को प्रमाण प माममा मात्र मतप है। परिचा कामाय किशिस प्रकार पड़ी (रा) समय सतसाती ठीक समप पर ही मेरा पता ठीक उसी प्रकार पाच भूतों से बम्प शादिमी सत्पन हो सकती है। इस शंका समापान में कहा जावा किया रान्त विषम मा माननीय पही। क्योंकि पातो पड़ी का पत्तो कोई तम्प मिठीप पड़ीने पीक समप तो जाता दिया परन्तु रस का समान नहीं / परि का बाप कि उस समय पड़ी को मीसामोपड़ी से पूरे गाने पर कि ने कितने पर बसाए पापा सत्तर ममान करेगी। पदि पड़ी से पाहामाप कि परि तुम बोस पी सकती हो तो तुम द्वितीय पारदी पैरा पा से तो स्पा पड़ी र क्रियाएं करत पण जापगी ! महीं / प्रता सिर मा कि बेतन की पत्ति में पड़ी प्राराम्स कार्य सामा / इसी प्रकार फोनोग्राफ उपा बोहो पाने सिनेमा PHERE / EDEESERane
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________________ KASAXCIRNARXXMARTNERIOXXRARAMATKARI ( 87 ) SMOSIXEXX में भी जानना चाहिए। क्योंकि वे दोनों पदार्थ स्वयं उस ज्ञान में से वचित ही रहते हैं / इसलिये पाच भूतों से चेतन की न उत्पत्ति मानना युक्तियुक्त नहीं है। इस प्रकार से अन्य वस्तुओं a के विषय में भी जानना चाहिए / , जो वस्तु स्वयं सत्यता रखती हो फिर उसका प्रभाव मान चठना,. यही एक भाव को प्रभाव मानना भाव असत्य का प्रथम भेद है / भाव असत्य का दूसरा भेद अभाव से म् भाव मानना है तथा असद् भावरूप है। जैसे कि किसी वस्तु में वह गुण तो नहीं है परन्तु विवक्षित गुण की ण असत्य कल्पना उस पदार्थ से सिद्ध करने की चेष्टा करना।। जैसे-ईश्वर कर्तृत्व विषय / अब पाठकों के सुवोध के लिये प्रश्नोत्तर रूप में यत्किश्चिन्मात्र ईश्वर कश्त्व विषय कहते है। प्रश्न-क्या जैनी लोग ईश्वर का अस्तित्व भाव मानते है? उत्तर-हॉ, मानते है। प्रश्न-ईश्वर में मुख्य मुख्य कौन से गुणों का सद्भाव माना जाता है? ___ उत्तर-अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अक्षय सुख, और fa अनन्त शक्ति। प्रश्न-पया इन गुणों से अतिरिक्त और गुण भी ईश्वर में माने गए हैं। . उत्तर-हॉ, ये तो मुख्य मुख्य गुण बतलाए गए हैं किन्तु ईश्वर परमात्मा तो अनन्त गुणों का स्वामी है। - प्रश्न-जैन मत में ईश्वर के पर्याय चाची नाम कौन कौर EXERXXXXGEETEXTRACTICLES
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________________ ETERIHAucareSEP-1 SERIEEEPE. तर-सिरपुर, पारंगत परम्परामत अजर अमः बिमु पोगीम, एक प्रधिम्प प्रसन्म इस्पादियाम पर परमात्मा कपन किये गए हैं। मम-पपा ममत परमात्मा को सई पापक मी - मानता! तर-नौ, चैनमत सिर परमात्मा से सर्व पापक मी - मानता है। प्रम-सम्पापापिस प्रकार से मानता। पचर-बार से बाइपयोगारमा से। प्रम-स्पा परमात्मा शरीर से म्पाप नही। रचर--नही स्पोकिसका पैर नही। मम-पा परमारम प्रदेशों से प्यापकही है? उत्तर-ग्रीषमात्म प्रदेशों द्वारा सोकाकाराप्रमाणम्णपत्र हो सकता कि समपपीच समुदमात करणे पस चनमार समप ममावती कासवा है। मन-शान से सम्पापक पिस प्रकार होता। उत्तर-जिस प्रकार पूर्प पिरो माय परिमित भर में 2 ध्यापकबा फिरणों द्वारा परिमित व भाति परता हैडीक रस्सी प्रकार सिर परमात्मा मीसोबासोक में शाम द्वारा म्याप्त है। प्रम-मा परमात्मा मरक नहीं है। प्रम-यो फिर क्या? रतर-रमरा। प
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________________ CERSEXYMARRIERRIERHIXIMIREKKERAKESHA ___प्रश्न-तो क्या जैनमत ईश्वर-परमात्मा को जगत् कर्ता नहीं मानता? उत्तर नहीं मानता। क्योंकि उसमे यह गुण नहीं है। प्रश्न-यदि जगत् ईश्वर ने नहीं बनाया तो क्या जगत् अपने आप बन गया ? .. उत्तर-यदि जीव ईश्वर ने नहीं बनाया तो क्या फिर जीव अपने श्राप बन गया? पूर्वपक्ष- जीव तो अनादि है, इसलिये इस का कर्ता कोई नहीं है। न उत्तरपक्ष इसी प्रकार काल ( प्रवाह ) से जगत् भी म अनादि है। में पूर्वपक्ष-हम देखते है यावन्मात्र संसार के पदार्थ है, - उनका कोई न कोई कर्ता अवश्य है जैसे शालादि। इसी प्रकार जगत् का कर्ता भी ईश्वर अवश्य होना चाहिए। उत्तरपक्ष-संसार में यावन्मात्र पदार्थ हैं उनके पर्यायों का / कर्ता है नतु द्रव्य का / जैसे कुलाल घट का कर्ता है न कि मिट्टी का। इसी प्रकार किसी किसी पर्यायों का कर्ता तो हम म भी मानते है। पूर्वपक्ष-किस को मानते हो? उत्तरपक्ष-उस पर्याय करने वाले जीव को।तथा द्रव्य की बहुत सी पर्यायें स्वयमेय उत्पन्न हो जाती है और फिर उनका स्वयमेव प्रलय हो जाता है जैसे कि वर्षा के समय इन्द्र धनुष यन जाया करता है। अब वेधारे उस इन्द्र धनुष को कौन यना रहा है? तथा यादलों में नाना प्रकार की आकृतियाँ
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________________ यमनाममा ILGS पम माया करती नि मारुतियों को कौन बना गा तथा पातु की राशि में गुव सी पातु की कापिका बमकपी : कौन पमका रहा। पूर्वपत-पाप पदापों का माप पिस प्रकार स मानते मोर सनकी फिर पर्याय (रास) किस प्रकार मानते ! रतर-दम परायों का मार (मुन) उत्पाद म्पय मोर भीम्प स्प मानते। फिर रन की स्वतावापरता पसे पाप मानते। पूर्वपत-माप इनका भी सुनाए। रत्तरपक्ष-सुनिए। पदापका मूस व तो सीप धीम्स, रूप में दी सता. किन्तु रसके पूर्व पर्याप का प्पय पीर A रत्तर पर्याग गत्पाद होता रहता।से-रिसीपल में सुपरमों का पंग (प्रीयामाप) बनवा लिया हा बरों की मारतिकर म्पस मोर कैट के माहारदी उत्पति किम्नु सुपर्दता दोनों प्रबस्थानों में प्रीम्प प स राती " सी प्रकार प्रत्येक पदार्प की प्रस्थापिताखा रकी मारुति करन बासा सबकारमपरासी प्रसार प्रत्येक पर्याय समता भी पापा दोभाती करने से भी हो जाती है। किन्तु पयों का कर्तामर नहीं माना जा सकता। पूषपत-पाप अनादि अमम्स पदार्य पिस प्रकार से मामले * ताप-नम कपत ममापि मनम्ती मामल बार प्रकार म पदाची पाप को मानने / HE-a- rrr-EADIES ARBHEEनमBERRIES
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________________ READLXXXXDARमालxnxxanta E 1 अनादि अनन्त 2 अनादि सान्त 3 सादि अनन्त 4 सादि सन्ति / पूर्वपक्ष-आप इन चारों का स्वरूप कोई दृष्टान्त देकर समझा। उत्तरपक्ष-सुनिये। जैसे जीव द्रव्य वास्तव में अनादि अनन्त है क्योंकि न तो इसकी उत्पत्ति है और न इसका विनाश है, इस को अनादि अनन्त माना जाता है / यद्यपि भव्य जीव मोक्ष गमन के योग्य है परन्तु उसके साथ लगे हुए कर्म पुदल अनादि सान्त है। क्योंकि कर्मों की आदि तो सिद्ध नहीं है होती किन्तु जब वह उन से छूट कर मोक्षगमन करेगा तव म उस अपेक्षा उस जीव की पर्याय को अनादि सान्त कहा जाता है / जव उस जीव का मोक्ष हो गया तव उस पर्याय की अपेक्षा से उसे सादि अनन्त कहा जाता है / क्योंकि मोक्ष कर्मों के फल से उपलब्ध नहीं होता किन्तु कर्म क्षय से मोक्ष / पद की प्राप्ति होती है इस लिये निर्वाण पद अपुनरावृत्ति वाला माना गया है और फिर वही जीव जव गतागति करता है तब उस में सादि सान्त भंग वन जाता है। जैसे मनुष्य पर्याय को छोड़ कर जीव देव पर्याय को प्राप्त हो गया इस अपेक्षा से-जीव सादि सान्त पद वाला बन गया / अभव्य आत्माओं के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि अनन्त माना गया है / इस प्रकार पदार्थों के भावों का वर्णन किया गया है किन्तु जो पुद्गल द्रव्य है वह तो अनादि अनन्त है फिर उसका पर्याय सादि सान्त है / जिस प्रकार मिट्टी का पर्याय रूप घट, मिट्टी का पुद्गल रूप तत्त्व अनादि अनन्त है किन्तु उसका पर्याय XanxnxIROINXXRAKRISEASEAXExamxAAR - -.. - -.
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________________ USERSEE | सप सादि सात। सोसल पर्यापों का जीवन पर। पूर्वपद-कम मतभारको कापों नहीं मानता। उत्तरप-भरको पो मानने में मैनों को कोई मास दो नही किम्बाको सिट नही हो सकता। पूर्वपर-सिरोहीदोसच्चा! ___ रत्तरपर-माप पुडि वारा पा शास्त्रीय प्रमाहों से सिय करें। पूर्णपद-गोवा म प्रेरणासी की प्रेरणा से सब बिपाएँ होती। रचरपा-मम्पाप जीव रिसा प्रसस्पबार मैपुन हीदम्पमिधारारिसबहकर्म क्या उसी की प्रेरणा से होते पा सकीची प्रेरणा से संसार पुनित होगा। पूर्वपच-तो माप पसको प्रेरक नही मानते। परपा-नहीं मानते।। पूर्वपक्ष-यो फिर माप उसको पपा मानते हैं। रचरपर-पर्व मापों का प्रयास और सी // से जैसे सूर्य प्रसाद विमा प्रेस महासी मकार परमारमा सर्व पदापों का पाता हो कि मेरफ नहीं है। प्रम-तो क्या मिरको कर्ता मानने पर कोई रोपापति माती। उतर- प्रिय ! प्रमेश पोप पाते 6 शिससे रखर बीईसरवादी नहीं ठहरसाती। पूर्वपर-भापकी पर बात नहीं मानी जा सकती।का।। BENERBER IEDEREESEEEEEEE EEBIEGIE
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________________ NEELATKARINAMAKIeXKAXXXES MEDIESIDEREKAXXEXEExaxKERAGEEKX फि ईश्वर परमदयालु, सब का प्रेरक, सर्वशक्तिमान् , सर्व न्यापक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वेदवक्ता, जगत्स्रष्टा, प्रलय कतो, न्याय शील और स्वतन्त्र है / अतः उस पर दोषारोपण करना युक्ति युक्त नहीं है। उत्तरपक्ष-मित्रवर! यदि आपके कथनानुसार ही उक्त गुण माने जाये तव फिर कर्ता मानने पर उक्त गुण उसमें स्वयमेव नहीं ठहर सकते। पूर्वपक्ष-आप उक्त गुणों के होने पर और फिर कर्ता से मानने पर क्या दोषापत्ति समझते हैं ? जिस के सुनने से हमें भी उन दोषों का बोध हो जाए। उत्तरपक्ष-सुनिये मित्रवर! पहले मैं आपसे यह पूछता HE-क्या ईश्वर में कर्तृत्व गुण नित्य है वा अनित्य ? यदि आप में उक्त गुण नित्य मानेंगे तव तो सृष्टि और प्रलय इन दो कार्यों का कर्ता परमात्मा कदापि सिद्ध न होगा क्योंकि प्रलय काल में श्राप के मानने के अनुसार परमात्मा को निष्क्रिय होकर र येठना पड़ेगा। तब उस का कर्तृत्व स्वतः ही नष्ट हो जायगा। यदि उस काल में भी श्राप कर्तृत्व गुण का सद्भाव रखेंगे तब आप को प्रलय काल नहीं मानना पड़ेगा / यदि श्राप अनित्य / गुण मानेंगे तब तो कर्तृत्व भाव का ही अभाव हो जायगा। फ्योंफि अनित्य गुण गुणी के साथ तदात्म सम्बन्ध वाला नहीं माना जाता / फिर इस विपय में यह भीशंका की जा सकती है कि यदि परमात्मा सर्व व्यापक है तय वह अक्रिय माना जायगा, जैसे-श्राकाश / यदि सर्वव्यापक भी क्रियायुक्त माना जायगा तर यह शफाभी उपस्थित होती है कि क्या वह क्रिया -~~~TAREETTER REETTE RECORNERXXXCORATAXXRAKERLAKAARCONTEXCOXACKR 2 ACTERI .
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________________ PERFE CENGaकम ( 5 ) एक देशमाह मोतीपा सर्वरेण्मार! परि मपम पर स्वीकार किया जायगा तब सर्म म्यापमा पर होती है। पपोंकि सब परमामा सर्प म्यापफ किया मात्र किस म्पाप से मानी शाप! परिमितीप पच स्वीकार किया। आपणा तब पापोप उत्पपोता सिनिपा होने से : फस एफ-म्पतिको मिसमा पा किन्तु मिल गया सबसे। समान किया होमे से ।से कस्सना करो प्पास तो परम्पति को सगी किन्तु मेप सर्वच बरस गपा सिससस को मी महमप बना दिया। पता वस्व गुण परमारमा में मानन्धर पुलियुनही / पूर्वपच-रसमे परिबीरबमा रयापपरी की। इममिको बोपापत्ति नहीं मा सकती। उत्तरप-मियबर ! पण माप घर को परिक्षा: उपादामकारकप मे मानपा निमिठ कारण स पदि उपादान कारण रूप से मानते व तो भापके मत से पाप गुप स्वतादीनप हो जाता हैपोजि प एक। पास बीमक कप बन गया सभापती विचारपरें कि उस मे या किस पर भी! अपितु उसने अपना सस्थानाय माप ही कर मिपा / पोंकि पाही प्रम सर्या पही प्रसव पही परित पही मूर्म ही मराचारी पदी पाचारी नही ग्पराक पदी मोसा वही कामी पी मोमी पी प्रासस पही चांस नही पाप पनी ममार्य पारी सत्यबर बही प्रसत्पबम-इत्पादि पापम्मान सांसारिफ यमासम पासप प्रमी प्रम हुए। परम प्रचर की गति FREERI E R ------- EEELATEL E-HELIVEREDEE
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________________ PERATORRERA K AXRXXXSIXSongs Romxnxxx PUCXEXXExerceGRAMRITERATrue // ब्रह्म की हो गई तब श्राप ही विचार करें क्या यह ब्रह्म की दया मानी जायगी? कदापि नहीं। ___यदि आप.यह कहेंगे कि यह सय क्रियाएँ माया ने की है ? म तो हम आप से पूछते हैं कि माया ब्रह्म से भिन्न है वा अभिन्न? यदि भिन्न मानोगे तव तो जगत् का उपादान कारण रूप ब्रह्म सिद्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि जगत् में ब्रह्म और माया ये दो पदार्थ सिद्ध हो गए / यदि अभिन्न मानोगे तव तो ब्रह्म माया युक्त सिद्ध हो गया। जब वह मायायुक्त सिद्ध हुश्रा तव फिर उसको सर्वक्ष और सर्वदर्शी मानना एक अपने आग्रह ही की - बात है। . इस विषय में यह भी शंका उत्पन्न होती है कि माया सत् / है.घा असत् ? यदि प्रथम पक्ष ग्रहण किया जाय तव तोवेदान्त मत का सर्वस्व ही नष्ट हो जाता है / यदि असत् पक्ष ग्रहण किया जाय तय यह प्रपंच क्यों ? और फिर यह पंपच मिथ्या भी नहीं है / यदि ऐसा कहा जाय कि जिस प्रकार मृग तृष्णा काजल मिथ्या होता है वा रज्जु में सर्प की बुद्धि मिथ्या होती है, अथवा रात्रि समय टूट में चोर बुद्धि मिथ्या होती है, ठीक उसी प्रकार जगत् भी मिथ्या है / सो यह कथन भी // युक्तियुक्त नहीं है / क्योंकि मृग की श्रात्मा में जय जल का / सतमान स्थित था तव ही उसको नदी में भ्रम उत्पन्न हुश्रा? यदि उस को जल का सत्यशान न होता तो फिर उस को भ्राति किस प्रकार हो सकती थी। इसी प्रकार जब मश्च सर्प का शान हृदय में हो तब ही रज्जु में मर्प की भ्राति हो A सकती है और इसी प्रकार जब चोर का मान होता है तब - -- -- -- - ---..---
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________________ नीर में चोर की प्रातिदो सपतीपये पदार्प सत्प पतप इन को मिप्पा सेकासलिये मापाप ! संसार को मिप्यारप मानना पुलियतनामताक: Mपन से परमारमा उपादाम पता तो किसी प्रकार से मी सिय नहीं हो सकता। पिपेसा कामाय कि पर सब प्रसकी माया है। सो पर कपन भी कि नहीं।पोलिस विषय में परमा: उत्पन होती है कि पपा मम मा परिम कहते पा पासा प्रम स्वास्य नहीं हो सकता। फिर पाकर्म पीर मन का प सोपर इप्पापासा प्राप माना गया उपप्पा ..होने से प्रमकी समतादी गाती रोगी / माप में इस बात का भी विचार कर देना चाहिए। इममा मप्रात पस्तु कीनी होती है सो पर कौनसा पथा। जो प्रमको प्राप्त नहीं मा। यदि भाप परफॉगे दिग्स कंपस मनता को अपनी भीसा दिनसातो बम कावेलीसा पाणिसाता Mमो ममता मे प्रप होना तय मापक कपनानुसार * प्रम और जनता दोहोपए / तपाबीमा पारिबहावा. मो अपनी प्रशसा की पा कर पाना पा सायची हो। - परिभादोनों पात प्रम में मानी गायेंगी ! तर मापी निपाता से विचार पर समरिहातो होने से प्रानकीप्रमतारा सकती। कापि नही ।मवएप निकर निकासा किपादान का मोरबारियों ने स्वीकार किया पापा फिसी मीममाप से सिर नहीं हो सकता। एFEEEEEE 3E
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________________ AURAXYXYEATEXYXxxRines म MARATERRXKREAMERAXEEKEDARAMAREADमला __ यदि ईश्वर को निमित्त कर्ता माना जाय तव भी वह सिद्ध नहीं होता। कारण कि जब जीव और प्रकृति दोनों अनादि है तो मला फिर कर्ता किसका? यदि ऐसा कहोगे कि जिस प्रकार कुलाल घट का कर्ता होता है यद्यपि मिट्टी कुलाल से प्रथम ही विद्यमान थी तथापि घटाकार हो जाने से फिर घट का कर्ता / कुलाल ही कहा जाता है ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म जगत् को स्थूल रूप में लाना, जीवों को कर्मों का फल देना और उन जीवों को वेद द्वारा सत्योपदेश देना, यह ईश्वर का ही व्यापार है / यदि वह इस प्रकार से क्रियाएँ न करे तो फिर उसे मानने की आवश्यकता ही क्या है ? तथा जव जगत् प्रलय रूप में होता है तव तो उस समय सर्व जीवात्मा सूक्ष्मावस्था में वा सुषुप्ति दशा में होते हैं। उन जीवों को जागृतावस्था में लाना यही उस परम दयालु की परम दया लुता है ? / जिस प्रकार डाक्टर लोग आँखों पर आए हुए a मोतियों के पानी को उतार फिर उस अंध प्राणी को संसार के दर्शन कराते हैं ठीक उसी प्रकार परमात्मा भी प्रलय में पड़े हुए जीवों को उठा कर फिर विचित्रमय जगत् के दर्शन कराता है, वश यही उस की दया है ? इसलिए आपका उक्त कथन मी युक्ति शून्य है क्योंकि जय प्रलय काल में जीव श्राप के कथनानुसार सुपुप्ति दशा में शान्तिपूर्वक थे तय आपके माने हुए ईश्वर ने उन चारों को नाना प्रकार के करों में डाल a दिया, गर्भावास में उनको नाना प्रकार के कष्ट भोगने के लिये स्थापन कर दिया, फिर उन जीवों को हिंसा, भूठ, चोरी, मैथुन, क्रीड़ा और परिग्रह के जाल में ईश्वर की दया ने डाल XXEEXMEXICAXIRAY Tarw: PRIORamitaxxxxante-XKORKEEOXxxmaxonxxx
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________________ GEOGESTEIGTIGE HI दिया उमको सर्व प्रकार के कारपों में गा रिमा तो यही उस परमापातु परमारमा की पया! पदि ऐसा पामे फि प्रसपकाब में उन जीपों को उस मी पा था तो हम करते उनको कुसमी पपा पा! प्रापरे कपमानुसार उसएम में सुमपा पामीनपा तो फिर पनपेचारे, वीपों को परमात्मापी पपा ने एक फएमय समुप में राज, दिपा बाह!स परमारमा पपा दी अपी पाकी है। और यो रास्टर का रणम्त विया गयापा भी विपम एसयो इस विषय में संपनी हो सकता। कार फिसर को परमान नितान्त नहीं कियाममुरम्पति मानों के प्रकार होने पर नमुप पाप भषाप करेगा। किन्तु परमारमा को तो मापने सर्प माना, पातो पामती मोति जानता है कि अमुकमीच अमुक पाप कर्म करेगा तो / उसे राकना पारि भर पह मान मी हो साता है कि परिवान पर नहीं पेषता तब तो इतनी भीर पाहीन सिर होगा / A पर फर्म फराप पा करते प फोनरोरे पिताजी कर बुधबारको रणव रोगार तो भगा इस पर H से लिपा करने वाले को कीन पुरिमान परमात्मा मान सकता मर्यात् कोई मी नही / पदि ऐसे माना आप किया प्रगामताहीही तो फिर पसभी साता नर हो गई। पसापागाप कि परमारमा जानता तो है कि पारपा किसी भीष को रोकगा तर रस जीप कीसवमाता जाती। योगी! पाकिकम करने में मीरस्वतीभोर परमोसने EROESSEGEE E LDEEPEXEEEमरन
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________________ DIXI TOSX X X. Com ho poden con los medias . RAREEXX RAKHA-A म परतन्त्र / सो यह युक्ति भी कार्य साधक नहीं है क्योंकि स्वतंत्रता तव जा सकती है जव उस की मूल की शक्ति छीन ली | जाए किन्तु यह तो उसकी दया है जो अज्ञानवश जीव कर्म - करने लगा था किन्तु परमात्मा की शक्ति ने उसे रोक दिया। जस पिता के सामने बालक अज्ञानवश कृप में कूदना चाहता है वा अग्नि में हाथ डालना चाहता है तथा सॉप आदि हिसक जन्तुओं को पकड़ना चाहता है तो क्या आपके / मानने के अनुसार पिता के सामने वालक उक्त क्रियाएँ कर लेवे / और पीछे पिता उस बालक का प्रतिकार करे। इस प्रकार की बुद्धि रखने वाले को पिता मानना आग्रह नहीं तो।। और क्या है ? इसी प्रकार जव परमात्मा के सामने सव कुकृत्य हो रहे हैं और परमात्मा उन्हें देख रहा है फिर सर्व शक्तिमान् परमदयालु कहाता हुआ उन जीवों को उन कुकृत्यों के करने से रोकता नहीं है तो फिर उस परमात्मा से तो वर्तमान समय के राज्यशासन कर्मचारी ही अच्छे हैं, जो कुकर्म होने के समाचार सुनते ही रक्षा करने में कटिवद्ध हो जाते हैं। जैसे राज्यशासन के कर्मचारियों को पता लग गया कि अमुक स्थान पर अमुक समय पर अमुक कुकर्म होने वाला है तो फिर वे बहुत शीघ्र उसकी रक्षा में कटिवद्ध हो जाते हैं वा रक्षा के उपायों का अन्वेषण करते हैं / किन्तु आप का माना हुश्रा सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् परमात्मा इतना काम भी नहीं कर सकता / इस से स्वत ही सिद्ध है कि उसमें कर्तृत्व गुण है ही नहीं, किन्तु लोगों ने ही उसमें असत् गुण की कल्पना कर रखी है। " HIROIRALAxomxxxsaxxe-RRExamomxxxxxxxxxAARY
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________________ पानमसामाSEE: नाम इस स्थान पर पर भी कामो सकती किब प्रहब। काम माता या स्पस परि परमारमा में लीन होगाती पा सम्माषस्था में हो जाती है। पदि प्रथम पर प्रार करोगे। तब तो परमात्मा र मिभित सियो गापमा। स्पोकि सब रसमें सब महति समा गई तब पर भी गाता : मासा हो गया तथा फिर उसका सर्व पापक गुरमी मर। हो गया क्योंकि जिसमें पाम्पापक था सपही पदार्पन : पावो मना फिर पापक फिस में ! परि दिदीय पर स्वीकार किया जाप ! तब पाशा उत्पध होती है कि सूक्ष्म अगत् द्वारा कहाँ पर! पॉफि रस काल में तुम पाफाश का भी प्रभाष मान लिपा / फिर तुमने सम्म से स्थत जगत् का ईतर मारा होना माम किपा / सो पाकपन / मी युक्ति युक्त नही पोफिया सूक्ष्म अगत् स्पून कप में किस मकार से मापा सका तुमारे पास भी पाय युक्त प्रमाय नी पोधि भनादि निपम कमी भी परि। पर्सन नही किया जा सकता 1 से पुनोत्पत्ति माता पिता मारावी होती तो फिर परमारमा सम सगरम कप में किस मकार स किया / परि ऐसा मे कि मादि परि बिना मैथुन से होती है तो फिर इस में पर्शकाएँ उत्पम्म होती है कि जब परमारमा ने युगों की प्रादि पर बिना मैपुन से पत्पम्न र दी तो फिर भय पों पर बनाए पड़े पड़ाए युवक भाषा मरण समदी मम देवा! प्र फ्योरिअप पासता फिर शक्ति ते ए पास 4 हात मोगमा गर्मपात रोगाम्म सायरी मातामा की इस -SE राण
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________________ शिमला AYO नाrinicXxSEXMICROICEORAKHotkomleMLAL ADYATRaxararmarxxxx ( 101 ) कारण से मृत्यु होजाना, वालकपन के रोगादि के दु.खों का / अनुभव करना--इत्यादि दु.खों का अनुभव करना ये सव परमात्मा की दया के ही फल हैं ? इसी लिये हमने पहले कहा 1 था कि एक कर्तृत्व गुण मान लेने पर परमात्मा के अन्य गुण - मी फिर ठहर नहीं सकते अतः किसी युक्ति से भी परमात्मा सृष्टि कर्ता सिद्ध नहीं हो सकता। * यदि कहोगे कि वेद ने ईश्वर को कर्ता सिद्ध किया है इसलिये ईश्वर का मानना ही चाहिए / तो इस विषय में हम पूछते हैं कि वेद किस ने वनाए ? यदि कहोगे ईश्वर ने ? तब तो यह अप्रामाणिक बात है। क्योंकि वेद शब्दात्मिक रूप हैं और फिर शब्द मुख से निकलता है सो जव परमात्मा का शरीर ही नहीं तो वेद किस के द्वारा बनाए गए सिद्ध में होंगे ? यदि कहोगे कि मन्त्ररचना ऋषियों ने की है और शान परमात्मा का है इसलिये वेदों को ईश्वरोक्त मानने पर कोई दोषापत्ति नहीं आसकती / सो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है फ्योंकि श्राप लोग जीव को सर्वश तो मानते नहीं हो सो जव ऋषियों को ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान है ही नहीं तो भला फिर उनको ईश्वरीय ज्ञान का उपदेश किस प्रकार माना जा सकता है ? तथा यदि वेद ईश्वरोक्त ही मान लिये जाये तो फिर अन्योन्य श्राश्रय दोप की भी प्राप्ति हो सकेगी। अत: यह कथन मी असमंजस ही है। किसी अध्यक्ष के सामने जिस प्रकार किसी ने अपना वृत्तान्त सुनाया और फिर उसने कहा कि मैं सत्य कहता है / तव अध्यक्ष ने प्रश्न किया कि तुम्हारी सत्यता का साक्षी कौन है ? तब उसने कहा कि मेरी TREATREATERIST-- --- FORXXXExtenxxwwxxx XXXXXX
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________________ सानासाल ( 102 ) पुनर्विवाह की पर्मपत्नी / जैसे पाय पासास्परासी प्रकार पर भी बेरकावा-बगतमा फेषह एकही H पर और भरपाता कि मोदी बनाए। प्रय विचार शीस पुरुष समास पिपप पर विचार करें किस में - सत्पता कर सक। इस बात पर भी मपश्य विचार करना चाहिये कि गरी रादि सामग्री प्राम किये बिना पोंकोरपना किस प्रकार : से की गई तयाबापा भी मानते होकिसरिकी रचना के सायदीपद बनाई पक्या उनमोबनाये भीरपड़े भड़ाये मपयुवकों की जो विना माता पिता के प्रपोग से भर की अपार दया से स्पपमेव उत्पम एप पे मूस मापा पैविक संसर पी! यदि पी पेसा कहोगे तब तो या शंका उत्पन्न होती है कि पालक मापमापा माठा के कारण से भी बोका करत सा अनचारोंके तो माता पिता दोनों ही महीपेतो मापा का स सी। परियोमे से रमकी उत्पत्ति पर पीपा से हुई उसी प्रकार पदिक संसात - मी स्पवाही मान गया। इससे पा स्तर की सिय हो / गया किस गपति विषय में उनकी प्रसस्य परपमा उसी प्रकार मापा के विषय में मी प्रसप कम्पना / तपा इसमें पामीशारापन हो सकती है किस्पामापर्व मरपुपक परिक समात बोलते थे या भम्प रणे मी यदि दागे मार्यापर्त केही भरपुपक रिसंसात दासत पे वो पा का रत्पत्र होती है कि पापों सम्प हरा वासियों ना मपराप दिया था। परि कागेस
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________________ दशवासी वोलते थे? तव यह शंका उत्पन्न होती है कि यह कथन असभव प्रतीत होता है उन देशों में वैदिक संस्कृत तो दूर रही / किन्तु लोग संस्कृत का नाम भी नहीं जानते / संस्कृत शब्द का यह अर्थ होता है कि संमार्जन किया हुआ। तब यह शंका उत्पन्न होती है कि उन युवकों ने किस भाषा में से वैदिक सस्कृत समार्जन किया था क्योंकि घेतो वर्षा ऋतु में होने वाले मेंढकों की भॉति उत्पन्न होते ही बोलने लग गए थे ? श्रत. ये सब कथन स्वकपोल कल्पित होने से असत्य है। पूर्वपक्ष-यदि ईश्वर सृष्टि न रचे तो जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल उन के भोगने में किस प्रकारसे पा सकता है? उत्तरपक्ष-यदि ईश्वर जीवों के कर्मों का फल न भुक्ताचे तो ईश्वर की क्या हानि है ? क्योंकि श्राप के मतानुसार जीव स्वयं तो फर्मों के फल भोग सकते ही नहीं? और फिर ईश्वर सृष्टि की रचना ही न करे तब तो बहुत ही अच्छा हो जाय क्योंकि न तो जीव पूर्व कर्मों के फल भोगे और न नवीन शुभाशुभ कर्म आगे को करें, वे सदैव प्रलय दशा में ही श्रानन्द का अनुभव करते रहे / क्योंकि उपनिपदों में लिखा है कि सुषुप्ति में श्रात्मा ब्रह्म में लय हो के परमानन्द M को भोगता है। जव सुपुप्ति में यह दशा है तो फिर प्रलय रूप महा सुपुप्ति में तो परमानन्द का कहना ही क्या है ? तथा एस से तो यह भी सिद्ध होता है कि जब ईश्वर सृष्टि की रचना करता है ? तव जीवों के परमानन्द का नाश करता है है। जय प्रश्न यह उपस्थित होता है तो फिर ईश्वर सृष्टि a रचता ही क्यों है? KAXXXCXXCXXC-IKASXXEXOMICRORATEXCELEEL - IPRITES
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________________ कायमv=BE पूर्वपस-परिभर परि रबर बीपों को कमों का / फस म मुकाता तब तो भर का ग्यापशीलता का गुण पता ही नहीं। क्योंकि नगर में व्यापाधीश होकर परि म्यापपूर्वक पापियों को शिक्षित नहीं करता है तो पापापीय / फिस बात का? परपपदमत में तो एका के बिना मम्म जीपारमाही नहीं ! तो क्या प्राय पाप ही म्पापापीर : बनता है। भौर फिर माप ही प्रयम करके पर पार बन पर पावापरतो ऐसे मासे किसी ने मापी कमरे मीर फिर समले फस भोगों के पास्त भपने साथ से अपमे नाक काम प पैर मस्तकादिन करो / Hस स दो प्रम प्रथम पाप न करता तो प्रपा पा! तपा र प्रभ्य जीवों को नवीन पाप न करने देवा पर वो सश प्रहप पयादी पती / न तो परि पनी परती नसपिसार करना परवा मोर , फिर धीयोको मी प्रा फम देना पड़ता। परमात्मा सदा परमानम् मोगता पता। ग्राम मे पद पपिप्पा रपी माप अपने परम सादा मारा / स भवानी कोकीन पुरिमार प्रसार मान समता / अतः परि कर्नामा परमात्मा किसी प्रकार भी सिय पीहो सकता! पपा बोनीसमें बर्वत्पपा मसपापमों गल युगपत् परी सकते हैं। परिोग-पर सते! पोलिरमा स्पमापोमेसेतो दम पपने परि *रोमो विषय समाएर समते तो मार पसार रोमो स्पमाप निम्पपा परित्या भरसे मित्र Excsar नमपस - - -
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________________ Mine METRArmaanाम EXIXESEXEXXEEXXEXIEXXxSEXMEERICEKter ( 105 ) अभिन्न ? रूपी है वा अरूपी ? जड़ है वा चेतन ? यदि दोनों स्वभाव नित्य है तब तो ये दोनों स्वभाव युगपत् सदा 5 प्रवृत्त होंगे? तव तो ईश्वर सदा सृष्टि रचेगा और सदा ही प्रलय करेगा / इस से तो न सृष्टि होगी न प्रलय होगा / जैसे एक पुरुष दीपक जलाता है और फिर दूसरा पुरुप जलाने के समय में ही उसे वुझा देता है तव तो दीपक न जलेगा और नाही बुझेगा / इसी प्रकार ईश्वर का सृष्टि रचने का स्वभाव तो सृष्टि रचेगा ही और फिर ईश्वर का प्रलय करने का स्वभाव उसी समय में ही प्रलय कर देगा? तव तो सृष्टि और प्रलय ये दोनों ही युगपत् होते रहेंगे ? इसलिये प्रथम " विकल्प मिथ्या है। यदि दोनों स्वभाव अनित्य हैं तो क्या ब्रह्म ईश्वर से भिन्न है वा अभिन्न है? यदि भिन्न है तो ईश्वर के ये दोनों स्वभाव नहीं हैं, ईश्वर से भिन्न होने से / यदि अनित्य और अभिन्न है तब तो जैसे स्वभाव उत्पत्ति विनाश धर्मवाले हैं उसी प्रकार फिर ईश्वर भी उत्पत्ति विनाश धर्म वाला मानना चाहिए, स्वभावों से अमिन्न होने से / पर ऐसा मानते नहीं है / इस वास्ते यह पक्ष भी मिथ्या है / यदि स्वभाव रूपी है तब तो ईश्वर भी रूपी होना चाहिए, क्योंकि स्वभाव वस्तु से भिन्न नहीं होता है। तव तो ईश्वर को रूपी होने से जड़ता की आपत्ति होगी? इस वास्ते यह पक्ष भी >> मिथ्या है / यदि दोनों स्वभाव अरूपी हैं तव तो किसी वस्तु के भी कर्ता नहीं हो सकते हैं अरूपित्व होने से श्राकाशवत्। इसलिए यह पक्ष मानना भी मिथ्या है। किन्तु जड़पक्ष रूपी A पक्ष की तरह खंडित हो जाता है। इसी प्रकार चेतन पक्ष में ARRIERRIAnimarar xxARIOMXEXXEXXEXICAXXX x
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________________ CICLETJEC6zC9edE " मी निस्यानिस्य और मेरामेर अपवरण तपारन स्पर्ष शाम सेना चाहिए / स्थमावपक्ष मानना भी पस प्रशान बिमित पी। इससिपेभिर कापा फसमदाता किसी प्रकार मी सिरनहीं हो सकता। पदि इस विषय का पूर्व पिपरम देलना हो तो गापाप प्रयों का प्रबहोकन करना चाहिए / इस स्थान पर सो मन एक चिपय का दिममी कराया गया। प्रता माप सत्य की बाके लिये पासे भाव भसस्प का पाम मनी मांति कर लेना चाहिए फिर माष प्रसस्प का परिपाम करके मान सस्प पारप करना चाहिए / पोंकि मारमा भाष सस्प फेदी पारप करने से निर्यात पर की प्राप्ति कर सकताप्रम्पचा नहीं / मिस प्रकार पर पिपय पत्र किपा गया कि रसी प्रकार होनहार (मषितस्पता) पादापि पिपप में मी जानना चाहिए, जिससे भाष सत्सकी पूर्वतया पाहमाकीमा सके। मममम् -- - -
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________________ BES-महान्स ( 108 ) -SEP-माम H भासते तथा जिस प्रकार म्प पीस सर्व प्रकार के मपन करने पर मी भर नही दे सकता उसी प्रकार सांसारिफ पार्यों की प्राप्ति में कमी के बिना पुरपार्प सफल नहीं होता / इसलिये कार्य सिदिके वास्ते दोनों मत्पम्त मापायक परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि / से पुरुषार्थ पक्षपातीखो कर्म को सत्पच मी कर सकता भीर पप भी कर सकता है। पा पात प्रवास माननीय है कि परमो का मारमा के साप निकाचित पन (पिमा पमोग किए नाश न होने पासा) पर माता तपे कर्म प्रारमा को अवश्यमेव मोगने पड़ते रस समप मारमा परापीन अवश्य होता है किन्तु सस फर्म फस पुगे तब भारमा उन कर्मों की अपेक्षा से। स्पतम्भ हो जाता है।सीलिये सूप में मिला कि कम्मसगे हि समया इस्तिया परेपणा / भमाणसास बोसीस विपिहम्मति पासियो / मर्यात कमी संग से बीच मोजो पुरचित मा रात मेदना पापा।ममुम्प योनि बिमा यामामी। माना प्रकार की पोनियों में अपने विकास के स्थान पर / मिनी होता रहा मतापस गापा मैं पाप कर्मों की। प्रधानता पन की पापास्तव में पुस्पानी पवार गोकमा केपन कोहप भी कर सकता है 1परि पेसा / कायाप पिप्पा पिना कमी से पर्म माप्ति हो सकती है। इस प्रम के समापान में कहा जाता है कि धर्म माहितो नाम -
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________________ AMREKAXX RExamxxx.xxx.xomxxxnx R Awarenzeneurs xEOXXHA EXERXRAAKAKKARAOKAARRAAT ( 106 ) क्षायिक वा क्षयोपशम भाव से होती है नतु कर्मोदय से। हां, शुभगत्यादि की प्राप्ति शुभ कर्मों से होती है अशुभ गत्यादि का प्राप्ति अशुभ कर्मोदय से हो जाती है। किन्तु धर्म प्राप्ति ताप्रायः क्षायिकोपशम भाव पर ही निर्भर है। अतःप्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि वह श्रात्मा को पण्डित बाल वीर्य की ओर ही लगावे जिस से आत्मा उक्त वीर्य से कर्म क्षय करने में समर्थ होजावे। . अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वीर्य कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि वीर्य आत्मा का निज गुण है और वह एक रसमय है किन्तु कर्मों का श्रात्मा के साथ सम्बन्ध होजाने के कारण से वीर्य तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-१ पण्डित वीर्य 2 वाल वीर्य और 3 वाल पण्डित वीर्य / पण्डित वीर्य का / यह मन्तव्य है कि सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान द्वारा जो के क्रियाएँ की जाती हैं उन क्रियाओं के करते समय पण्डित वीर्य होता है, जो कर्म प्रकृतियों के क्षय करने में अपना सामर्थ्य रखता है / क्योंकि पंडित वीर्य की क्रिया सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने से कर्मों के क्षय करने में सामर्थ्य रखती है। श्रय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वे सम्यग् क्रियाएँ कौन कौन सी हैं जिनके करने से कर्म क्षय किये जा सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वाध्याय और व ध्यान-ये दोनों ही क्रियाएँ कर्मों के क्षय करने में समर्थ हैं। स्वाध्याय पाच प्रकार से वर्णन किया गया है / जैसे कि 1 वाचना-सत्यशास्त्रों का पढ़ाना और पढ़ना / 2 पूछना-जिस m NARAY -v -more---- . xxxAXIMRXXnxexcomxxxxxxxaaaxnaye
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________________ मनमा :ERE : ( 11.) विपप की शका रस विपप के मिर्षपार्य प्रमोत्तर करणे।। 2 परिवर्तना-गो पूर्य पाठन किया मा चुकाबोरसकी अनु : पति करना / भनुपेचा-मिस मनुमब मारा पदापों का नाम Mफरना।५ पर्मकथा-पोपदेश देना / मिस कपन समबोध मापियों को पर्म तत्व का पोष खाए उसे ही धर्म कपा काते। इस प्रकार करने से मारमा विकास माष प्राप्त कर लेता है। अब मन पाखाफिममुमेशा किसे कहतेस . माके रचर में कहा जाता किमनुताबाररमकार से पर्दा की गई ।से कि२ १मनिस्पानुप्रेता–स पाठ का भनुभव करते राना बिपापम्मान पुरस म्प की पर्याप ये सब भनित्प, बेपनी मारुति में नहीं सकती। से ममुम्मी की: H पर्याप को मीनिये / बाम युषा और पर मबस्थामौकामामा M फिर रोग शोफ पियोगादिकारण से शरीर की पर्यायों का " परिपतन दोगाना। इमी प्रकार पनादि पायामा पार्ष: सब अमिपाइसी प्रकार की अनुमेशा से सम्प से ममत्व माप का परित्याग परमा-पानी परिपामुमेचा। २भगरपानुमेसा इस प्रकार की भाषमा रत्पत्र करमा / ससार में इस माही का कोई कही / मिस मावीको निजकर्मानुसार यो मुल पा पण ममुमब करना परता. रस को पड़ी मापी मनुमगर सकता माप मावीमा। तया स्पर्म डी गाम का रीमतु मम्प पवार्य सत्पु समय सिबाय धर्म के प्रम्प कोई मी सहायक नहीं बनता। प्रतायो arIFA . . ===EDERS --सम्पEESEX मरम्मत --
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________________ RAERATREEDOXxxxलर hrrr-DACES ( 111 ) पाणी धर्म छोड़ कर किसी अन्य के शरण की इच्छा रखता है, वह निज वोध से अपरिचित होने के कारण दुखों का ही अनुभव करने वाला होता है। 3 संसारानुप्रेक्षा-अनादि काल से जीव संसार चक्र में परिभ्रमण करता चला आरहा है। जिस प्रकार एक अटवी म रहने वाला जीव अनाथ होता है ठीक उसी प्रकार यह में जाव भी ससार में अनाथ हो रहा है और जन्म मरण के ससार चक्र में नाना प्रकार के दुखों का अनुभव कर रहा है। अनादि संसार चक्र है अनादि काल से ही जीव इसमें घूम पा रहा है। 4 एकत्वमावनानुप्रेक्षा-चास्तव में जीव अकेला ही है। जो संसार में वाजिशाला, हस्तिशाला, वृषभशाला, गोशाला, श्रादि की ममता करता था तथा यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पुत्र है, ये मेरे सम्बन्धी हैं, ये मेरे घनादि पदार्थ है-इस तरह / यावन्मात्र पदार्थों का ममत्व भाव करता था जव मृत्यु का समय आगया तव सव वस्तुओं को छोड़ कर प्राणी अकेला न ही परलोक यात्रा के लिये प्रयाण कर गया। इस से स्वतः ही सिद्ध हो जाता है वास्तव में जीव अकेला ही है। इसलिए इस भावना द्वारा ममत्व भाव दूर करना चाहिए। 5 अन्यत्वानुप्रेक्षा--इस बात की अनुप्रेक्षा करते रहना कि शरीर अन्य है और जीव अन्य यदि शरीर पर भयंकर रोगादि का आक्रमण हो जाए तव व्याकुल चित्त को इस अनुप्रेक्षा द्वारा शान्त करना चाहिए और साथ ही इस बात का भी विचार करते रहना चाहिए कि यावन्मात्र सम्बन्धियाँ FFICICIPALIENSARDARA PERAXXXXXEEXXXCKERAIEXX KRISKorexxxxxESXXEXICAEX
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________________ पEDuraATE: HIL.COM प्र समाप मिला मा पा सरसी प्रकार निस : मकार पनि मिपास के सिपे पास पर पड़ी पापित होगापास्तप में, मैं धमकान मेरे।। M मराम्यनुमेशा-परशारीर मामा का कोयी इस का कोई भी ऐसा भषयमनही जो सरेप पवित्रा सकता है।बामारुति देय करीम पर मोदित नोना पाहिए / परम समीतर की पया देखनी मारिए। जिस प्रकार पर गरीर मम मम का कोप है उसी प्रकार रोमों का मी भासपासककोई रोग मान नहीं मा तब तक पद पप्या भौर सम्बर लगता है फितु रोग के प्रकरसोगाने। पर इसकी पापाहति भी बिगड़ती इसलिये इस पर पर ममत्व मापन करना चाहिए / सपा इसको दुर्गम्पमय गान कर मास्मा का सम्पम् न सम्पप जान पीर सम्पा पारिक मारा प्रस्त करना चाहिए जिस से निर्वाव पर की र प्राप्ति हो सक। भावानुवा-मिस प्रकार पर का पारप तन्तु परदा मत्तिका धीर वपापालिका कारण यस का पीबी ठीक रसी प्रकार कर्म मूस मिपावरे। मिस प्रकार मरोगे समायु प्राता है तराग की मसानी से वसाप में समाता है इसी प्रकार प्रमावसे कर्म भावे, मिस प्रकार चोर रात्रि में मन कारणपरते। ठीक पसी प्रकार क्रोष मान मापा भीर बोम मारमा के पब कारपकर सवे तात्पर्य पाकि मिप्पाप अधिरवि ममाष पाप और पोगरे, हमारा भारमा के प्रदेशों पर कौनपरपाता है। TEIPIEBBELEEF.g त- Fuarees
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________________ Lexicxxxxe PATELaxmaya.IMATLADY TEXA ( 113 ) अतः इन से निवृत्त होने के उपायों का अन्वेपण करना चाहिए। ८संवरानुप्रेक्षा--जिन जिन मार्गों से कर्म आते थे, उन उन मार्गों के सम्यग् चारित्र द्वारा निरोध करने को सवरानुप्रेक्षा कहते है / जैसे कि एक के लिखे विना विन्दु शून्य होते हैं, सूर्य के विना नेत्र कुछ काम नहीं कर सकते, जल वा प्रकाश के विना कृषक कुछ काम नहीं कर सकते, इसी प्रकार / सम्यक्त्व के विना विपुल तप भी कार्य साधक नहीं होता / a वह धन किसी काम का नहीं जिस से सुख की प्राप्ति नहीं होती, वह सुख भी किसी काम का नहीं जिस के मिलने पर ! संतोष नहीं आता, वह संतोष भी प्रशंसनीय नहीं है जिस से बत धारण नहीं किये गए और वह व्रत भी श्रेष्ठ नहीं है जिसका मूल सम्यक्त्व नहीं है / इसलिये प्रत्येक प्रत का मूल सम्यक्त्व रन है। इसके धारण किये जाने के पश्चात् फिर सर्वव्रती वा al देशव्रती चारित्र धारण करना चाहिए, जिस से कर्म आने के # मार्गों का सर्वथा निरोध किया जा सके। निर्जरानुप्रेक्षा-प्राचीन कर्मों की निर्जरा करनी चाहिए क्योंकि जब तक वे पूर्वकृत कर्म क्षय नहीं किये जा सकेंगे तब तक आत्मा कर्मों से सर्वथा विमुक्त नहीं हो सकता। किन्तु कर्म क्षय करने में सकाम निर्जरा ही सामर्थ्य रखती है नतु अकाम अर्थात् सम्यक्त्व पूर्वक क्रियाएँ ही कर्मक्षय कर सकती हैं नतु मिथ्यात्व पूर्वक / अतएव शानपूर्वक सांयमिक फियाओं द्वारा कर्मक्षय कर देना चाहिए, जिस से आत्मा निर्वाणपद की प्राप्ति कर सके। PoranxxxxxxxXwxxnxxcx Xxxxxxxx Xxxxxxxx
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________________ REME-FREEEEEEEE. 10 बोकानुप्रेक्षा-पाजगत् पम अधर्म माका कार पुमस भीर सीप--दमक पदापों का समाप है। इसके तीन दिमाग -अपोलोड, मप्यतोष और कर्मसोफा तीनों लोकों में माली अपमे फिर फोक फलों को भोयते " सिस प्रकार प्रपोलोक के भम्तिम माग में सात नरक मे शीव परम पुरुषों को मोगते ही उसी प्रकार जीव कर्मसोक के पश्विम माग में प्रत्यम्त सबों को मोपते।। तीन सोगों की प्राति की अनुमेधा करना भीर सापको जीपों की जिस प्रकार से लोक में गतागति होती है उसका भनुम करना-पसी कामाम तोकानुप्रेशा। मोर फिरस बात का भी प्पान रखना चाहिए कि यह संसार मदिसी में बनाया है और मासका कमीमाय रोगा। पर अनादि ममत पर सदा इसी प्रकार रोगा। ११पोभिदुर्तममापना-जीप को इस ममापि सप्तार 74 में प्रमण करते एए प्रत्येक वस्तु का संपोग समपूर्वक मिल सकता है किन्तु दोष का मिसमा अस्पम्त धर्मम स्योंकि पति अस्पात पुम्प प्रमाण से सीब को ममुप्प सम्म की मामी की प्राप्ति भी आप तो पिर बोम पीरका " प्रास होना अस्पम्त दी जयोपशम माप का मरण माममा पाहिए / सर्व पदार्य पसपिनावरग्नुि चोप पीसदी मामा को भचप पर की प्राप्ति कराने में सहापाता। 12 पर्मानुमंता-पापग्मा शारीरिक, मानसिक व्या " मामिक वनमा पर्म सेदो पाप होम पोकि धम एक सामीपमा पालापरब पर्म की Far-F-METFIRESEREEXE
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________________ -LATERAS X XXXXREEL. ( 115 ) - बुद्धिपूर्वक परीक्षा होनी चाहिए / वास्तव में सम्यग् दर्शन, सम्यग् शान और सम्यग चारित्र रूप ही धर्म श्रात्मा को आत्मिक सुख प्राप्त कराने वाला है। धर्म के श्राश्रित होकर ही जीवन व्यतीत करना चाहिए, जिस से अक्षय अानन्द की प्राप्ति हा सके / इस प्रकार 12 अनुप्रेक्षाओं द्वारा पण्डित को वीर्य के साथ कर्म क्षय करने चाहिएँ / यदि ऐसे कहा जाए कि ये तो कसमझा गया है कि इस प्रकार की अनुप्रेक्षाद्वारा कर्म क्षय किये जा सकते हैं किन्तु वह ध्यान कौन सा है जिस से कर्म क्षय किये जा सकते हैं ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता प्र है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं द्वारा न पहले मन की शुद्धि कर लेनी चाहिए क्योंकि मन करण है जो कर्ता की क्रिया में सहायक बनता है / जिस प्रकार शीत, स्वच्छ, निर्मल, और मधुर जल प्यास को वुझाने में समर्थ होता है ठीक उसी प्रकार स्वच्छ और निर्मल मन भी समाधि a क्रिया में सहायक वनता है / जिस प्रकार जल में लवण लीन हो जाता है उसी प्रकार स्वच्छ मन भी समाधि में लीन हो जाता है। कारण कि मन का निरोध करने से फिर सव पदार्थों का निरोध किया जा सकता है अर्थात् जिस ने मन को वश किया उस ने सब को वश कर लिया। मन की शुद्धि किये जाने पर फिर सव कलंक दूर हो जाते हैं क्योंकि जब मन राग और द्वेप में प्रवृत्त नहीं होगा तय फिर वह अपने स्वरूप में ही लीन हो जायगा / अत ध्यान धाले पुरुष को / योग्य है कि वह सय से पहले मन पर विजय प्राप्त करे जिस से फिर उस के अन्त करण में समता भाव का संचार हो Sermswaromanswww ..wireTRAR DIREXITERARExerence KoxxxAYEXXXXIGERATIXIISE
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________________ OEBQBG05Y. सा। भारमा समता माव वारा कमी का नारा कर सकता म समता मापसेही मास्मिक तस्वों का मसी प्रकार निएप कर / सफता समता मात्र से ही मिस स्वरूप में निमम : सकता है। जिस प्रकार प्रपर मग्नि हिमालय पर्वत पर वाले दिम (बर्फ)का रुप मी नही पिगार साता अंक पसी प्रकार समता वाले पति का नामा प्रकार से होने वात उपसम (कर) मी काही पिगार साते। मता योगी पुरुष रोपोम्प है कि पर समता माप का मामय प्राखरे विप्स से म्यान की एता परे। समता पार करने वाले म्पति का राम ऐप भीर मोर मानिशा परामप महीं कर सकते। जिस प्रकार रूप और रस aa परस्पर सम्मापद यफ उसी प्रकार समता माप और ध्यान का भी परस्पर सम्पम्प / समना मावमाभित पानावस्था भीर प्यानावस्या के मामित समता माप होता है। मरपा मारपस्थित होतापान सिमे प्रकार से पर्गन किये गए इस मन का उत्तर पो मुम्पतपा पान बार मेर बनरिपे गए।से कि-मार्च म्या 2 रौद्र पान / धर्म ग्याम भीर म्यान १पा पान उसे करते है जिससे विम्याकी उत्पत्ति विशेष पर गाय / पोलिभिप पापों का रियोग भोर अप्रिय पापीका सयोग होता प चिता भीरकपर प्रात। गैर पान मे का जिससे (माप) जीपों के, , भिए दानि पिपार सपा किये जाय तपा मन में मरा FEMIERF LIFIERERED.EFER E EEEEEE
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________________ ENACEATREmxxxmARKanxमन्यार ( 117 ) यही विचार रहें कि कोई भी व्यक्ति मुझ से बढ़ न जाय तथा लव व्यक्ति मेरे ही अधीन रहें / इसलिए ये ध्यान त्याज्य हैं, / क्योकि इन ध्यानों के कारण से जीव ससार के जन्म मरणों की वृद्धि कर लेता है। 3 धर्म ध्यान उसे कहते है जिस से पदार्थों के स्वरूप का यथावत् विचार किया जाय और श्री भगवान् की आशा का पालन किया जाय / इतना ही नहीं किन्तु अनित्यादि अनुमक्षा की संसार से निवृत्ति की जाय तथा जिस प्रकार ससारवन्धन से मुक्ति (छुटकारा) हो सके, उस प्रकार की भावनाओं द्वारा आत्मा को निर्लेप किया जा सके। 4 शुक्ल ध्यान उसे कहते हैं जिसके द्वारा मानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-इन चारों घातक के कर्मों से विमुक्त होकर केवल ज्ञान और केवल दर्शन की प्राप्ति की जा सके। इन का सविस्तर स्वरूप जैनागम और जैनयोगशास्त्रादि से जानना चाहिए / यहाँ पर तो केवल दिग्दर्शन मात्र ही कथन किया गया है। योगी श्रात्मा पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-इन चारों प्रकार के ध्यानों से आत्मा की विशुद्धि करे / किन्तु इस बात का भी हृदय में विचार कर लेना चाहिए कि ज्ञान और वैराग्य ये दोनों क्रियाएँ यदि स्थिर होंगी तब ही ध्यान में स्थिरता बढ़ेगी। यदि व्यक्ति ज्ञान और वैराग्य को छोड़ कर ध्यान की स्थिरता चाहता है तो वह सेना और शस्त्रादि A छोड़ कर शत्रु पर विजय प्राप्त करना चाहता है तथा जिस FaceTRArtiorewan- KIRAIMAXIRE ORASERIEDIODAIEOXOXOXOXOEXTERY GreeXIERICAXEREOREKHUS में विस्थिर सग्य सादि RXICAXIA
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________________ E BE-स्तामा ( 118 ) प्रकार पन से हीन म्पतिपम्पापार पर की पा रहता पा विधाहीन म्पति पिग्मएरवी में विधवशिरोमपि पा की हवा मतापसी प्रकार बाम और राम्प से परित व्यक्ति प्यान की सिदि की इप्पा बताता पोगी भास्मारे मन में पान और पैराग्प प्रपश्य होने पारि, मिससे परमपमे कार्य की सिद्धि कर सके। भर मन पर उपस्थित होता.लिम्पान किस स्थान पर करना चाहिए ! इस प्रम के उचर में का साधा है कि पपपिशित स्थान परस्सी पथ परफ(मपुसफमराठेहमीर मिस स्थान पर मनोचि मसी प्रकार से निरोप किया या सके वास्तव में पही स्पाम उत्तमसपापि सापर के समीप पर, पर्वतशिनर, मदीतर पुष्पपारिका, कोट, पसमूह मदीसंगम पीप एपमूस गीर्योपान स्मशान गुहा भूमिएर कपसीवन पा करमीण रपवन इत्यादि निम स्पानों में ममोति भली प्रकार से निरोपमा सफे और मन की प्रसपता रा सके ही पान करने के पोम्प। स्पाम है। अब यह मन भी ग्पस्थित होता जिस पोम्प स्थानों की प्राप्ति होई तो फिर किस किस मासम पर पान अपाना पाहिए / म प्रमोत्तर में कहा जागफिशित प्राप्त पर मनोति स्थिर रासकरसी मासन पर बैठकर पान सगामा पाहिए / पपपि समापि के लिए पपंचालन प्ररंपर्यं कासन पशासन वीरासन इत्यादि भनेक प्रचारासमो का पर्सम किया गया तपापि मिस मिस मासन में सब IEEE पवन SINGE
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________________ SHREE RExxaxxxxesxexxxxaoranexexe NEERICANTIBICHARIEETराय ( 116 ) पक उपविष्ट व्यक्ति अपने मन को निश्चल कर सकें, योगियों को यही सुन्दर श्रासन स्वीकार करना चाहिए / श्रासन की प्रदता धैर्य और वीर्य पर ही निर्भर है, अत धैर्य और शक्ति / पूरक आसन जमा कर बैठना चाहिए जिससे फिर ध्यान में मुद्रा धारण कर सके। जैसे कि पर्यङ्कदेशमध्यस्थे प्रोत्ताने करकुड्मले / ___ करोत्युत्फुल्लराजीवसनिमे च्युतचापले // 1 // . अर्थ-(पद्मासन बाँधकर) अपनी गोदी के चीच में नाभि / के समीप दोनों करकमलों को निले हुए कमलों के समान उत्तान करके चञ्चलारहित (स्थिर) रक्खे // 1 // नासाग्रदेशविन्यस्ते धत्ते नेत्रेऽतिनिश्चले। प्रसने सौम्यतापने निष्पन्दे मन्दतारके // 2 // अर्थ-जिन की पुतलियाँ (तारक) सौम्यता को लिए हुए स्पन्द रहित प्रसन्न तथा प्रतिनिश्चल हुए हैं, ऐसे दोनों नेत्रों को नासा के अप्रमाग में स्थिर रक्ने ||2|| भ्रूवल्लीविक्रियाहीनं सुश्लिष्टाधरपल्लवम् / सुप्तमत्स्यहदप्रायं विदध्यान्मुखपङ्कजम् // 3 // अर्थ-भौह विल्कुल विकार शून्य हो, दोनों होंठ सुश्लिष्ट अर्थात् न तो स्नुले और न अति मिले हुए रहें, इस प्रकार सोई हुई मछलियों वाले शान्त सरोवर के समान मुख कमल को सुस्थिर रक्ने ||3|| इस प्रकार से ध्यानाकृति किये जाने के अनन्तर ही ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए / अव प्रश्न यह उपस्थित होता म
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________________ --EERH उIEEETFECIPE-.- नम्म्म्म्म्ममERE ( 120 ) है कि प्यान किस प्रकार से करना पाहिए! समरत्तर में कहा शावाकिमपम प्रापापाम द्वारा मन की एकाप्रसा कर सनी चाहिए, मिससे शीघ्र ही भारम स्वरूप में लीन हो सके। मापापाम तीन प्रकार से पर्यन किया गया जिसे किपूरफ कुमक और रेषक / पूरफ उसे का सोनाश भगुण यमास बाहर से वायुनीयर शरीर में पूर्ण करता / योस पूरक पवन को स्थिर करनामिकमम में पदे को जैसे भरे रसी प्रकार रोके (मि) नामि से भम्प अपापसमेनपार्कमक मायापाम कमागावा और गोमपम कोरफ से पवन को मति पक्ष से मंद मंद बाहर निकाले उसे पवनाम्यास के ग्रामों में विमानों में रेचकपा इस प्रकार प्रम्पास से सब मन की पकामता गाय, तब भपने मम्ताकरप से पुमा सम्पन्धी राप प पंप रसमौर स्पर्श से प्रारमा को प्रपर रहेमा पाहिए / इतना ही नही किन्तु फिर कास मन मारा पर विचार करना चाहिए कि देको परसा मायकि मेरा मारमा प्रमात राभिशासी होता मा मी कर्मों के पर से किस प्रकार पीपीन पशा को प्राप्त हो पापीर राग पपग्रीमतदोपर नाना प्रकार के करों को मोग मता प्रब मुमे पोम्प कि में सम्पम् पर्यन र मिन मारमपी पर्ने / पोषि पानी पुरुष सब तक म्पय पर मार नहीं वपतका समाधि में भी सीन नहीं सकता। भय प्रम पर परिपत होता कि ध्येय किसे करते। स प्रम के समापान में कहा जाने mi
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________________ (121 ) करने योग्य होता है उसे ही ध्येय कहते हैं / यह ध्येय दो प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे कि चेतन और जड़ चेतन द्रव्य में सभी चेतन ग्राह्य हैं और जड़ में धर्मास्ति काय, अधमोस्ति काय, आकाशास्ति फाय, काल द्रव्य और पुद्गल द्रव्य- इनको भी ध्येय बनाया जाता है। सब स पहले श्रात्मदर्शी बनना चाहिए जिससे सर्व शान की प्राप्ति द्वारा लोकालोक को भली प्रकार देखा जासके। जस कि यह श्रात्मा अजर, अमर, अक्षय, अव्यय, सर्वेश, सर्वदर्शी, झानात्मा से सर्व व्यापक, अनन्त शक्ति वाला और अनन्त गुणों का आकर है। इस प्रकार ध्यान से विचार al करे कि मेरी तो उक्त शक्तियाँ शक्तिरूप हैं किन्तु सिद्ध परमात्मा की ये शक्तियाँ व्यक्तरूप हैं। अणोरपि च यः सूक्ष्मो महानाकाशतोऽपि च / जगद्वन्धः स सिद्धात्मा निष्पन्नोऽत्यन्तनिर्वृतः॥१॥ अर्थ-जो सिद्ध स्वरूप परमाणु से तो सूक्ष्म स्वरूप है और आकाश से भी महान् है, वह अत्यन्त सुखमय, निष्पन्न सिद्धात्मा जगत् के लिए वंदना योग्य है // 1 // इस प्रकार उसके ध्यान मात्र से ही रोग शोक नष्ट हो जाते है हैं तथा उसके जाने विना सव अन्य जानना निरर्थक है / अत. उसी को ध्येय बना कर उसमें ही लीन हो जाना चाहिए / इसलिए यह बात तभी हो सकती है जब श्रात्मा बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप को भली प्रकार जान ले / जैसे कि श्रात्मा से मिन्न पदार्थों में आत्म बुद्धि का जो होना है PEXXXnxx XXXMRAKARXxxxxxARXXRAxwwXCAREIMEXICAL
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________________ --- - - एनना ---- सन्यायाम ( 122 ) पहीमारियरमा रे। किन्तु जिस पुरुष ने पाम भावोंघापन फरसे भारमा में ही मारमा का निमय दिया, विमम रूप अम्पकार तर करने में सूर्य के समान उस मारमा याममे पास पुरपो मेरसी को प्रस्तरारमा मामि यो मिलेंप निपक राय तहस्प प्रत्पम्त नित मोर, निर्षिफरपी इस प्रकार के गयारमा को परमात्मा कड़ा गया। है। पोगनिए मारमा परमारमा को पेप बना कर फिर उसके स्वरूप में उम्मप से जाना चाहिए। क्योंकि उस का प्पान यही होता किमो पासोमो में सो पर है जैसे कि सोमम् मईसा इस प्रकारकमम्पास से प्रास्मा सम्मप हो जाता है। कारण किमास्मसमाधि पास्तव में मुग का कारण होती है किन्तु प्रारम समाधिपासम्पतिको योम्प हैकिपर सबसे पहले पन्द्रिों का सपम पीर मोबन का कि भपरप पर सेवे / कारण कि अब माहार का विवेक रहेगा तब समाधि में माया कोई मी चिम्म ग्पस्थित नहीं हो सकेगा। भप प्रम पहपस्थित होताtoफिन किम पारणामों मापसमाधिस्प होना चाहिए। इस ममरत्तर में कहा जाता है t-1 पार्पिषी पारखा 2 मानेपी पारखा मास्ती पारा पारही पारपा भीर र तत्सरपवती पारपान पाँची। पारणामों मारा मनोति पकान करके भात्म स्वरूप का चिंतन करना चाहिए तथा इन धारणामों द्वारा मारमतीन माना चाहिए। परि ऐसा कहा जाए कि इन पारनामों की संप से, समान - LEGEF=टाग -- -- -
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________________ Xxxxxxi KARAMICHKIRATRAKARMIX3 ( 123 ) व्याख्या किस प्रकार से की जाती है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि इन धारणाओं की संक्षेप से व्याख्या इस प्रकार जाननी चाहिए। 1 पार्थिवी धारणा-तिर्यक् लोक में क्षीर समुद्र का चिन्तन करके फिर उसके मध्य भाग में एक सहस्त्रदल कमल का चितन करना चाहिए फिर उसकी कर्णिका के मध्य भाग म एक सुवर्णमय सिंहासन का चिन्तन करना चाहिए फिर उस श्रासन पर स्थित होकर निज श्रात्मा का चिन्तन करना चाहिए / जैसे कि मेरा ही आत्मा रागद्वेष के क्षय करने में समर्थ है और यही प्रात्मा परमात्म गुणों से युक्त है इत्यादि विचार करने से पार्थिवी धारणा का स्वरूप माना जाता है। इसी को पार्थिवी धारणा कहते हैं। 2 आग्नेयीधारणा-नित्य अभ्यास करने वाला योगी अपने नाभिमण्डल में सोलह दल वाले कमल का चिन्तन करे फिर उन दलों में अकारादि सोलह वर्ण मात्राओं को स्थापन करके फिर मध्य कर्णिका में 'आहे' शब्द का चिन्तन करे / इतना ही नहीं किन्तु हृदयस्थ कमल जो आठ दल वाला है उसके * आठों दलों में आठों कर्मों की मूल प्रकृतियां मानों 'अहम्' शब्द से निकलती हुई प्रचंड ज्वाला द्वारा उन कर्मों को भस्म कर रही हैं इस प्रकार से चिंतन करे / इसी का नाम श्राग्नेयी धारणा है। 3 मारुती धारणा-फिर योगी इस बात का विचार करे / a कि जो पाठ कर्मों की वा शरीर की भस्म है, उसको महावायु वेग उड़ा रहा है और फिर उस भस्म के उड़ जाने से श्रात्मा निर्मल और परम पवित्र हो गया है तथा उस वायु EATHEY AREAKEREXITICE MRODXXXXXXDIXYOXEXEXMEAKERXNCM TERTAIEXXX
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________________ मगम म ( 194 ) fill पेग को स्पिर सप चितम से शान्त कर ले। * ४माम्सी पारमा-फिर पोगी महामेप का पिठन करे स किपा मेमपाप कर्म जो पोती और भारमा को कर्म फलंक से विमुक्त करके राय पना रही है। इसी का + माम पाल्पी पारखी। 5 तत्परूपमती पारपा-स पारवा का या मम्तम कि मारमा प्रयोगमा तो पिरग्सी राग भारमा का म्पान करना चाहिए। जैसे कि कम सिासन पर बैठेप विचार करे कि पहरी मेप मारमा सर्या साशी सर का उपास्पदप अगर प्रमर परमात्मा मोर परमेम्बरसी 2 प्रकार के प्यानको वतापपती पारपा कावे। इसी का म नाम पिपडस्प प्पान है। अब पिरस्म म्याम का अम्पास मती प्रकार से माप तब / फिर नामिमंगल में सोमा समाते ममपसकी स्थापना करके फिर सन पलों में परमाता के पों की स्थापना करनी चाहिए / फिर उसके मध्य माग की किरशिप में एक सुन्दर सिंहासन की कल्पना करणे फिर स पर मारो कर मोम् मम्' 'सोअम्' इस्पारि पदों का ध्यान करना पाहिए तपा प्रत्यय वासोवास रे साप 'मान् ऐसा शाप पार करना पाहिए / इस पद के प्यान से मिशास की मा मनोकामना पूरी हो जातीभिता परसम्पाना यी विषय है कि भमुष्प्रमुफ पदो से अमुक अमुक कार्प की सिदिह गाती है। इसलिये इस म्पान को परस्प प्यान परत है। पन्सम्याउन 8 - L
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________________ AREEREYMSTEMATTER Hamrtmne IMRATAXXCREE Conno) K IRamrewareAXONACEASEAN रूपस्थ ध्यान-पूर्ववत् सिंहासन पर बैठ कर श्रीभगवान् जिस प्रकार समवसरण में विराजमान होते है, उनकी प्राकृति का ध्यान करना और उनकी बढ़ती हुई आत्मिक लक्ष्मी का अपन अनुभव से अन्वेपण करना, उन की अनुपम अतिशय का धान करना-इसी का नाम रूपस्थ ध्यान है। तया जिस गुरु से धर्म प्राप्ति हुई है वा जिस प्रकार गुरु के गुण शास्त्रों में कथन किय गए है, जो उन गुणों से युक्त है, वास्तव में वही गुरु है, उसका ध्यान करना चाहिए। उस ध्यान का आनन्द उसी ध्यानी की अनुमच हो सकता है नतु अन्य को / सो इसी का नाम / रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत ध्यान-उस का नाम है कि जव ध्यान करने वाला योगी ध्येय में ही लीन हो जावे, जैसे कि-ध्याता, ध्येय और ध्यान / जव योगी ने परमात्म पद का ध्यान किया तब उस का श्रात्मा उसी पद में लीन हो गया / जिस प्रकार आत्मा में विद्या लीन हो जाती है, उसी प्रकार जव ध्याता ध्येय में लीन हो गया तब उस ध्यान को रूपातीत ध्यान A कहते हैं। इसी ध्यान से श्रात्मा परमपद प्राप्त कर सकता है या यों कहिये परमात्म पद में लीन होकर परमात्म संझा // वाला हो जाता है। इस प्रकार की क्रियाओं से जो श्रात्म शुद्धि की जाती है उसी का नाम पंडित वीर्य है तथा इसी के प्रतिकूल प्रात ध्यान वा रौद्र ध्यान की पुष्टि के लिए जो on क्रियाएं की जा तथा हिंसा, भूठ, अदत्त मैथुन और परिग्रह के संचय के लिये जो पुरुपार्थ किया जावे उसी का नाम A बाल वीर्य है। और जो गृहस्थ धर्म की युक्तिपूर्वक आराधना FAmarAXAXERXN- INHEMAKERYXY
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________________ --मजान - की जा सकती। एसी कोवास परितपीसते पपोषि र इसमें कियामों की प्राति और नितिनोमानीपानाती इसी फारस से इसे पास पंरित पीय काते हैं। भवर सिस मा फिमापसी कर्म करता है और मापही सफर "को मोगता तथा पापही कमी से परफर मोक्ष परमास कर सम्हाले। मिर्पयानिकमा लिमोर गुप बने मे कमी से पुरुपा बसवान् / --- - ------ SHपना
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________________ FREE RAEXERCrnराला मामलXxinानमालाAGOK EiRLAXMARAT HARXMARATEXCARRESAXRAPARXX दशवाँ पाठ (मोहनीय कर्म के बन्ध विषय) प्रिय पाठको ! अनादि काल से यह जीव अज्ञानवश नाना प्रकार के कमी के करने से नाना प्रकार की योनियों में नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता रहा है और फिर अपने निजस्वरूप को भूल कर पर स्वरूप में निमग्न हो रहा / हैं, जिसके कारण से उसका श्रात्मा परम दुःखित और दीन माव वाला दीखता है। ये सव चेष्टाएँ इसके अज्ञान भाव की / है / अत शास्त्रकारों ने सव से प्रथम शान को मुख्य माना है क्योंकि जय श्रात्मा ज्ञान युक्त होता है तब उसका अज्ञान आत्मा से इस प्रकार दूर भागता है जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार भाग जाता है। इसलिए सब से प्रथम विद्यार्थियों को उन कर्मों के विषय में वोध होना चाहिए, जिनके A करने से प्रात्मा महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है। श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जनता के हित के लिये समवायांग सूत्र के 30 चे स्थान पर उन तीस कर्मों का / वर्णन किया है, जिनके करने से जीव महा अज्ञानता के कमाँ की उपार्जना कर के संसार चक्र में परिभ्रमण करता है। अतः तं वे कर्म न करने चाहिए। श्रय पाठकों के योध के लिये सूत्र सहित उक्त 30 अंक लिखे जाते हैं KHET ATOMAADIMomanKASumms
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________________ - - परजायनाम: ( 128 ) पासा महामोरलीप विपप खे या पिवसे पाखे पारिमन्मे विगादिया। उदराण फम्मा मारेइ महामोई पकुम्बा // 1 // प्र-यो कोम्पतिसमापियों को सह में यो पर मस म्प शमसे मारता है महामोहनीय कर्म की रपाना करता है। दूसरा मरामानीय विषय सीसावरेय में कई प्रमिक्सर्स मावेय। तिम्घासुमसमापारे महामोई पम्पा // 2 // सर्प-परिकोई पशि किसी सम्पति के शिर पर : प्रतियप युक्त पीहा पर्म मापेएम करताभीर पिरतीय प्रथम समापार स उसको मारता पर मारने पासा म्पति / महामोहनीप कर्म पापवा। नीपरा मदामोहनीय विपप पारिमा संपिदिचाणं सोपमापरिय पाणिगं / मंतो नदत मारेर महामोहे पप्पा // 3 // अप-यो पाप म किसी मासी के मगोप कर गो से मग परत ए का (गमा पाट कर) मारता है पर मारा - मानीय मी पासमारतारे। दीपा महामानीय पिण्य सापत पं समारग्म पर भारमिया मम / अंना मग मार माामा पकुप्पा॥५॥ / मर्य प्रालिका प्रम्पमित समान नामों का महा: -----FEEHEREBE-- मनमexFERE. HEEDFOमामा
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________________ (-AVA wwar Kareena ( 126 ) मंडप वाटादि में रोक कर भीतर घेरे हुए प्राणियों को धुएँ से मारता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। ___ पाँचवॉ महामोहनीय विषय / सिस्सम्मि जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा / विभज्ज मत्थयं फाले महामोहं पकुबइ // 5 // / अर्थ-जो व्यक्ति संक्लिष्ट चित्त से किसी प्राणी के शिर पर महार करता है और फिर मस्तक का भेदन तथा ग्रीवादि का विदारण करता है, वह व्यक्ति महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है। छठा महामोहनीय विषय पुणो पुणो पणिधिए हरित्ता उचहसे जणं / फलेणं अदुवा दंडेणं महामोहं पकुव्वइ / / 6 / / / अर्थ-जो वारम्वार छल से मार्ग में चलते हुए को मारता है तथा मूर्ख श्रादि को फल से वा दंड से मार कर फिर उन की खूब हँसी करता है, वह महामोहनीय कर्म को बांधता है। सातवॉ महामोहनीय विषय - / गूढायारीनि गूहिज्जा मायं माया' छायए / , असंचवाई णियहाई महामोहं पकुन्बइ / / 7 / / अर्थ-जो अपने गुप्ताचार को छिपाता है, छल को छल से / आच्छादन करता है, असत्य बोलता है और अपने अवगुणों को छिपाता है, वह महामोहनीय कर्म वाधता है।'' FREEEEEEEE KREYE XNXIEXXIHAR R IXEEXAMRAKARMEXICCAREL
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________________ Anासनमामला ( 130 ) पाठयों महामोरनीय पिपप / / भेसद जो अभएवं भाम्म अचम्मया / / मदुरा धर्म कासिपि महामोई पहम्मद 410 भर्य-यो अपने किय परकर्म विपाता जिसो / दुए कर्म नहीं किपा रस के गिर पर सेंक देवा मी कासादिरेतुने उक कर्म पिया इस प्रकार करने से , पा महामोहनीय कर्म को पांभता है। नों महामोहनीय विषय जायमागो परिसम्रो सपा मोसामि भासा / अम्लीयममे पुरिसे महामोई पम्पद ह॥ मर्प-मस्य भीर प्रमत्य को मानता मा भीमो समा र में मिमिठ मापन करता है तपा मोफसर से मी मिाप महीमा पर पुरष महामोहनीय कर्म की उपासनासरता। परापों मामोहनीय विपप भगापगस्स नय पारे वस्से पसिया। पिउहं विस्खोमाचार्य कियास पनि बाहिरं // 10 // उबगसवपि झपिचा परि सोमादि गुस् / मोगमोगेपियारेइ महामोई पहम्मद // 11 // अर्थ-जो नीतिकाल मंत्री रामा कीरापी से मोय करता सराशा मर्यागम के मार्गी पोर परके भाप समो * का अनुमब करता है मम्प सामवादि में मर रामर राशा का पित पुराध कर राम्पसचा का स्पर्ष ममियता ErGau - - - GERIESEX XEEXPER
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________________ EXPERTYLERXTTERY EAXXSXExa ( 131 ) बनता है और समीप श्राजाने पर भी सर्वस्वापहार करने पर फिर अनुकूल वा प्रतिकुल वचनों से तिरस्कार कर राजा के सुखों का विदारण करता है, वह व्यक्ति महामोहनीय कर्म वांधता है। ग्यारहवा महामोहनीय विषय अकुमारभूए जे केई कुमारभूएत्ति हं वए। इत्थीहिं गिद्धेवसए महामोहं पकुन्बह // 12 // अर्थ-जो वालब्रह्मचारी नहीं है किन्तु अपने श्रापको बाल ब्रह्मचारी कहता है और स्त्रियों के विषय में गृद्धित हो रहा है अर्थात् स्त्री के वरावर्ती है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। वारहवाँ महामोहनीय विषय अभयारी जे केई बंभयारीत्ति हं वए। गद्दहेब गवां मज्झे विस्सर नयई नदं // 13 // अप्पणो अहिए बाले माया मोसं बहुं मसे / इत्थीविसए गेहीए महामोई पकुव्वह // 14 // अर्थ-जो व्यक्ति श्रब्रह्मचारी है किन्तु अपने आपको जनता मेब्रह्मचारी कहता है, उसका शब्द ऐसे है जैसे किगौओं के मध्य में गर्दभ बोलता हो। आत्मा का अहित करने वाला जो मूढ और। छली बहुत झूठ बोलता है और स्त्री के विषय में मूच्छित (आसक्त ) है, वह महामोहनीय कर्म को यांधता है। तेरहवा महामाहनीय विषय जं निस्सिए उन्बहइ जससा हिगमेण वा / - तस्स लुन्मइ वित्तमि महामोहं पकुच्चड् // 15 // ROHARXXXXXCEITIXXXKARE 2-RDAF
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________________ EBLEIBBQBIR DEL mar ( 132 ) मर्य-मिस रागामाभित होकर निषाद किया माता जिसके पासे सत्कार मिलता है और जिसकी सेवा से // शांतिपूर्वक निर्वाह हो रस रामा के पन लिए जो मम्पाप पूर्वक शुष्प होता। पा महामोरनीय। कर्म पांपता है। बौदा महामोहमीप विपप / इसरेय प्रदुपा गाम प्रविसरे ईसरीकए। तस्स सपमहीयस्स सिरी भनुस मागपा // 16 // ईसादोसेस भावि पशुसावितपेयसे / घे भराराम श्रेण महामोई पहमा // 17 // / अर्थ-भरने अपना नाम की जनता मे अनीश्वर स्वाति कोपर बना दिया रस ईश्वर की कृपा से भतुम सम्मी की प्रातिप्पोपसभापिएकर मेप और सोम पशीमूत होकर फिर मो पसुपित पिच से उस पर के पनाति में प्रतराय करता मर्याद पारी पार कोन मान कर उसके साथ पैर माष परता.पाम्पक्सि मा मोपनीय कर्म पता है। पम्बापों मामोदनीय विषम सप्पी महाभग्रं मचारं बो विस्सिद / / सेयावर पसरणारं महामोई पहम्मा 1 / / प्रर्प-से सपिपी नियमापो को भएप परती / उसी प्रकार गोम्पफ्ति अपने स्वामी को मारता बानो। - सैनिक सेनापति को मारता गोभमास्या प्रमाको मारता मान FREHERE BE -
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________________ SIXExamst-na-RRORE THREFxxxxxxxमामिलालSAXRADHADINES (133 / न है तथा जो विद्यार्थी अपने अध्यापक को मारता है, वह महा मोहनीय कर्म वाधता है। सोलहवा महामोहनीय विपय जे नायगं च रहस्स नेयारं निगमस्म वा / सेहिं बहुरवं हंता महामोहं पकुव्यइ // 16 // अर्थ-जो राष्ट्रीय स्थविर (नेता) को वा व्यापार के नेता का तथा बहुयश वाले राष्ट्रीय वा नगर श्रेष्ठी (सेठ) को भारता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। सत्रहवा महामोहनीय विषय बहुजणस्सं णेयारं दीवं ताणं च पाणिणं / एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्बइ-॥२०॥ . अर्थ-जो व्यक्ति द्वीपवत् प्राणियों के लिये आधारभूत है और जो बहुत से जनों का नेता है तथा दीपवत् न्याय मार्ग / को प्रकाशित करने वाला है, ऐसे पुरुष को मारने वाला महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है। अठारहवा महामोहनीय विषय उवाट्टियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सिय / - बुक्कम्म धम्माओ मंसइ महामोहं पकुबह // 21 // अर्थ-जो'धर्म करने के लिये उपस्थित हुश्रा है, जो भिनु हिंसादि से निवृत्त होकर सयत (यत्नशील) और तप करने वाला है, उसको जो बलात्कार से धर्म भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म वांधता है।- RRIERREDIOXIDIOXEDXXXXXnxxcomatement
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________________ +PREETTE SIRF रमीसा महामोरनाप विषप तहेवार्यतबासीसं चिसास परसीस (परदरिसर्म)। तेसि भवएप बाले महामोह पम्मद // 22 // मर्प-उसी प्रकार गोपानी पुरुष मतमाम और मर्मत पर कमारण करने वाले मरत भगवंतों का भवर्सवाद (मिन्दाकारी पचन) कपन करता है पर महामोहमीप धर्म बांधना। पीसयाँ महामायनीय विषय नेपाइभस्स मग्गस्स दो भरपाई गई। त निप्पर्यवो मायेइ महामोह पडम्बा // 23 // भर्य-जोम्पायकारी माग का प्रपकार करता था। हो पात मनों को धर्म से परास्मुख करता रसपा यो म्याप मार्गकी निन्दा करता दुमा प से अपनी मारमा को म्याप मार्ग सेप्पत करना पारम्पत्ति महामोहमीप धर्म बांधताहै। कीमों मामानीय विषप भापरियउपग्माए सुप पिसर्प पगाहिए। तब खिमा पासे महामोई पहमा / / 2 / / अप-यो मापार्य भीर पापायों मे भत और रित। फिर उसकी निम्मा करता भीर उनका मस्पमति तापा प्रमामी महामोहनीय कम पिता। पासपी मरामानीय पिपप मायरिपउपरझायाखं सम्मना परिनप्पा। अपरिपपपपरे माहामा पकुमा॥२५॥ ---HEpiS5ESI - -11 G - JF
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________________ EARANTEERXaRrmation MEROERMANAGEMENTERTERECEIXESI ! अर्थ-जो प्राचार्य और उपाध्यायों द्वारा उपरुत किया। / फिर सम्यक्तया उनकी प्रतिपत्ति नहीं करता और उनकी सेवा करता है किन्तु अहकारम भरा रहता है, वह / महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है। तेईसवाँ महामोहनीय विषय अबहुस्सुए य जे केई सुएणं पविकत्थई / सज्झायवायं वयइ महामोहं पकुवह // 26 // अर्थ-यदि कोई बहुश्रुत नहीं है किन्तु श्रुत से अपनी आत्मलाघा करता है कि 'मैं बहुश्रुत हूं' और स्वाध्याय विषय वाद करता है कि 'मैं ही शुद्धपाठोच्चारण करने वाला ' वह महामोहनीय कर्म बांधता है। चौवीसवाँ महामोहनीय विषय अतवस्सीए य जे केई नवेण पविकत्थई / सबलोये परे तेणे महामोहं पकुव्वइ // 27 // अर्थ-जो कोई तपस्वी नहीं है किन्तु अपने आपको तपस्दी कहता है, वह सर्घलोक में सय से बढ़कर भाव चोर / है, इस से वह महामोहनीय कर्म बांधता है। पच्चीसवाँ महामोहनीय विषय साहारणहा जे केई गिलाणम्मि उवाहिए। पभूण कुणइ किच्चं मज्झपि से न कुन्वइ / / 28|| सदेनियडीपरणाणे कलुसाउलचेयस / अप्पयो य अवोहीय महामोह पक्कुबइ // 26 // (युग्मम्)। RELIERATAXIANCERCOSMEERARECORRERAKomaa MERRIER
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________________ मानसन्माना : IGEDE GEDEPEED3SETE मर्प-मो कोई सपकार करन की सामर्म होने पर मी : बासापस्पा में रोगी की सेवा नहीं करता प्रत्युत करता कि 'फ्मा इसमे मेरी सेवा की पी!" और गो दुर्मति तथा: पराबारी रोगियों की सेवा से भी पुराया जाता पित विचपाताभारमा में प्रबोधिमाप रत्पमकर रोगियों की सेवा से परास्मुख होकर महामाहनीप कर्म की उपासना | करता। पणीसपा महामोहनीय पिपप से कहाहि गरमई संपउँछे पुमो पुयो। सपतित्मासमेमार्य महामाई पकुम्मा // 30 // मर्थ-जोको बार बार प्तिादि कम पासी कपा का कपन करता है तथा पानपर्यन बारिमाप सीप नाथ करने पापी रूपा का कयन करता हैमा माम्मोहनीप कर्म की पार्यमा करता है। सचासो महामोहनीय पिपप जेप्रमाम्मिए बोए संपमा मे पुसो प्रसो। सहार्ड सही महामोई पहमा॥३१॥ अर्थ-जो सापा का मित्रता के पास्ते अपार्मिक योगों का पार पार सम्योग परत मांसपो महामोरनीय विषय " म मागुस्सए मोए भाषा पारसोइय, "TTE सेविपर्यतो भासया महामोई पाम // SEEEEE "महामोनीप की उपासना करनेवा।
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________________ REAKIRAKSHA Kerrmative! KHELKANOXERITAMLEDIA ( 137 ) GEKIKenare mr-I ____ अय-जो मनुष्य के काम भोगों की अथवा परलोक के 6 काम भोगों की इच्छा करता हुश्रा अभिलापा रखत महामोहनीय कर्म को बाधता है। उनतीसवाँ महामोहनाय विषय इटी जूई जसो वएणो देवाणं बलवीरियं / 3 ते सिं अवएणवंवाले महामोहं पकुवइ / / 33 // अर्थ-जो मूढ व्यक्ति देवों कीऋद्धि, द्युति यश, वर्ण तथा स श्रादि की निंदा करता है, वह महामोहनीय कर्म याधता है। तीसवाँ महामोहनीय विषय अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे।। ___ अणाणी जिणपूयट्टी महामोह पकुव्वइ // 34 // अर्थ-जो व्यक्ति देव, यक्ष, गुह्यक श्रादि देवों को न दत्रता हुश्रा भी कहता है कि मैं इन्हें देखता हूं और फिर वह अचानी जिनेन्द्र देव के समान अपनी पूजा की इच्छा रखता है अर्थात् निज पूजार्थी है, वह महामोहनीय कर्म की उपार्जना न करता है। भद्रपुरुषो। इस प्रकार श्रीश्रमण भगवान महावीर स्वामी ने प्रत्येक प्राणी के हित के लिये उक्त स्थानों का वर्णन किया। . इन के द्वारा प्रत्येक प्राणी को स्वकीय कर्तव्यता का भली तभाति बोध हो जाता है। फिर वह अपनी कर्तव्य परायणता -Tal को समझ कर उस में प्रारूद हो सकता है। इन शिक्षाओं में राष्ट्रीय शिक्षाएँ भी कूट कूट कर भरी गई हैं, धार्मिक शिक्षाएं xnxsMEEEXnxneurs RECEXA SXxxHEROXnxg XXX .
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________________ IER-यावर ( 18 ) | मी माता मांति विपनाई गई, पापहारिक शिकायों का मी विमरमराया गया। मुरता के कारण से सो मन हो पाते हमका मी दिमन कराया गया है। भतारे 35 गापाएं मस्पर पिपा काठस रखने पोप्प६ मिन से रनको अपमेसम्म का मसी मांति शानो माप। अप प्रभ पहपस्थित होता कि महामोनीपफर्म की रकर स्थिति तिमी पर्पन की गईस प्राम के पत्तर में कामाता पिमोहनीयकर्म कीर खिात गोराफोर मागरोपम की प्रतिपादन की गई जिस स्थिति का प्रसस्प कास पमता ।प्रत रक्त कमी माप मारमा पर्सम कास कमनुभव करने वाले मौकी उपासना करसताबिस से। माधर्ममार्ग से परास्मुख होकर चारों गतिपो में मापा प्रथम कर्मों का अनुमब करता सग पूपिषी भारि कापों में सक्त स्पितिका भनुम करतेनिफर्ष पानिपसाNि / पुरुपों को उक्त .. महामोहनीय कर्मों का प्रासेवन पापि मकरमा बाहिर पोफिनके मासेवन से मारमा सम्मार्ग म पतित होकर कुमार्गमामी बन भावा प्रतापेममयापि अंगीकृत नपरणे चाहिएं। म पनि पैसा कहा जाप कि इससे निति किस प्रकार सकती है। इस प्रश्न के उत्तर में कहा गावास शामोपाम्पाप पवित्र मारमामा की संगति काम. राम्प और निर्माण पर में पूर्व मिठा से क्स कमी से बसको सिसका प्रम्तिम फल निधार पर की प्राप्ति हो जाता है। Sea- मरम EBOEGSEFFEIE EXEHarm उपनाम:
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________________ MEREMOIRynonymERE .. ... -.. .in -: .ne ग्यारहवाँ पाठ m TwXXXRXAXmxnxx CATEXTXMEXIRExx (गुरु शिष्य का संवाद) शिष्य हे भगवन् ! श्रात्मा किस प्रकार से अपन अन्त - करण की शुद्धि कर सकता है? . गुरु-हे शिष्य ! आलोचना द्वारा अन्त करण की शुद्धि की जा सकती है। ॐ शिप्य-हे भगवन् ! श्रालोचना किसे कहते हैं ? गुरु-हे शिष्य ! जो पाप कर्म गुप्त रूप से किया गया हो, उस कर्म की गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए अर्थात् गुरु के समक्ष उस फर्म को प्रकट कर देना चाहिए। गुरु उस कर्म का जो प्रायश्चित्त प्रदान करें उसे सहर्प स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह प्रायश्चित्त आत्म शुद्धि के लिये ही होता है / किन्तु आलोचना करते समय निस्संa कोच भाव से अपने हृदय के शल्यों को निकाल देना चाहिए जिससे हृदय की शुद्धता पूर्ण प्रकार से हो सके। शिप्य-हे भगवन् ! किस गुरु के पास थालोचना करनी चाहिए? . गुरु-जो गुरु साधु के गुणों से पूर्ण हो, जिस में धैर्य गुण विशेषतया पाया जाता हो, जो उस दोप को किसी अन्य - MEERIERROREATREENAEER RaISEK.a.ra-Tiru
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________________ Exaxe-FEER नामसामना ( 150 ) के पास प्रकाशित न करे सिसकी मारमा पर उस पोप सुनने से किसी प्रकार से पुरा प्रमाबन पड़ सकता और जिसकी मारमा सयम गुण में जमीन से पही गुरु | पास्तव में मासोचमा सुनने के पोम्पो सकता। शिप्प-परि सर्व प्रकार से परीक्षा किये जाने पर मी गुरु र्प गुण सरीत पाया गया सन मुकम्पति सुनेर दोष का कतिपय लोगों क मति बन कर दिया ता फिर रस इस गुसको क्या प्रायमित माता / / गुरु-रे शिप्प! जिस गुरुमे रस बोषको प्रकाशित किया। वास्तव में उस शिप्प को उस दोपका पारम्मान प्रापारित माया या परी मायमिन उस गुरु को माता है कि जिसने प्रासोपना की थी उसका तो भारमा यसोही त एRFICE शिप- भगवन् / भापति का समप परिमानो कोपा करना चाहिए। - गुरने शिष्य ! भापति पास के समप पास्मानों को पोम्पोकिरे धर्म में इता रमकार कि स्त्री मित्र - | धैर्य और पर्म-मकी परीक्षा विपत्ति पास में ही होती। जब मापत्ति काल के माने पर धर्म से स्मलित हो गया तो ममा फिर रस पर्म की पता कहाँ पर देवी जायगी! शिप-जरमापति कासरेमाने पर अपना जीवनात नाता तो फिर उस समप परिमामो को स्पा करना। बारिप ! गुप-धर्मरतापूर्वक गीवन का करनी चाहिए
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________________ AEXTRARom Times R e adewcXICAEXEDXSEEDKAR ARRIORRERATEEXXX (141 ) पाग कर जीवन रक्षा।पयोंकि वास्तव में वही जीवन श्रेष्ठ घमपूर्वक हो। परच जो धर्म से रहित जीवन है वह काम का जीवन नहीं है। अत. अापत्ति काल के प्राजाने पसमा धर्मात्माओं को योग्य है कि वे जीवनोत्सर्ग करके भी मका रक्षा करें जिससे फिर धर्म उनकी रक्षा कर सके और लोगों के लिए श्रादर्श वन सके / शिष्य-हे भगवन् ! धर्मरूपी मदिर में प्रविष्ट होने के लिये कौन कौन से मार्ग हैं? गुरु-हे शिष्य ! धर्मरूपी मन्दिर में प्रविष्ट होने के लिये पार मागे है। जैसे कि-१क्षमा 2 निलामता ३ाजेय भाव भार 4 सकोमल भाव (मादववृत्ति)। इन चारों कारणों स धर्मरूपी मन्दिर में सुखपूर्वक प्रविष्ट हो सकते हो। शिष्य हेभगवन् ! उक्त चारों मार्गों का ज्ञान किस प्रकार से हो सकता है ? / / गुरु-हे शिष्य / शिक्षा द्वारा।। 2 शिष्य-हे भगवन् ! शिक्षा कितने प्रकार से वर्णन की गई है? गुरु- हे शिष्य ! शिक्षा दो प्रकार से प्रतिपादन की गइ है। / जैसे कि 1 ग्रहण शिक्षा और 2 श्रासेवन शिक्षा ग्रहण शिक्षा से यद,जानना चाहिए कि विधिपूर्वक पठन और पाठनादि क्रियाएँ की जाय / पासवन शिता का यह मन्तव्य है कि जिस प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय से धार्मिक क्रिया कलाप जाने जायें, फिर उसको उसी प्रकार निज काय द्वारा श्राचरित करना चाहिए। -
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________________ प्रलमनामनामना शिप्प मगपम् ! जो तपोमरमर की माापता पिना स्वयति मनुसार पिया गाता उसका फापाला गुरु-शिष्य ! यो पोकर्म सरेकी साहापना को छोड़ कर फेवल समाधि अनुसार पिपा गातार सफा फसास * लोक में पता कि उसका प्रारमा सदैव प्रसन यता At कोपादि का उपय नहीं रोता / कार किया तपोकर्म निरपेच मापौस किया गया था और परलोक में निरपवता कारप से पासप भाराषिकता का मुख्य कारण मया मिस कारण समारमा पहुनीशी कर्म इम्पन को / | समापार निर्वाव पर की प्राप्ति कर देता है।मता मो तपोधर्म 1 किए जा सब मोफपीर परलोक की प्राधा कोरफर ही करने चाहिएं। शिष्य- मगन् / शरीर का ममत्व माय त्पागने स किस फल की प्राप्ति होती। गुरु-शिष्य शरीर ममत्व माप स्पागन से पान पर्यन औरबारिष की पूर्ण महार समापपना की जा सकती है जिसके कारण से निप पर की शीम माप्ति होगाती il और फिर सर्व प्रकार के ए ग्रान्तिपूर्वक सान किप गा" सक -बमकुमारपत्। शिप्य- मगपन् ! पशु प्रापिकी प्राण पोरकर यो सप मादिमिपाएंगी मातीमा फम क्या होता है। गह-चिप्प! प्रकार से छिपाएं करने पर कर्मप्र mपीर निर्वाच परकी शीर प्राप्ति होगाती। शिष्य- मगर ! मिलोमता करन से किस सपनी प्राप्ति होती! ESIDESH HEREBEESERFEF एम
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________________ AKATARIMARITERE में निमग्न होता हुया प गुरु दे शिप्य ! सन्तोप रूपी धन की प्राप्ति हो जाती है, जिसका अन्तिम परिणाम यह होता है कि श्रात्मा निज स्वरूप म होता हुया परमात्म पद में लीन हो जाता है यात् जिस प्रकार दीपक की प्रभा में अन्य दीपक की प्रभा / * एकरूपता धारण कर लेती है, उसी प्रकार निर्लोभी भारमा भी सिद्ध पद में लीन हो जाता है, जिससे फिर वह अक्षय सुख का अनुभव करने वाला होता है। - शिष्य-हे भगवन् ! तितिक्षा सहन करने से किस गण की al प्राप्ति होती है? o गुरु-हे अन्तवासिन् ! कष्टों के सहन करने से आत्मा में है एक अलौकिक शक्ति का संचार होने लगता है, जिसके कारण स फिर आत्मा में उत्साह और अनन्त वल का प्रादुर्भाव होने से लग जाता है तथा फिर जिससे श्रात्मा विकास मार्ग की ओर झुकने लगता है। शिष्य-हे भगवन् ! ऋजुभाव धारण करने से किस गुण की प्राप्ति होती है? . गुरु-हे शिष्य ! श्रार्जवभाव के धारण करने से आत्मा की धर्म में परम दृढ़ता हो जाती है, फिर शुभ नाम कर्म की प्रकृतियों का भी बंध होने लगता है। इतना ही नहीं किन्तु उसका प्रत्येक जीव के साथ मैत्री भाव हो जाता है / कारण कि मैत्री श्रादि के विधात करने वाली छलादि क्रियाएँ होती हैं, उन / a क्रियाओं का आर्जवमाव में अभाव सा ही हो जाता है। श्रतः उसकी प्राणिमात्र से मैत्री हो जाती है। शिष्य-शुचि किसे कहते हैं ? EconormatxeEXERExamx भERICAXAMRAPEXIRIRAHARI
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________________ EXE 1 1 गुरु-शुचियो प्रकार से पर्यन की गहमे किम्प से। सुषि और माव से शुधि / प्रम्प शुधि मिकी पानी भप्ति भीर मंत्र से हाती मीर माघ शुचि सत्यभार सपमसोती।। तात्पर्प पर फि मिन मिपामो मारा भारम पुरि की बाप, प्र पम क्रिपामों का मामी माघ शुचि / शिप्प-सम्पप रएि गुप पारस करमे से किम फस की - प्राप्ति होती है। गुरु-सम्पग पर्शन से मारमा संसार सागर से पार हो जाता है तपा सम्यग् दर्शन के मादरम्प में प्राचीन कम पर फिपे बात फिर नूतन मिप्याव के कारणों से फर्म " संपय नहीं होता। शिप्प समापिसगान मे किस गुण की प्राप्ति होती! गुरु-समाधि द्वारा राग भीर मेप पप हो जावई मारमा मिज स्वरूप में लीन हो गाना रिसका मन्तिम / परिणाम पाता कि मारमा निझामन्दको प्राप्त होता, हमा निर्धारपर की माप्ति पर सता। शिप्प-पवाबार पालन गरम मे किस गुण की माप्ति - PHONES 43EEEEEI -मन / गुर--भारमा विकास की मार मुरुमे सगाई भीर मन किपामों से दूर हो जाता। शिप्प- पिनय पर मे किम गुण की प्राप्ति होती! गर मम्पता पोम्पना ग्यापशीलता कम्पपापलता मादि गुणों की प्राप्ति माती है। सय जति मनिपारलपरममा फल मिलता।
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________________ HEERAYERATEMENT KEEKEXREMEERIEEEEXexee NEPALI COMXNXSETTEERTRA ( 145 ) गुरु-धर्य वाली मति के धारण करने से अदैन्य गुण की माप्त हो जाती है, उत्साह, गांभीर्यभाव, सहन शीलता जात है, जिस से फिर वह व्यक्ति कठिनतर कार्य i"."चनममी अपना सामर्थ्य उत्पन्न कर लेता है। इतना ही किन्तु उसके प्रात्मा पर हर्प और शोकादि के कारणों विशप प्रभाव नहीं पड़ सकता / श्रतः उसका श्रात्मा श्रकपन शील हो जाता है। शिष्यसवेग धारण करने से किस फल कीप्राप्ति होतीहै? गुरु-वैराग्य के धारण करने से मोक्षामिलाप बढ़ जाता है, कलासारिक पदार्थों से उदासीन भाव पा जाता है और चित्त / म अनित्य भावना का निवास हो जाने से प्रात्मा निज स्वरूप [ की खोज में ही लग जाता है। शिष्य-हे भगवन् ! प्रणिधि शब्द का क्या अर्थ है ? गुरु हे शिष्य ! प्रणिधि शब्द का अर्थ है कि माया शल्य न करना चाहिए अर्थात् धर्मात्माओं से कदापि छल न करना चाहिए। शिष्य हे भगवन् ! 'सुविहि' शब्द का क्या अर्थ है ? गुरु-हे शिष्य ! सुविहि शब्द का अर्थ है कि सदनुष्ठान करना चाहिए / अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि वह सदनुष्ठान (श्रेष्ठाचरण) द्वारा ही अपना जीवन व्यतीत करे। शिष्य हे भगवन् ! संवर करने से फिस गुण की प्राप्ति होती है ? गुरु-हे शिप्य सवर करने से कर्म आने के प्रास्त्रयों मागौं) / / का मती माति निरोध किया जाता है। REATRAKESREXCEXXCEAKIED KAREEK TRANSOJA
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________________ माता-ASE. E%ENEVERESEREEXम चिप्प-रेमगषम् ! भात्मीप पोपों के निराकरण करने स किस गुपकी प्राप्ति होती! पुर- शिम्य ! प्रारमीय दोपों के निपकरण करने से मारमा की सर्पपा गयि बागावी।से कि ममपुर बम को पार मे पोने से उसका मत निकल मावासी प्रकार मात्म प्पान से प्रारिमा दोष-कोप मान मापा भीर होम रूप पर होगा। शिम्पो मगमम् ! समस्त विषय जम्प सुखों की निधि करम से किम ग्रस की प्राप्ति होती गुरुशिषसमस्त विषय अम्प सुनेके स्पगने से। मास्मिक हम की प्राप्ति हो जाती यो प्रचपसाबप। शिप्प- मगवन् / प्रस्पाम्पान (निपम) करने से किस गुपकी प्राप्ति होती है? गुरु-रे शिम्य ! भामम मारों का निरोप दो गाता पीर मारमा प प्रविशा पासा होने से मात्मिा बसको अनुमष करने पासा होगादा। शिम्प-मगवम् !म्पुत्सर्म करने से क्या फस्रोता! गुरु-रे शिप्प ! पुत्ता काय के ममत्व मापको मोड़ कर प्यानम्प दो गाने से भारमा पूर्व सचित मर्मत कमी का उप कर माता अमुहम मेमरक्षास बरवाइमा अनन्त नाम और मर्मत पर्गन की माति कर मेता है। शिप-हे मगर ' अममार करने से किस गुपकी उपमपि हो जाती है! गुरु-शिप्प भरमार करनस कार्य की मफलता AFTFHT - - अजESVERESTHA -----
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________________ PRIORYXNXX.Z8 martGXX ( 147 ) यता तथा दक्षता गुण की प्राप्ति हो जाती है। यव्य-हे भगवन् ! क्षण क्षण में क्या करना चाहिए ? हैं शिष्य! प्रत्येक क्षण धर्मध्यानपूर्वक व्यतीत करना जिससे आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो सके / दिनचर्या त्रिचर्या समय विभाग कर के व्यतीत करनी चाहिए, जसस शानावरणीयादि कमों का क्षय हो जाए | ज्ञानाधरणीपद कमां के क्षयोपशम होने से भी श्रात्मा निज कल्याण करने में समर्थ हो जाता है। शिप्य-ध्यान सवरयोग का क्या अर्थ है ? गुरु-शिप्य ! 'ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः' अर्थात् जिस का ध्यान ही संघरयोग है उसी को ध्यान संवर। योग' कहते हैं। सारांश इतना ही है कि योगों को ध्यान और संबर में ही लगाने से स्वकार्यसिद्धि हो सकती है। शिप्य-भगवन् ! मारणांतिक कों के सहारने से किस गुण की प्राप्ति हो सकती है ? गुरु-हे भद्र ! धर्म की रक्षा के लिये मारणांतिक करों के सहने से निज स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है तथा अमीट कार्य की सिद्धि हो जाती है। शिष्य-हे भगवन् ! कुसग त्यागने मे फिस गुण की माप्ति होती है ? पु. गुम-हे शिप्य ! फुसंग त्यागन से स्नुसंग की प्राप्ति हो / स हो जानी 6 यात्मा सदनुष्ठान में लगा रहता है। कारण फि फुसंग दोष अंगार (फोयले ) के समान है / यदि अंगार उम्ण होगा तय तो शरीर के अवयवों को भस्म फर मामTNEERIORITama-SITERANया ATTATRODHA IITRAKCEERINEER (m-CID Ime
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________________ जास्तमम NE - - - EKHEDEONE- - - देगा परिशीतन मोगा तब कासान कर देगा। इसी प्रकार कुसग दोप होता है। जैसे कि सुरों की पावे मानते राोगे तष पन भीर समाचारका मायरोता रहेगा यदि सन की पात माननी कोरोगे तब साति पा मपने पर सफ लग सापगा। भता कुसग सर्वथा दी स्पाम्प है। शिप्प-रे भगवन् ! मापमित करने से किस मुख मासि हो जाती - गुरु-शिष्य ! प्रापमित्त धारण करने से भारम सरि / होगाती कारण कि मापारिमायोपोप द्वारा मस्म दो गाने से फिर मारमा निर्मल हो जाता है। शिप्प- भगवन् / मन्तिम समय में भी भगवान के वपनों की सम्पापा मारापमा करने से किस फल की प्राप्ति होती! गुरु-शिप्य 'अन्तिम समय म मारापना करम से प्रारमा मारापिक होमाता जिस से पहजीपी निपात पर की प्राप्ति के पाग्य हो जाता है। प्रता मापु समय मिरमाप धारण करके सम्पग पर्थन पान भीरबारिप की पूर्णतपा मारापना करनी चादिए जिस स मामा सर्पया कर्म पापन सरपर मप सुप की माप्ति कर सका शिप-मगपम् / श्रम ग्रामों में भी जाति को धर्म क्रियामा क करने में पुरुष ममान अधिकार दिए गए। पा पुष्प सम्पन भपिकार कथन किये। - गा-८ शिष्य 'मन शाखा में नामानि का पारि -पान म मोर मजिपामो पलो पिपप में - LALLIA-1-J- मामामात
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________________ PERMERROREEXXXX मामलामत ला-IICADKACCRACLExxxराला SEARCHEIXAXEYERSIA w ( 146 ) पुरुष के समान ही अधिकार दिए गए हैं / जैसे कि जिस र धावक द्वादश व्रतादि धारण कर सकते है, उसी प्रकार विका भी द्वादश व्रतादि धारण कर सकती है / जिस भकार धावक श्राराधिक बन सकता है, उसी प्रकार श्राविका आराधिक हो सकती है। जिस प्रकार पुरुष साधुवृत्ति ल सकता है, उसी प्रकार स्त्री भी आर्या (निर्ग्रथी वा साध्वी) बन सकती है। जिस प्रकार साध कर्म क्षय करके निर्वाण पद का प्राप्ति कर सकता है, उसी प्रकार साध्वी भी कर्म क्षय कर क मोक्षपद प्राप्त कर सकती है। जिस प्रकार साधु केवल ज्ञान प्राप्त कर जनता में उपदेश द्वारा परोपकार कर सकता है, उसी प्रकार साध्वी भी केवल ज्ञानयुक्त उपकार करती है। जिस प्रकार साधु को पाच प्रकार के स्वाध्याय ( वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा) करने की आशा है, उसी प्रकार आर्या को भी है / अतः जैनशास्त्रों में स्त्री जाति M को वे ही अधिकार है, जो पुरुष के लिये कथन किये गए हैं। इसीलिए जैन सूत्रों में लिखा है कि-पंचदश भेदी सिद्ध होते हैं। म उन भेदों में यह सूत्र भी आता है कि 'स्त्रीलिंगसिद्धा.' अर्थात् स्त्रीलिंग में भी सिद्ध होते हैं। इसलिये यह यात निर्विवाद सिद्ध हो गई कि जितने अधिकार पुरुष को है, उतने ही स्त्री / को भी है। किन्तु ये सव अधिकार योग्यता पूर्वक ही दिए जाते हैं और योग्यता पूर्वक ही उत्पन्न किये जाते हैं। शिष्य-क्या स्त्रीलिंग में कोई जीव तीर्थकर पद भी ग्रहण कर सकता है ? गुरु-सामान्य केवली पद तो स्त्रीलिंग में प्राप्त किया ही। AIRATEXXXXXRADICAAKANKERA MAKom
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________________ ( 15. ) सावा है कि सभपसप्पिपी कास में पतपिशति तीरों में से 14 तीरदेष मीटिंग में मगमा भीमशिनापसी हैं। पचपि इस विषय को मामाप माना गपा। सपापि स्त्री का वीपैकराना वो सिखापया। प्र शिप-'नमो मोप सम्बसार" इस सब में मोप में। पापमान साधुवत को तो नमस्कार मिपागपाकिम "नमोसोए सम्मसाइली इस प्रकार साम्बी को नमस्कार माती किया गया / इसका क्या कारण पर-समयकार मैके पंच पड़ों में पंच पापियों को। नमस्कार पिपा गपातु सिंग पिरोपको / सिसिये पहा: पर ममोहोए सम्मसाासी इस पाठ को प्रापस्यकता नही है। वैसे कि 'नमो भरिवार' ऐमे पर तो नकार - मंगपिमा "नमोतित्यपरा" ऐसे पार नहीकारण कि परिवत' पर एक गुप विरोप (संश) पापि और वीकर पर पकनाम पम की पुष्प प प्रकृति वापर प्रति किसी जीव कोपी मास होती।किन्तु 'मविसमा पानापरणीय बर्गनापरपीप मोहमीप और अन्तरापमा योने से उपसम्म हो सकती है।पापा तीर्थकर पा सामान्य ही में गुस्प होती। सहिये 'नमो भरिता पर पकिसगत।फिम्परफार मंत्र में मोतिरपपरा पर मावश्यकता नही थी इसलिये हम पर को स्थान श्रीम रिया गया। इसी प्रकार सिर भाचार्य पाप्याय और मा पाइपिपप म मी जानना चाहिए / कारपसापत्य भारी और पुरुष दामो मे मा माता मनिये AM /
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________________ REERSITERACHAR KEEKCERITAILS पर-Tx KERAYARI EXIXERCREAKKAKKSaxxxxn.. सवसाहणीण इस पद की आवश्यकता नहीं है। यदि विशय को ही ग्रहण करना है तव तो फिर नपुंसक लिंग जाव भी सिद्ध पद ग्रहण कर सकते हैं चा करते हैं तब लिय 'नमोलोए सबनपुंसगसाहुणं' इस प्रकार एक और तन सूत्र की रचना करनी चाहिए / जब इस प्रकार माना जायगा तव प्रत्येक व्यक्ति के लिये पृथक् सूत्र की रचना Mना चाहिए / श्रत यह ठीक नहीं है किन्तु साधुत्व पद सय म सामान्य रूप से रहता है, इसलिये 'नमो लोए सव्वसाइण' यही पद ठीक है। इस पद से अईन्त, सिद्ध, श्राचार्य और उपाध्याय तथा अन्य यावन्मात्र प्रवर्तकादि की उपाधियां है, उन के भी अतिरिक्त जो सामान्य साधु वा आर्यायें है, उनी / सय का ग्रहण किया गया है तथा श्राचार्य वा उपाध्याय--इन दो विशेष उपाधियों को छोड़कर शेष सभी उपाधिया साधुत्व भाव में ली गई है, इसलिए भी 'नमो लोए सव्वसाहणं' यही के पद ठीक है। शिष्य-जय सिद्ध पद पाठ कर्मों से रहित है और इन्त पद चार कर्मों से युक्त है तो फिर पहले 'नमो सिद्धाण' यह / पद चाहिए था तदनन्तर 'नमो अरिहंताणं' यह पद ठीक था? __ गुरु-हे शिष्य ! सव से पहले उपकारी को नमस्कार किया जाता है अत चार कर्मों से युक्त होने पर भी सब से प्रथम अन्तिों को नमस्कार करना युक्तियुक्त है। कारण कि केवल मान के होने से चे भव्यजीवों के तारने के लिये स्थान 2 पर उपदेश देते हैं, वह उपदेश भव्य प्राणियों के लिये श्रुत a ज्ञान होता है, श्रुत झान ही अन्य सव झानों से बढ़ कर परो 2.MIRom
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________________ . . .. . SAZUGSBEIDE ( 152 ) पकारी माना गपा प्रतापक पद पुक्तियुको। शिप्प-रे मगवन् ! सब समकार से तो भारत U प्राचार्य उपाध्याय और सापुती उपदेशों मारा स्थान पर उपदेश कर ससिपे सव से पासे'नमोहोर सम्पसापे पर परोना चाहिए था। गुर-शिम्प ! भाचार्य रुपाण्याप और सापु-ये तीनों - पद पदापों के स्वर्प रणम्त नहीं कि भीमगवारकपन पिप पदापों के सपरेरा (मचाफ) सलिये सब से पहले 'नमो मतिता पही पर पड़ना पुहिसंगत है। शिप-मगवम् ! रिसा अड, बोरी मैथुन भीर परिमा इन पांच मामयों करते समप गोमारम प्रदेशों पर परमाए पुससम्बन्म करते समस्त प्रवेशीसम्पापीयामापी गुरु-शिम्प ! पांच मामलों के मासेवन करते समय / यो मारम प्रदेशों पर फर्म वर्गखामों का सम्पम्प रोता है फर्म परीणामोअनंत मदेशी परमाशुभ साप रूपी होते मापी। शिप-2 मगर पी किसे करते। भीर भबपी E किसे काते। गुरु-रे शिप्प / जिसमें पुनसास्ति काप का सम्पम्प बाकेबल पुगसो रसीको सपी काते पॉलिरुपी पपम करने का वास्तव में पही मन्तम्प मिस पसा में वर्ग इस गरीर स्पर्शो पसीको पीकातेापा पांच भामचों से प्राम प पुस म गुण पालेदोसलिये - उनको पपी माना गया है। Sears-- -- 1. - -- -
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________________ TATEEATMAREExt ANSKRIERIAGEMALERTISEEM - - -- - - - -- - - - -AAR EMEEXXIXXXXXX mor - शिष्य-हे भगवन् / उन परल स्कंधों में घण, और स्पर्श कितने कितने होते है ? गुरु- हे शिष्य ! उन फर्म वर्गणायों के परमाणुओं में राच वणे, पाच रस, दो गध और चार स्पर्श होते है। शिप्य-भगवन् ! उनके नाम बतलाओ। गुरु-हे शिप्य ! सुनो। पांच वर्ण ( काला, पीला, लाल, आर श्वेत), पाच रस (कटक, कसाय, तीक्ष्ण, खट्टा र मधुर), दो गध (सुगंध और दुर्गन्ध), चार स्पर्श (स्निग्ध, रुक्ष. शीत, उपण) है। शिष्य- हे भगवन् ! क्रोध, मान, माया लोभ, राग, द्वेष, | कलह, अभ्याख्यान, रति, परति, माया, मृपा, तथा मिथ्या दर्शन श्रादि पापों के करते समय श्रात्मा के साथ किस वर्णादिम वाले परमाणुओं का सम्बन्ध होता है? / गुरु- हे शिष्य ! अठारह प्रकार के पार्कों के करते समय h श्रात्म प्रदेशों के साथ पाच वर्ण, पांच रस, दो गंध और चार स्पर्श वाले परमाणुओं का बंध होता है। कारण कि वे अत्यन्त सूक्ष्म स्कंध होते हैं। शिप्य--हे भगवन् ! जय अठारह प्रकार के पापों से निवृत्ति की जाती है, उस समय प्रात्मा के साथ किस प्रकार के पररणुओं का वन्ध होता है ? गुरु- हे शिष्य ! निवृत्ति करते समय जीवोपयोग स्वरूप 1 अहेत्यादि-'अवन्नेत्ति' वधादिविरमणानि जीवोपयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्त्तत्वाध तस्य पधादि विरमणानाममूर्तत्व तस्माश्चावर्णादित्वमिति / RAIEXXXXRAMAILY . . TAXAXEKAREKARKExamare.... MRIKA
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________________ RELIEF-REमरताना E नाबादि के पास - - - // निजस्वरूप में होता।परभमूर्त इस कारपमावि निधि माष मी ममतं सिराए। इसलिये परमाणुमो नाम नही सका / अब पनप नहीं मा, तब भठाय पापों की निपचिके माय बर्ष रस पंप भीर स्पर्ग से रिती सिर पए। इसलिये ममपपापों की निति अपर्क मास मगरम और भस्पर्श पाली कपन की गई। शिम्प- मगवन् ! भीत्पत्तिकी पेनपिकी गर्मजा भीर पारिपामिनी-पास हुदिपीपा प्रापी! गुरु-शिष्य ! पारो प्रकार की पुनियाँ बीष गुरु होने से मापी।मिस प्रकार प्रारमा भबपी पदार्थ उसी प्रकार ग्रीवादि के बुद्धिमापि गुप मी मरूपी मापी सियतम नमें पुमत का समाप नितान्त नहीं माना मा सम्वा / कारण फिरूपी पदार्य पुरस पी भम्प कोई मी पौषि पवार्य रूपी नहीं है। शिप्प मगर ! जिस प्रकार बुद्धि प्ररूपी पनकी / नई सी प्रकार अपप्रा डा (अनाकारोपपोप) प्रभाग | मीर पारणा (साबारोपयोग) ये मी मरूपी। गुरु शिप्प ! क चारों भी जीव गुप होने से | मापी। शिप्प- भगवा . रुपा करके अपमा हा प्रवास | और पारहा-नारों का अप पवाए, जिससे इसके का पोप होगाप। पर-शिप्प!म्मान रेकर इनके भपको सुनो। सामान्य पान को अपमापासे इस से पिशिशपाप का नाम अटः -EX - की - नम्फार
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________________ ENTERTAmxamin AKERATRIKASHY KAIMohrs( 155 ) पहा से विशिष्ट योध का नाम श्रयाय है और अपाय से विशिष्ट शान का नाम धारणा है। शिष्य हे भगवन् ! कोई दृष्टान्त देकर इनके अर्थ को स्पष्ट करके समझाइए। rransmeEAMERICSILPEPREE. गुरु-हे शिष्य !जिस प्रकार कोई व्यक्ति सोया हुश्रा है, जब { उसे शब्द द्वारा जागृत करता है, तब वह निद्रा के श्रावेश पद को न पहचानता हुश्रा भी हुंकार करता है, इसी को वग्रह कहते है / जव वह अवग्रह शान से ईहा ज्ञान में / प्रविष्ट होता है तब वह शब्द की परीक्षा करता है कि यह / शब्द किसका है ? जव फिर वह ईहा से अवाय ज्ञान में जाता है तव वह 'यह अमुक व्यक्ति का शब्द है' इस प्रकार भली भांति जान लेता है। जब उसने शब्द को भली भॉति अवगत कर लिया तब फिर वह उस शब्द के ज्ञान को धारण करता है कि इसने किस कार्य के लिये मुझे जगाया है और यह अमुक कार्य मेरे अवश्य करणीय है। इसी का नाम धारणा है। श्रव ग्रह और ईहा अनाफारोपयुक्त कहे जाते हैं / अवाय और Aधारणा साफारोपयुक्त कहे जाते हैं / अवग्रह और ईहा सामान्य बोध तथा श्रषाय और धारणा विशिष्ट घोध के नाम से कहे जाते है अथवा अवग्रह और ईहा दर्शन के नाम / से तथा अवाय और धारणा शान के नाम से कहे जाते हैं। / जीय गुण होने से य सब अरूपी हैं। . शिष्य - हे भगवन् ! उत्थान कर्म यल वीर्य और पुरुषार्थ। ये रूपी है घा अम्पी ? गुम-हे शिप्य ' जीव गुण होने से ये सव श्ररूपी है।। SXEXPANORastraamYEAXE
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________________ ExeEEPER EDITIEEEEEमस कारप कि पुरपार्थ जीप का निम गुम। शिप्प-भगवन् ! माकाय पीपा प्ररूपी। गुरु-शिष्य ! प्राकारामापी कारण कि पुमतास्ति फाप ही केपहपीशप धर्म ममम पापभीर सीप प्रम्प सब प्रक्षपी। शिम्प-भगवन् ! पन पाठ (कठिन पायु), पात (मनु बाय) अनारषि और प्रपिषीपन में कित्तने पारि इति / गुर-- शिपमनपापु तनु पाप, मनादपिया रम प्रमादि पिपियों में पांच वर्ष पांच रस दो गम भीर पाठ स्पर्ग हो। शिप्प- भगवन् ! भाड स्पर्य कौन कौन से! गुर-रे शिप्प ! १शीत २रण स्निग्पसमा ठिन सा और गुर-पेमार स्प / शिप-मेरपिक में रितने पर्शरि गुरु-शिप्प ! परिदम मैपिजीब किप और जस परीर पर विचार करते तोपर्ण५रसप भीर स्पर्शासिय होते। परि म काम गरीर पर रिचाररत र पर्स र रस 2 पंप मोर "स्पर्ग सिय ते। परिमगीर की मोर देखते तर तो प्रवर्स प्राम प्रगरम पीर प्रस्पर्य सिसोता।कारण किसीप पास सर्पा मिमता मापी मी प्रभार सप जीविप में जानना पाए। निम्नु मोवारिक और मादारक शरीर में माटीस्प जानम पादि। NE-IL-11- 3 0 मामा"
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________________ XxRAT AIRaaramaraGRAH ( 157 ) शिष्य-हे भगवन् ! 1 ज्ञानावरणीय 2 दर्शनावरणीय 3 वदनीय 4 मोहनीय 5 आयुष 6 नाम 7 गोत्र और 8 अतः राय-इन कर्मों की मूल प्रकृतियों में कितने वर्णादि है? गुरुहे शिष्य ! उक्त आठों प्रकार की कौ की मूल प्रतियों में पाच वर्ण, पांच रस, दो गंध और चार स्पर्श होते है। शिष्य हे भगवन् ! जीव के कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पन लेश्या और शुक्ल लेश्या इन छः प्रकार के परिणामों में कितने वर्णादि होते हैं ? र गुरु-हे शिष्य ! कृष्णादि छनों द्रव्य लेश्याओं में 5 वर्ण ५रस 2 गध और स्पर्श होते हैं। किन्तु जो छ भाव लेश्याएँ है वे अरूपी है, कारण कि चे जीव ही के परिणाम विशेष होते है। किन्तु जो कृष्णादि छः द्रव्य लेश्याएँ हैं, वे अनंत प्रदेशी स्थूल स्कंध होने से आठ स्पर्श वाली कथन की गई है। कृष्ण, नील और कापोत -ये तीन अशुभ लेश्याएँ हैं। तेजो, म पन और शुक्ल-ये तीन शुभ लेश्याएँ है। पहली तीन अधर्म लेश्याएँ है और पिछली तीन शुभ लेश्याएँ हैं। पिछली तीनों को धर्म लेश्या भी कहते हैं। ये सब लेश्याएँ कर्म और योग के सम्बन्ध से ही जीव के परिणाम विशेष हैं। शिप्य हे भगवन् ! सम्यग्दृष्ट 1 मिथ्यादृष्ट 2 मिथदृष्ट 3, / चतुर्दर्शन 1 अचक्षुर्दर्शन 2 अवधिदर्शन 3 और केवलदर्शन 4, // श्राभिनिवोधिक ज्ञान 1 श्रुत क्षान 2 अवधि ज्ञान 3 मन. पर्यवशान 4 और केवल ज्ञान 5, मति अज्ञान 1 श्रुत अक्षान 2 Mal और विभग अशान 3, श्राहार संक्षा 1 मय संशा 2 मथुन TEX T ENTtFormswam-~ - -..----- PXXXXCXXEX KORXXKAREERXXX XE= xxciax=c-xa-ri-xe-2 -2 Lever
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________________ नाम - - - E. / संगा। और परिणामबा-मब कपी पामापी भर्यात् पर्यादि से युकवा दिय! एक-शिप्य ! सम्पग दियो उच कर सप जीप परिणाम विपदोने से भरपी पॉफिर्म बम्प सम्पग विचारावि से नही होता अपितु राग शेप मप मार्गा मारावी हो सकता।मता ग्रह सब कमरूपी ग्रिम्प-रेमगवन् ! मम किसे करतेभीर मम रूपी पा भरपी! गुरु-रे शिप्पपिस में रामपाप पारणा तपा मन्थप और म्पतिरेक विचारने की शकिो अपपा प्रबस मनन एहि हो रसीको मन करते। मौरपेम्प मन परमारामों के। संप- प रम 2 गम मौर 5 स्पर्श यास शेत। मता मम रूपी मनु मम्पी। पदि पन एफि सपती हो तो मनोयक्ति भी पागातीपरि निर्यसबाप मनोराधि मी मिर्षको गाती है। मन में भरपन्त सम्पों संचार होने से मी मनोएकि मिस परमाती है अता मनको निरपंच भरपो से निबनबनाना चाहिए। शिप्यो मगमम् / पचन पोम पीपा प्रापी ! AL गुस-रे शिम्य ! मापा पाप्ति के कारण से बचन पांग की प्रति होती है। मोम के परमासूमों स्कंध: प्रगत प्रदेशी होने पर मी प रस पीर स्पर्ण पास होते है। अतः पचम पोग का मी सम्पफाया मिरोष करवाचारिप, मिससेशीतीपारम पाम की प्राप्ति होगा। शिम्प- भगवन् / काप पोग की पा मापी Sx-A ATEEमम्ममा peeDF-FILER-3BE-EXEEE-AT PLEASE
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________________ RMERAMERANGIKARAN AXXXXXKAXXCIXXRAKARMA ( 156 ) गुरु-हे शिष्य ! काय योग के अनंत प्रदेशी स्कंध-५वर्ण / र रस 2 गध और स्पर्श वाले होते हैं। अत ये योग भी RAEBAREERESemenaa / शिष्य-हे भगवन् ! जव ज्ञानपूर्वक मनोयोग, वचन योग पार काय योग का निरोध किया जाय, तप किस फल की प्राप्ति होती है? गुरु-हे शिष्य ! जय तीनों योगों का सम्यग् ज्ञानपूर्वक नराध किया जाए तव श्रात्मा अयोगी होजाता है। योगी आत्मा अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनंत (अक्षय) सुख और अनत शक्ति वाला होकर निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। अतः प्राणी को योग्य है कि वह पहले निरर्थक योगों का निरोध करने का अभ्यास करे फिर अशुभ योगों के निरोध करने का अभ्यास करे, तदनु शुभ योगों का निरोध करके 5 उन योगों को शान और ध्येय में लीन कर देवे, तत्पश्चात् अयोग पद धारण करके सादि अनंत पद की प्राप्ति करे, जिससे ससारचक्र से विमुक्त होकर सदा निजस्वरूप में निमग्न !! होता हुआ परमात्म पद की प्राप्ति कर सके। सब आर्य सिद्धान्तों का यही निष्कर्ष है। तब उक्त गुरु वाक्य सुनकर परम विनयी शिष्य गुरु आशा के अनुसार उक्त क्रियाओं के करन में लग गया, जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो सकती है। XXXXXCXRXKXEXEREKA THA 5 ENTERTEXTRY TRA
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________________ म्यान्मम वारहवाँ पाठ (नीतियानपिपप) प्रिय पाठको नीति शाम के मापपन करने से सम्पत्ता भीर पोग्यता की प्राप्ति होती है मतपरये यास प्रत्येक व्यक्ति के पम्न करने पोग्य है।पपपि नीति शास्त्र के नाम पर पति पपरित नीति शास्त्रों की मी पाकित पारनीति सम्प पुरुषों के लिए पदेय नही है। मोदी रिसमीति। सेकतिपप कार्यो की सिरि मी रोगाती है किन्तु सिरि पिर स्थायिनी नही होती उसका अन्तिम परिणाम मीरसम ही निकलता। भता समीति मारा कार्य सिधि करमा भार्प मौर सम्म समान का मुम्प पम्प होना चाहिए। अब पा मम उपस्पित होवापि नीति में दोनों प्रकार के गोद मिसते तो हमें मी दोनों प्रकार की नीतियों सपी कामना चाहिए / इस माम के समापान में कहा जाता किपाडी किन्तु सभ्प समास को कुरित नीति के भाभित कदापि नहीं होना चाहिए। जैसे कि पों में समकार के मासों का मी विपान पापा गाताता स्पा फिर मार्प पुरुप मार्य प्रौषप को बोरकर मांस मास 5 बन करन हग गाकरापि नारी। इसी प्रकार कुरित नीति विषय में भी मानना चाहिए। ESIयमBSexaमजा पाहिए। DESH मिसले स
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________________ पEXEEXIxx .nnn..... FORX n XEXARIयासासाग--8- EXAXAXXXXXXXXXXXX अब इस पाठ में "नीतिवाक्यामृत" नामक जैन नीति लकुछ सून उद्धृत कर के उनकी हिन्दी की जाती है, लस विद्यार्थियों को नीतिशास्त्र का भी कुछ बोध होजाए / यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः 1 अर्थ-जिससे स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है, वही धर्म है। __ अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः 2 अर्थ-श्रधर्म उसका नाम है, जिससे स्वर्ग वा मोक्ष प्राप्त न हो सके अर्थात् धर्म से विपरीत अधर्म होता है। श्रात्मवत परत्र कुशलवृत्तिाचन्तनं शक्तितस्त्यागतपसी च धर्माधिगमोपायाः 3 / / ____ अर्थ--अपने आत्मा के समान पर को जानना, कुशल वृत्तियों का चिंतन करना, शक्ति के अनुसार दान करना और शक्ति के अनुसार ही तप करना-ये ही धर्म जानने के उपाय हैं। सर्वसत्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमाचरणम् 4 __अर्थ--प्राणिमात्र से निर्वैरता धारण करना-यही परमा. चरण है। न खलु भूतद्रुहां कापि क्रिया प्रसूते श्रेयांसि 5 अर्थ-जीवों की हिंसा करने वाली क्रिया कभी भी कल्याण उत्पन्न करने वाली नहीं होती / श्रत किसी भी al जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। -. - -...---- - - XIX E AXnxxHDXXCOXXCORYXXXXXXXKARERAREENA
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________________ नर-नलमा PiDFPERFEADSEEDDEE ___ मस्मनि हुदमिवापामर्थम्पयः 6 मर्य--मपात्र में भर्प म्पप (राम) रमा ऐसा होता है। सा मस्म (राज) में पन (हाम)। / पात्रं प पिनिय धर्मपात्र कार्यपात्रे मामपा पति 7 मर्प-धर्मपाल कामपाम भीरमापार-पेशीन मकार के पात्र होते हैं। धर्म कापों में अर्थ म्पप परमा-उसे धर्म पान कसे मीभार के लिये भर्य म्पप करना उसी का पम काम पामरे भीर इस संसार प्रमोशन सिर करने केसिपे अर्थ म्पप परमा - उसी का नाम का पात्र सखल मुम्मो सस्म पिनियोगादारमना सरसन्मान्तरे। नपस्पर्षम् - मर्पवास्तव में सोमी पारी मो सुपाम में दान पिता करता है। स्पोंकिपादान परमोफ में भी पुल पर होता है।मता मोमी पपीबोसम्मान्तर रेसिपे मी से पपा / मत्पुत जो सोमी है पातो मर कर यहाँ पर दीपन बोर: गया पासोमी केले! सदैव स्विवानों को नाम पाह __ अर्प-सदैव पारिद्रम से पपभूत म्पमिपी का कौन साधु है!कोई भी नहीं। इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठान पपा 1. अर्थ-इन्द्रिय मीर मन का मिमा परमादी पास जात. -caIFFERE
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________________ PHOTO TAKCHITRAKAXXSameerane KERAYAT ( 163 ) कालेन संचीयमानः परमाणुरपि जायते मेरुः 11 अर्थ-दिनरात्रि परमाणु 2 एकत्र करते हुए उनकी मेरु समान राशि हो जाती है। इसी प्रकार पुण्य और पार तथा विद्या सचय करते हुए बढ़ जाती है। कण्ठगतैरपि प्राणैर्नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः 12 / अर्थ-चे ही व्यक्ति कुशल भति वाले हैं जो प्राणों के कण्ठ तक श्राजाने पर भी अशुभ कर्मों का पाचरण नहीं करते।। खलसङ्गेन किं नाम न भवत्यनिष्टम् 13 . श्रर्य-दुष्टों के संग करने से किस अनिष्ट की प्राप्ति नहीं होती ? अपितु सब प्रकार के अनिष्यों को प्राप्ति होजाती है। अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जनाः 14 श्रर्थ-दुर्जन निज श्राश्रय को ही नाश करते है जैसे फि अग्निजिस काष्ठ से उत्पन्न होता है उसी को ही दग्ध कर देता है। यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः 15 ___ अर्थ-जिससे सर्व प्रयोजन की सिद्धि हो वही अर्थ है / अर्थात् धन द्वारा प्राय' समस्त सासारिक कार्यों की सिद्धि हो जाती है। धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः सुखी स्यात् 16 अर्थ-जो धर्म और अर्थ के विरोध माव से काम को / सेवन करता है, यही सुस्त्री होता है अर्थात् जो स्वदाग सनोप व्रत वाला होता है, वही जन सुखी है / REAKIxxxxxxxxxxxX SEKKAKE-xxxxects .
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________________ SuSORRUPE EEET -माजEO सम वा त्रिवर्ग सेवेस 17 / / प्रर्वधर्म भर्प और काम-बनतीनों को सम माप से / / सेयन करता मा पुस्ती नाही होता / वात्पर्य पाहि-) मारा पाना पास्य दुखी नहीं हो सकता। इन्द्रिपमनामसाइनफसा हि विभूतया 18 मर्थ-विमुक्ति का पही फसमिस इन्दिप और मन / की प्रसपता रहे। नामितेन्द्रियायो कापि कार्यसिद्धिरस्ति 19 मर्प-जो पुरुष प्रमितेन्द्रिय उनके किसी भी कार्य की सिधिनी होती। कामासास्य नाम्सि पिफिस्सितम् 20 र मर्य-पामामत की कोई मी मीपण मी मर्यादा से कोई मी सम्बर से सुपर उपदेश अमानीगसता नतस्प धनं धर्मः शरीरं वा पस्पास्तिशीपस्पासहित 21: मर्य-कामासात म्पपित का पन धर्म और शरीर कप। भी नही। क्योंकि पाकामरूपी भनि मै मासकामा पन धर्म और शरीर का समदी कर देता है। पोऽनुरुवप्रतिसयोरिन्द्रयमस्पार्न स राखा 22 मर्य-रामा पपीता जो प्रमुहम सिर दरे ममान और प्रविहारे सिर पम के समान हो। रमो हि दुएनिग्रहः शिष्टपरिपाचन र पमी 25 मर्य-कुपोका मितहकरना भीर शिरों का पारना , पदी रामामा का धर्म है।
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________________ EXSEXXIIKARXanaxn.ranxxx XX HTRATIMEREKAXXEXERCISExam ( 165 ) य उत्पन्नः पुनीते वशं स पुत्रः 24 अर्थ-जिसके उत्पन्न होने से वश पवित्र होता है वही र पुत्र है अर्थात् जो कुल को पवित्र करता है वही पुत्र है। कुल की पवित्रता शुभाचरण से ही हो सकती है न तु कदाचार से। यो विद्याविनीतमतिः स बुद्धिमान् 25 अर्थ-जिस की बुद्धि विद्या विनय सम्पन्न है वही वुद्धिमान् है अर्थात् जिसकी बुद्धि शास्त्रानुसार है वही वुद्धिमान् है। अनधीतशास्त्रश्चक्षुष्मानपि पुमानन्ध एव 26 o अर्थ-जिस पुरुप ने शास्त्र नहीं पढ़ा वह चक्षु होने पर भी अन्धा ही है अर्थात् सद् असद् बोध से विकल है। नह्यज्ञानादपरः पशुरस्ति 27 __ अर्थ-अज्ञान से दूसरा कोई पशु नहीं है अर्थात् अज्ञानी पुरुष पशु के समान होता है। चरमराजकं भुवन नतु मूर्यो राजा 28 / अर्थ-जगत् राजा से विहीन अच्छा है किन्तु मूर्ख राजा a होना अच्छा नहीं है, क्योंकि वह न्याय और अन्याय को समझता ही नहीं। वरमज्ञानं नाशिष्टजनसेवया विद्या 26 अर्थ-अज्ञान ही अच्छा है किन्तु दुर्जन की सेवा से विद्या ग्रहण करनी अच्छी नहीं है कारण कि उसकी संगति / से पंडित भी पापाचरण करने वाले होजाते हैं / PI A-memer------ XXnxxexxwKEEKXxxnx
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________________ FITNESSGEIC13EE मनसेनामतन यास्ति मिपसंसर्गः३० भर्ष-उस अमृत से क्या मोविप से समिमित हो, भर्यात् विप समिमित प्रमत मी मारने में समर्थ होता है। गुरुघनशीलमनुसरन्ति प्रापेण शिम्पा! 31 अप-शिप्प माया गुरुमनों का ही अनुसरण फरमे पासे होता। नषेपु मृडाजनेषु सम संस्कारो प्रमबाप्पन्पपा कतुं न शक्यते 22 म नतन मिही भाजन में प्रथम संगे गए संस्कार को फिर प्रामा मी दूर नही कर सकता। भास्ममनोमलचखसमवायोगसपयो सम्पास्मयोगः 33 मर्य-पारमा मन शरीरस्थ वायु एपिषी पारि तलइन सब का सम मादी अम्पारमपोग कहा जाता है। क्रियाविशयपिपाकोतरम्यासा 25 भर्प-प्रत्येक कार्य की सिमि में पम्पास मुम्पमा H भम्पास से सब का सिरो साते। तस्मसमप्पमुखं यत्र नास्ति मनोनिति मर्प-पर सुन मी कुणकप जिससे मनको योति / . नहीं पाती। तरसमपि न दुख या न किरपते मनः 36 / / पर- पाच मी दाबी मिसमें ममफोसमलेश नहीं होता। REELEBERREE--. EEEEEEEE .. - . - -
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________________ AMERIODIGERani KAJLR-mneence... KIMEXSTORIXXX (167 ) / अपराधकारिषु प्रशमो यतीनां भूपणं न महीपतीनाम् 37 . अर्थ-अपराध करने वालों पर क्षमा करना यतियों के लिए शेभाजनक है, राजाओं के लिए नहीं। अर्थात् अपराधियों को न्यायपूर्वक शिक्षित करना ही राजाओं का धर्म है न तु दयावश क्षमा करना। 6 धिक् तं पुरुषं यस्यात्मशक्त्या न स्तः कोपप्रसादौ 38 ____ अर्थ--उस पुरुष को धिक्कार है जो आत्म शक्ति के अनुसार काप और प्रसन्नता को नहीं जानता। अर्थात् क्रोध और प्रसन्नता श्रात्म शक्ति के अनुसार किये जाने पर ही शोभाप्रद होते है। विपदन्ता खलमैत्री 36 अर्थ-दुष्टों की मैत्री कष्टों के देने वाली होती है। अध्यापनं याजनं प्रतिग्रहो ब्राह्मणानामेव 40 अर्थ--अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह- ये तीन कर्म ब्राह्मणों के ही हैं। भूतसंरक्षणं शस्त्राजीवनं सत्पुरुषोपकारो दीनोद्धरणं रणेऽपलायनं चेति क्षत्रियाणाम् 41 अर्थ--प्रजा की रक्षा करना,शस्त्र से जीवन निर्वाह करना. सजन पर उपकार करना, दीन और दुखियों की सहायता करना, संग्राम में न भागना--ये ही कर्म क्षत्रियों के हैं। वार्ताजीवनमावेशिकपूजनं सत्रप्रपापुण्यारामदयादानादिनिर्मापणं च विशाम् 42, XmAARIKARARI XXXDAAR AKARXXX
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________________ BS- BETEEFIFICE P - - - - ----- ( 18 ) मर्य-कृषिकर्म पशुपासन मिफपट किपा राफिक अनुसार प्रदान करना (सदामत) प्रपा (पानी पान का स्थाम) पुण्य क्रिया माराम (पाप) लगाना बापासम्मति परना-पेशी कर्म पौ / ___ त्रिवर्णेपमीन कामाशीसकर्म पुएपपुटयान : रादाबाम् 43 | मर्याक्षस समिप भीर श्यों की सेवा करना पर कुपीरुप पर्म तथा मिनुमों की सेवा करना-येही कर्म पदों स किंरावा यो न रपति प्रसार 54 मर्प पा फ्पा रामाजोप्रया की रवा नहीं करता। दानावसानः कोपो प्रामयानाम् 45 मर्य-प्रासदों का कोप दान पर्यन्त ही होता। प्रयामागसाना कोपो गुस्याम् 46 मर्प-गुरमों का कोप नमस्कार पर्यम्त ही होता मात् विनय पूर्वक नमस्कार करने पर गुलमों का कोप शाम्तो माता। प्रापापसाना कोपो पधिपायाम् 7 मर्य-पषियों (पमामों) का काप मार सेने पर्पत रोताहै। प्रियवचनाबमानः कोपो पगिम्बनानाम् 58 ' यापारियों का कोप मिपयन बोसते ही 'शाम्त , माता। सामान्य
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________________ -sv Title- S E XRRAYCHER ( 166 ) ___ वैश्यानां समुद्धारकप्रदानेन कोपोपशमः 46 अर्थ-वैश्य जनों का कोप उधार देने से शान्त हो जाता है। mexGXOXIXIMEXICOMXEXICAL दण्डभयोपधिभिर्वशीकरणं नीचजात्यानाम् 50 .. अथ-नीच जाति वाले व्यक्तियों का कोप दंड और भय . देने से शान्त हो जाता है। न बणिग्भ्यः सन्ति परे पश्यतोहराः 51 अर्थ-कूट तोल मापादि करन वाले वैश्यों से बढ़ कर 5 कोई चोर नहीं है क्योंकि अन्य चोर तो परोक्ष में चोरी करते हैं, किन्तु ये प्रत्यक्ष में ही चोरी करते है। चिकित्सागम इच दोपविशुद्धिहेतुर्दण्डः 52 अर्थ सन्निपातादि दोष की निवृत्ति के लिये जिस प्रकार वैद्यक शास्त्र है उसी प्रकार श्रात्मशुद्धि के लिये भी दण्ड विधि है। नास्त्यविवेकात्परः प्राणिनां शत्रुः 53 अर्थ-अविवेक से बढ़ कर प्राणियों का कोई शत्रु नहीं है। बहुक्लेशेनाल्पफलः कार्यारम्मो महामूर्खाणाम् 54 / अर्थ-वे महामूर्ख हैं जो ऐसे काम को आरंभ करते है जिससे क्लेश तो वहुन हो और फल अल्प ही निकले। दोपभयान कार्यारम्भः कापुरुषाणाम् 55 अर्थ-वे कातर पुरुष है जो दोपों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते। HEREMIX -- wwwxcomxxxxxxxxxxxcoxRAImextump uoming
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________________ GEGEGLIGGER ENEFIEIEES मृगाः सन्तीति किं कपिन क्रियते 56 अर्थ-क्या मगों मप से रुपकलोग पेती नहीं करते ! अजीर्यमपाद किं मोजनं परित्पन्यसे 57 / अर्थ-+पा प्रनीस के मय से मोसन की परित्याग विप जा सकता है। प्रियंवदः शिखीव विपत्सर्पानुप्यादयति 58 ' अप-विस प्रकार मोर के राम से सर्प माग जाते। उसी प्रकार मिप माषण से भाग मारो। दुरारोहपादप इस दण्गभियोगेन फलप्रदो भवति नीचमरुति 59 मर्थ-तुरारोह पर मिस प्रकार बलगम सही पस देवारसी प्रकार मीच मरुति पाने पुरप भी बरसे अह त / स महान् पो मिपस्म पर्यमवसम्मते 60 / मर्थ--पही पानी पिपत्तिकास में भी प्रबलम्बन उचापकसं हि सर्वकार्येषु सिबीनाप्रपमोतराप६१ मर्प-मित की पाऊत्तता ही सर्व कापी की सिपि में पामा भम्सराप प्रात् सब सह पर वित्त की पार सता ही कार्य मिसि में पापिन / न समारेन किमपि पस्तु मन्दरमसन्दरं वा पस्य M यदेव प्रतिमाति तस्प तदेव मुन्दरम - , -, 2SKE-2GIE
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________________ ( Herit T RIPELLEndan ( 171 ) . श्रर्थ--स्वभाव से न कोई वस्तु सुन्दर है न असुन्दर "तु जिसको जो पदार्थ अच्छा लगता है उसके लिये यही पदार्थ सुन्दर है। परस्परं मर्मकथनमात्मविक्रम एव 63 श्रथे--परस्पर मर्म कथन करना ही कलह का फल है। क्षणिकचित्तः किश्चिदपि न साधयति 64 अर्थ-~क्षणिक चित्त वाला कोई भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता। स्वतन्त्रः सहसाकारित्वात सर्व विनाशयति 65 श्रर्थ~स्वतंत्र व्यक्ति विना विचारे काम करने से सब कुछ नष्ट कर देता है। अलसः सर्वकर्मणामनधिकारी 66 श्रर्थ--श्रालसी सब कामों के अयोग्य होता है। प्रमादवान् भवत्यवश्यं विद्विपां वशः 67 अर्थ- प्रमाद युक्त व्यक्ति अवश्य चैरियों के वश पड़ जाता है। ___ कालमलभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तेत 68 अर्थ-जय तक ठीक मौका नहीं मिलता तब तक शत्रु के साथ भले प्रकार से वर्तना चाहिए / किन्नु खलु लोको न वहति मी दग्धुमिन्धनम् 66 अर्थ-क्या लोग इन्धन को जलाने के लिये शिर पर नहीं उठाते हैं ? अवश्य उठाते हैं। REASIEXXKAKERAYERIESXXXIETY S
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________________ RUE स्मा -SERE : नाम- TERMix ग उत्सेको स्वगतमपि कार्य विनाशयति 70 मर्प-मईकारी पुष इस्तगत ए कार्य को भी ना देवा। यामा बापो पालादपि ग्रहीयास 71 - अर्थ-परि मास मी युषित वचन को तो गरें मी। प्रहप कर सेमा चाहिए। रखेरविपये किम दीपा प्रकाशयवि 72 मर्प-पपा सूर्य मस्त बोबाने पर पीपक काम नहीं करता। अबश्य करता है। पिम्पायता प्रदीपस्पेष नयहीनस्य द्विा 73, मर्प-मम्पाप से उत्पम किये प. पन पाहे की पुमत इप दीपक की मांति माननी चाहिए। नारिचार्य किमपि कार्यपात 75 मर्प-बिना पिपारे कोई भी पान करना चाहिए। पार्मिक साचारामिवनपिगमा प्रतापवाभपानुगत चिम सामी 75 अर्प-पार्मिर, ऊमीन सदाचारी प्रतापी मीर पाप पति पासा स्वामी रो सकता। कोपप्रसादयोः स्वतंत्रता मारमाविशपार्दर्न वा / पस्पास्ति स स्वामी अर्थ-कोप और प्रसार में स्पतंत्रता भीर भारमा का भतिशप मिसका पासा पदी स्वामी गोमाजात 3 URGER -- / X
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________________ ALKATAARAarmanart ROM mirmireoxRXXXRECORREXI ( 173 ) पराधीनेषु नास्ति शर्मसंपत्तिः 77 __ अर्थ-पराधीन पुरुषों के सुख और संपत्ति नहीं ठहर सकती मार्जारेषु दुग्धरक्षणमिव नियोगेषु विश्वासकरणम् 78 / अर्थ-जिस प्रकार दुग्ध की रक्षा के लिये रखे हुए माजोर दुग्ध की भली प्रकार रक्षा नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार नियोगियों के विषय में भी (गुमास्ते श्रादि) जानना चाहिए अर्थात् वे मार्जारवत् होते हैं। कोशो हि भूपतीनां जीवितं न प्राणाः 76 कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरम् 80 यस्य हस्ते द्रव्यं स जयति 81 अर्थ-राजाओं का जीवन कोप ही होता है नतु प्राण / कोष ही राजा कहा जाता है नतु राजाओं का शरीर राजा / जिस के हाथ में धन होता है, उसी की जय होती है। यः सम्पदीव विपद्यपि मेद्यति तन्मित्रम् 82 अर्थ-जो संपत् दशा के समान ही विपत्ति काल में स्नेह है करता है, वास्तव में वही मित्र है। यः कारणमन्तरेण रच्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् 83 अर्थ-जो कारण के विना ही रक्षा करता है वह नित्य मित्र होता है। जो सम्बन्धि होते हैं वे सहज मित्र होते हैं। जो अपने स्वार्थ के लिये मित्रता रखता हो वह कृत्रिम मित्र
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________________ म्पसनेप्पसानमर्षेपविसम्पाखीपु परमं शीर्ष कोप में प्रसादविषये बामविपपस्वमिति मित्रगुहार अर्प-कर में गिना दुलापे स्पतिवो गाना धन की प्पा न रखना श्री विषय में परमशोष रिपासा हवा कोप क समय प्रसपता की पानही रबमा-पेही मिन के LATEFAT -- सीसगतिविवादोन्मीचखयाचनमप्रदानमर्षसमन्म' परोपदोपग्रह पैयन्पामगर्न र मैत्रीमेदकारबानि 85 / मर्प-मिर की स्त्री से संसर्ग मित्र से विवाद मिस: पुन 2 पाचमा करना मिमोनना पन से ही सम्पन्म: रखना मित्र पराध में मिष की निन्दा मुममा प्रपना गही करना प-मिमता के मेदकारण है। नपीरास्पर महबस्ति यस्संगतिमायोति मीरमा म्मममम् 86 मर्प-दुग्ध मे प्रम्प का मित्रही जो संगतिमान मी मह को अपने समान परता। न नीगरपरं महदस्ति पन्मिसितमेव सपर्षपति रपति प स्पषपेग पीरम् 87 अध -प्रम ममी पाई और सहा नही है जो पुपर के साथ मिलती रप की पीता है और अपने परम की गवा करना।
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________________ IANS ECTREAT MERICA ( 175 ) कलत्रं रूपवत् सुभगमनवद्याचारमपत्यवदिति महतः पुण्यस्य फलम् 88 अर्थ-रूपवती, सौभाग्यशालिनी, सदाचारिणी (पतिवता) भार पुत्रवती स्त्री महान् पुण्य का फल है / न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापल्पं परिहरति 86 अर्थ-सैकड़ों शिक्षाओं से भी वन्दर अपनी चपलता नहीं छोड़ता। अव्यायामशीलेषु कुतोऽग्निदीपनमुत्साहो देहदाय च 60 अर्थ-जो व्यायामशील नहीं है, उन के अग्निं दीपन, 7 पात्मिक उत्साह, और शरीर की दृढ़ता कहां से उत्पन्न हो लोभप्रमादविश्वासैर्वृहस्पतिपुरुपो वध्यते चञ्चयते वा 61 अर्थ-लोम, प्रमाद और विश्वास से वृहस्पति के समान पुरुष भी बंधा जाता है वा छला जाता है। आतः सर्वोऽपि भवति धर्मवुद्धिः 62 अर्थ-व्याधि वाले सब ही धर्म वुद्धि पाल वन जाते हैं। __ व्याधिग्रस्तस्य ऋते धैर्यान्न परमौषधमस्ति 63 - अर्थ-रोगी को धैर्य के सिवाय अन्य कोई परम औषध नहीं है। .. स महाभागो यस्य न दुरपवादोहतं जन्म 64 अर्थ-वह महाभाग वाला है, जिस का जन्म कलकित / नहीं था।
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________________ GOLDGIIGESED BEECEEECEBIEDOGIC न भयेपु विपादः प्रतीकारः फिन्तु पर्यावलम्पनम् 65 भय-मपसमप चित्त का विपाद उपकारकी होता किन्तु धैर्य धारण करना ही उपकारक रोगा। शनुवापि सामान पयितम्पम् 66 अर्थ-धुनों के मी शुम पापोहए तृपित म पर चाहिए। / स किं पुरुषो योऽकिंचना सन् फरोति सियामि / सापम् 67 अर्थ-पापा पुरुषो सपा धनहीन होने पर विषपामिलाप करता है। न ते मृता पेषामिहास्ति शास्ससी पनि 68 अर्थ- मृत म जानम पारिप, जिन की शास्वती कीर्ति इस जगत् म नियमाम है। श्रीएपपरप मर्वप्पानि माता पसप्रमप्राप्तम्यपहारावि पापस्पानि 88 भर्थ--माता जी मोर पाप सन्तान- तीन अपरप मरण करन पोम्प होते। स कि प्रयी कार्पकाले एव न सम्मावपति मृत्पान् 100 प्रव-पापा प्रमुखोपाम के ममप अपने पापो को प्रमप नहीं करता। म कि मृस्य मसाबा या कापमपिरपाप पापते 1.1 FISO E
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________________ WCOMXXXXRAKARExam xxxxesTRIKRRExe -- - - - ANKIRTEEKERXXXPREmxxxxnxxame ( 177 ) अर्थ-वह क्या भृत्य और सखा है जो कार्य के समय धन याचना से नहीं हटता। पार्थन प्रणयिनी करोति चाङ्गाष्टिं सा कि भार्या 102 .. अर्थ-जिस स्त्री का पति से फेवल धन और विषय के उद्देश से ही प्रेम है, वह भार्या ही क्या है। / स किं देशो यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः 103 अर्थ--वह देश ही क्या है, जहां पर आत्मवृत्ति नहीं है। स किं बन्धुः यो व्यसने नोपतिष्ठते 104 अर्थ--यह भाई क्या है जो कष्ट के समय सहायक नहीं होता। तत्कि मित्रं यत्र नास्ति विश्वासः 105 अर्थ--वह मित्र ही क्या है जिस पर विश्वास नहीं है। स किं गृहस्थो यस्य नास्ति सत्कलत्रसंपत्तिः 106 अर्थ-जिस गृह में आशाकारिणी और पतिव्रता स्त्री नहीं है, वह गृहस्थ क्या है। तत् किं दानं यत्र नास्ति सत्कारः 107 अर्थ-वह दान ही क्या है, जहां पर सत्कार नहीं है। तत् किं भुनं यत्र नास्त्यतिथिसंविभागः 108 अर्थ-वह खाना हा क्या है जहां पर अतिथि संविभाग (अतिथि सत्कार) नहीं किया जाता। तत् किं प्रेम यत्र कार्यवशात् प्रत्यावृत्तिः 106 अर्थ-यह प्रेम ही क्या है जो किसी कार्य के वश होकर / किया जाता है / अर्थात् प्रेम गुण से नहीं अपितु कार्य मे है।। - XXGAAILEROL (MAA
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________________ - 11- ICE स्नाना-नाpaaE ( 178 ) वत् किमपरप पत्र नाश्पयन विनयो का 110 मथ-पा प्रपत्य दरी पपा है जो न तो विवाद और : - म विनयशीसदी। सकिशानं यत्र मदेना पवा पिचस्य 111 अर्थ-पापान ही पपा है जिसके पड़ने से पितको मद स भाइसता हो जाप / सरिक सौमन्प यत्र परोपे पिगुनमायः 112 अर्थ-पा मसमता ही क्या है जिसमें परोप में पुगती - की जाती है। मा किं भीपया न सन्तोपः सस्पुमायाम् 113 मर्थ-पासमी क्या है जिसकी प्राप्ति में संतोषनहीं होता मर्यात शासच से भीर मी तुम्न होता। सर्तिकस्य पत्रोग्रुिपस्तस्य 114 मर्प-पा उपकार ही पा जिसके फस की बात। मर्यात् सिम पर उपकार पिपा गया रमी से उसके फलपी बाारखी सापे तो पिर पर उपकार की पारे। उपस्प मुझमायोऽमिनातीनाम् 115 अर्थ- कुलीन पुरष म्पकार परक मूहोगाते हैं। परदोषभवसे बघिरमारा सत्पुरुपायाम् 116 / / ई-परदोष भषण करने में मापुरुपों का पिर होता है। न परकत्तप्रदर्शने अन्यमापो महामारपानाम् 117 13-9 ASTE 3x aurat
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________________ XRANG ( 176 ) में अर्थ-पर स्त्री के दर्शन करने में महाभाग्यवानों का अन्ध भाव होता है। अर्थात् महाभाग्यवान वही है जो पर स्त्री को 4 काम दृष्टि से नहीं देखते। . चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाचिकुर्वाणासे स्तिष्ठन्ति 118 अर्थ-नीच पुरुप चनों की तरह उदर में स्थापन किये जाने पर विकार किये विना नहीं ठहरते। अर्थात् जिस प्रकार चने उदर में जाने पर विकार उत्पन्न किये विना नहीं रहते उसी प्रकार नीच पुरुष कतिपय उपकार किये जाने पर के भी विकार किये विना नहीं रहते। तत्सौभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणम् 116 अर्थ-सौभाग्य वही है जिसमें दान से अन्य प्रात्माओं को वश किया जाए। सा सभारण्यानी यस्यां न सन्ति विद्वांसः 120 __अर्थ-वह सभा श्ररण्य के समान है जिसमें विद्वान् नहीं है अर्थात्-सभा वही होती है जिसमें विद्वानों का समागम हो। क्योंकि जय समा में विद्वानों का समागम होता है तव तत्त्व पदार्थों का निर्णय भली भाति हो जाता है / यदि मूर्ख मंडल एकत्रित होजाए तव परस्परविवाद और वैमनस्य भाव उत्पन्न होता है / अत सभा वही कही जा सकती है जिस में विद्वान् वर्ग उपस्थित हो। नीति शास्त्र में अनेक प्रकार के अमूल्य शिक्षाप्रद रत्न मरे A पड़े है, विद्यार्थियों को योग्य है कि वे नीति शास्त्रों का स्वाध्याय LEOXIPEDXTREAKERXMAGEXXX
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________________ BREAKजसमा करें मिससे रनको उम शिता मरममस्प बों की प्राप्ति हो साए / स पाठ में दोपहनीतिशास्रोपों का रिम: मनीपा गया। परि नीति शास्रक शिवा धर्म मीति पूर्वकम्पबहार में माईगाएं तो मारमा निवौर पर केस्पाय करने पासा हो जाता है जिससे पर मयुष्मता - पूर्वक निर्यानाधिकारी मी माता। LDI-E-Eमामामनिटन
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________________ ---- - - -NAM ALS . A C . तेरहवाँ पाठ PoraRIXXRXXXKAHANE (शिक्षा विषय) प्रिय पाठको! मनुष्य का जीवन शिक्षा पर ही निर्भर है। प्रायः जिस प्रकार की शिक्षा मनुष्य को मिलती है उसका जन्म उसी ढांचे में ढल जाता है। इसी लिए धार्मिक पाठशालाओं की अत्यन्त आवश्यकता है जिनसे धार्मिक शिक्षाएँ उपलब्ध हो सकें। आधुनिक शिक्षा त्याग के स्थान पर स्वच्छ। न्दता की ओर विशेषतया ले जाती हैं इसी लिए देश की दशा विचारणीय हो रही है / जव देश अपनी निज स्थिति पर नहीं रहा तो फिर धर्म विषय का कहना ही क्या है ? अत. प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को धार्मिक शिक्षाओं से विभूषित करने की चेष्टा करे। अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि धार्मिक शिक्षा किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि धार्मिक शिक्षाएँ उनका नाम है जिनसे न्याय पूर्वकर्ताव किया जाए। श्रत ये धार्मिक शिक्षाएँ साधु धर्म और गृहस्थ धर्म दोनों से सम्बन्ध रखती है। अतः अपने अपने धर्मानुकूल दोनों के लिये वे शिक्षाएँ उपादेय हैं। प्रय विद्यार्थियों के लिये इस पाठ में-सस्ता साहित्य A प्रकाशक मंडल अजमेरसे मुद्रित “तामिल घेद" नामक पुस्तक
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________________ ABSTEम्मा -- -- -- से कुप शिक्षाएं अप्रत की जाती है। संसारस्यागी पुरुषों की महिमा परमो चिन लोगों में सब कुछ स्पाग दिया और मो तपस्थी जीपन व्यतीत करते धर्म शासनकी महिमा को भीर सप वातों से अधिक कर बताते 2 तुम वपस्वी लोगों की महिमा को नहीं माप सकते।। यह काम उतनादी कठिन पिना सब मुषों की गणना करना। देखो सिम लोगों ने परलोक साप सोफा मुहर बझा करने के बाद इसे स्पाग रियामकीपी मारिमा से पर पूणी जगमगा दी। दमो मो पुरुष अपनी सप इपका पति के माप अपनी पाँचों इन्द्रियों को इस धरा परा में रखता मिस तराापी कुरामारा सीमूव मिपा माता है वास्तव में बी स्वर्ग के पतों में बोने बोम्प पीय जितेन्द्रिय पुरुपकीशक्षिकासाची स्वयं बरामद। महापुरप बही यो मर्समय कापीका संपादन करते और पुर्षत मनुप्प , निमसे ये काम दोमहीसपते / देबो यो मनुप्प शप स्पर्श सप एम पीर गपनम पोप इन्द्रिय विपपों का पपादित मूस्प सममता पसारे ससार पर शासन करेगा। संसार मरधर्म प्रपसत्प पाल मदारमानों की मीमा की घोषणा परत है। त्पाप की बात पर बाप मदारमाभों पर / ) को एक परामर मी सासेना मसंग ---- --- - SPEECHERE - ..-----------
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________________ RAILX.inxxmmmxmAJLAMAnema .misment - - - ( 183 ) 10 साधु प्रकृति पुरुषां ही को ब्राह्मण कहना चाहिए / वही लोग सब प्राणियों पर दया रखते हैं। __ धर्म की महिमा का वर्णन MVM ARMromAAILE-IAL:- XKENARIKERAKERAwwxcom / की प्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्म से बढ़ कर लाभ दायक है 1 वस्तु और क्या है। 2 धर्म से बढ़ कर दूसरी और कोई नेकी नहीं और उ मुला देने से बढ़ कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है। 3 नेक काम करने में तुम लगातार लगे रहो अपनी पूरी शक्ति और सब प्रकार से पूरे उत्साह के साथ उन्हें 3 करते रहो। 4 अपना मन पवित्र रक्स्रो धर्म का समस्त सार वस / एक ही उपदेश में समाया हुआ है / वाकी और सब बातें कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र है। 5 ईर्ष्या, लालच, क्रोध और अप्रिय वचन-इन सब से दूर रहो, धर्म प्राप्ति का यही मार्ग है। 6 यह मत सोचो कि मैं धीरे धीरे धर्म मार्ग का अवलम्बन करूंगा वल्कि अभी बिना देर लगाये ही नेक काम करना शुरू कर दो। क्योंकि धर्म ही वह वस्तु है जो मौत के दिन तुम्हारा साथ देने वाला अमर मित्र होगा। 7 मुझ से यह मत पूछो कि धर्म से क्या लाभ है ? यस एक वार पालकी उठाने वाले कहारों की ओर देखलो और फिर उस आदमी को देखो जो उसमें सवार हो /
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________________ AERISPERIE ममयर (11) अगर तुम एक मी दिम स्पर्ष भर किपे पिना समस्त जीवन में काम करते होठो तुम प्रगामी सम्मों का मार्ग पल पिप देते हो। केबस मनित सुबपी वास्तविक मुबारी सब ता पीड़ा और क्षमा मारे। १.गो का धर्म संगठबसपही कार्परूप में परिहत] करणे पोम्पाइस मिनी पातें धर्म निर से दूर राना चाहिए। प्रेम V E एसा रेप अषमा रामो प्रेमरपालेको / पद पर सफे। प्रेमिपों की पांचों के हित मा-पितु समश्य ही रस पिस्थिति की पोपचा किपे पिया करेंगे। २को प्रेम नाही करते थे सिर्फ अपने ही किये जाते है मगर जो इसरों को प्यार करतेपन की रदिप भी इस काम पाती। पाकिम का मज़ा पोलिपे पास्मा पक बार फिर मस्सिपियर में होने को राजी भा। प्रेम से वप बिग्य हो गया और मसापीनवा! से मित्रता पी एम्पा पैदा होगा। होगों का कारना किमाम्यवाणी का सीमाम्म इस लोकभीर परलोकमोनोसानों में पसके विरतर म पारितोपित पब मोकातेहि प्रेम
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________________ * --AT . m MEXTRARAMATERIXXNERIES ( 185 ) के लिये हैं। क्योंकि वरों के विरुद्ध खड़े होने के लिये भी प्रेम से ही मनुष्य का एकमात्र साथी है। 7 देखो अस्थिहीन कीड़े को सूर्य किस तरह जला देता है उसी तरह नेकी उस मनुष्य को जला डालती है जो प्रेम नहीं करता। ८जो मनुष्य प्रेम नहीं करता वह तभी फले फलेगा जब मरुभूमि के सूखे हुए वृक्ष के राठ में कोपलें निकलेंगी। वाह्य सौन्दर्य किस काम का जय कि प्रेम, जो आत्मा al का भूषण है, हृदय में न हो। 10 मेम जीवन का प्राण है। जिस में प्रेम नहीं, वह केवल मास से घिरी हुई हड़ियों का ढेर है। कx20-RDIKeXXSOKHRESTESAKCEACEAMDAAS YHMEDARDIXIOXXXCODAIEDAXXXXIXESAXERam ICALAMARINEETIRKALEEXXEET मृदु भाषण 1 सत्पुरुषों की वाणी ही वास्तव में सुस्निग्ध होती है क्योंकि वह दयाई कोमल बनावट से खाली होती है। 2 औदार्यमय दान से भी बढ़कर सुन्दर गुण वाणी की मधुरता और दृष्टि की स्निग्धता तथा स्नेहार्द्रता में है। 3 हृदय से निकली हुई मधुर वाणी और ममतामयी स्निग्ध दृष्टि के अन्दर ही धर्म का निवास स्थान है। 14 देखो जो मनुष्य सदा ऐसी वाणी बोलता है कि जो सब हदय को पाल्हादित कर दे उसके पास दुःखों की अभिवृद्धि करने वाली दरिद्रता कभी न आयेगी? ५नम्रता और स्नेहार्ट वक्तृता चस केवल ये ही मनुष्य के म आभूपण है और कोई नहीं /
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________________ LATESEX ( 1 ) पदि तुमारे पियार राम और पवित्र है और तुम्हारी पासी में सादयता वो तुम्हारी पापातिका चयहोगापमा और पर्मशीलता की भमिचि होगी। सेवामाप को प्रदर्शित करने वाला और बिमन पर मित्र माता और बात से शाम पापाता। येशम जो किसापपता से पूर्ण और वा से रहित होतसोक मौर परलोकदोनों ही जगहमाम पांचते है। भूति प्रिय रागों के अन्दर गो मापुरता है उस अनुभष करने के बाप मी मनुप्प र रामों का प्पबहार करना क्यों नही चोरता। 10 मीठे शो केराते हुए भी मो ममुप्प काय का प्रयोग करता परमानो पके फल को धोडपर कपा फल खाना पसन्द करता है। SEXमामा - -- -- कृताता पासान करके विचार से रहित होकर यो पा रिनतारातीहै स्वर्ग मर्प दोनों मिकर मी सका परता मही पुका सकत। २मारत पायो मारपानी की जाती पारगमे में चोरी भीमगर पर तमाम दुनिया से ज्पावरापजनदार। : बाइपास को छोड़कर जो मसा की जाती पर / समुद्र से भी अधिक पसपती है। किमी म प्राम किया ामा साम की सरा पोरा LALJIERIEEEE .--
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________________ m-BAAR 24XIXXHD ( 187 ) नि हो किन्तु समझदार आदमी की दृष्टि में वह ताड़ के वृक्ष के वरावर है। .5 कृतलता की सीमा किये हुए उपकार पर अवलम्मित हा है। उसका मूल्य उपकृत व्यक्ति की शराफ़त पर निर्भर है। 6 महात्मायों की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो जिन्होंने मुसीवत के वक्त तुम्हारी सहायता की। 7 जो किसी को कष्ट से उवारता है जन्म जन्मान्तर तक उस का नाम कृतज्ञता के साथ लिया जायेगा। 8 उपकार को भूल जाना नीचता है लेकिन यदि कोई भलाई के बदले वुराई करे तो उस को फौरन ही भुला देना शराफत की निशानी है। हानि पहुंचाने वाले की यदि कोई मेहरवानी याद आ ! जाती है तो महाभयकर व्यथा पहुंचाने वाली चोट उसी दम / भूल जाती है। 10 और सय दोपों से कलंकित मनुष्यों का तो उद्धार हो / सकता है किन्तु अभागे अकृतज्ञ मनुष्य का कभी उद्धार न होगा। EKRITERLXRXY RAIXXXRAKERACLEARRAXXXXX आत्म संयम 1 श्रात्म संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है, किन्तु असंयत इन्द्रिय लिप्सा रौरव नरक के लिये खुली शाह राह है। 2 आत्मसयम की अपने खजाने की तरह रक्षा करो उस से पढ़कर इस दुनिया में जीवन के पास और कोई धन नहीं है। 3 जो पुरुप ठीक तरह से समझ बूझकर अपनी इच्छाओं // (
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________________ म्ससामानna AP ILZEEC49GEBEGAGGEA. नावमन करता मेपा और मम्पसरी नियामते उस मिटेगी। जिस ने अपनी इमा को जीत सिपा और शो अपने तम्प से विपरित नहीं होता रस की भाति पहा से भी बाफर रोबोदराबवासी होती है। ममता समीको सोती। मगर बामपनी पूरी शान साप अमीरों में ही चमची है। मो मनुप्प अपनी इन्द्रियो को पसी राप्रपमे में बींचर रमवासिस सराफामा अपने हाथ पर हो नींच पर मीतर कृपा सेवापस अपने समस्त प्रामामी सम्मोसिसमाना ममा कर स्वाहै। और किसी कोबारे तुम मत पेको मगर अपनी पूपाम: को मगाम दोपपौकिमगाम की पान पास पुल पेशी।। 8 मगर तुम्हारे पाप से भी किसी को पीका पाँचती तो तुम अपनी सब मेसी नए सममो। भाग का असा मा वो समय पाकर अप्पा हा साता मगर पान का बगाइमा सम्म सबारा बना रखा है। 1. उस माप को देमो जिसमे दिपा पीर पुरि माप्त / कर ली है जिसकामन शाम्त और पूर्यता बरा में पार्मिकता और मेकी रसका न करने पेस पर में माती। सदाचार निस ममुप्प का भावरष पषित समीरसहीत करते समय सदाचार को माग से पाकर समयमा
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________________ PEAKERAYImxKRITIEAXSAXEXXEKLY अपने पाचरण की खूब देख रेख रक्खो क्योंकि तुम / जहा चाहो खोजो सदाचार से बढ़ कर पका दोस्त कहीं नहीं - पा सकते। . 3 सदा सम्मानित परिवार को प्रकट करता है,मगर दुरा चार मनुष्य को कमीनों में जा विठाता है। वेद भी अगर विस्मृत हो जाएँ तो फिर याद कर लिये जा सकते है मगर सदाचार से यदि एकवार भी मनुष्य स्खलित / हो गया तो सदा के लिये अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाता है। 5 सुख समृद्धि ईर्ष्या करने वालों के लिये नहीं है ठीक * इसी तरह गौरव दुराचारियों के लिये नहीं है। 6 दृढ़प्रतिक्ष सदाचार से स्खलित नहीं होते क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकार के स्खलन से कितनी आपत्तियाँ भाती हैं। 7 मनुष्य समाज में सदाचारी मनुष्य का सम्मान होता है लेकिन जो लोग सन्मार्ग से बहक जाते हैं बदनामी और घेइजती ही उन्हें नशीच होती है। सदाचार सुख सम्पत्ति का बीज बोता है मगर दुष्ट प्रवृत्ति असीम असीम आपत्तियों की जननी है।। वाहियात और गन्दे शब्द भूल कर भी शरीफ श्राद्मी की जुयान से नहीं निकलेंगे। 10 मूखों को और जो चाहो तुम सिखा सकते हो मगर सदा सन्मार्ग पर चलना वे कमी नहीं सीख सकते। REAKERXXXREKXKRISKARXComixer TARATEEKREETERES mun .
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________________ कानमन्मलानमाला ( 1. ) 1 शान्तिपूर्वक पुरसान करना और जीप हिंसा , करमा बस इमी में तपस्पा का समस्त सारी। 2 तपस्पा तेजस्वी लोगों क सिपीसरे सोगों का र तप करमाकार। सपस्तियों को बिसाने पिलाने मोर सनकी सेवा राम करने के लिये पुष गोग होने चाहि पा इमी पियार से, पाकी लोग तप करना मूम गरे। परि तुम अपने मोहानाय करमा और नसोगों को उसत बनामा पारवे दोनो तुम प्यार करते है तो ग्राम रक्यो किया कि तप में है। नप समस्त कामनामों को यषेप रूप में पूरी कर देता स लिये मोग पुनिया म तपस्पा कसिय सयोग रते। मोगमपारही हो सासर में मरमा * मला परत पाकी सब तो लालसा में फंस हुए। और , मपम को पाल रामि दीपपात है। + सामे पो सिम माग में पिमनाते जितनी : पाया सरपोती सोने का रा रतनारी पारा तेज मि करता है ठीक इसी तप तपस्वी जितनी की मुसीबत : साना उसकी प्रति उतभी दीपिकनियमामी मरेको शिसन भपन पर प्रभुत्व ग्राम पर मिपा उस , एमपोत्तम का ममी साग पूजत। इना जिनसागा मनपरात चोर मिति पर - कामी मृत्यु का जीवन में भी मफल दामन FFIEDEOSITIEEELF R
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________________ ( 161 ) 10 अगर दुनिया में हाजनमन्दों की तादाद अधिक है तो इसका कारण यही है कि ये लोग जो तप करते हैं, थोड़े है, श्रार जो तप नहीं करते हैं, उनकी संख्या अधिक है। अहिंसा 1 अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है / हिंसा के पीछे हर तरह पाप लगा रहता है। / .. 2 हाजतमन्द के साथ अपनी रोटी वाट कर खाना और हिसा से दूर रहना यह सब पैगम्बर के समस्त उपदेशों में श्रेष्ठतम उपदेश है। अहिंसा सय धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है। सचाई का दर्जा उसके बाद है। 4 नेक रास्ता कौन सा है ? यह वही मार्ग है जिस में इस वात का खयाल रखा जाता है कि छोटे से छोटे जानवर को भी मारने से किस तरह बचाया जावे। 5 जिन लोगों ने इस पापमय सांसारिक जीवन को त्याग दिया है, उन सव में मुख्य वह पुरुप है जो हिंसा के पास से डर कर अहिंसा मार्ग का अनुसरण करता है। 6 धन्य है वह पुरुष जिसने अहिंसा व्रत धारण किया है। मौत जो सब जावों को खा जाती है, उसके दिनों पर हमला नहीं करती। 7 हमारी जान पर भी था बने तव भी किसी की प्यारी जान मत लो। = लोग कह सकते हैं कि पलि देने से बहुत सारी निया YamaroxexxwwXXXXXXEEEEXXXXX दिया है, उमार्ग का अहिंसा व्रत Imrnrirecxxe XxoxxnETE पर हमला
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________________ पEBEHREE ( 162 ) A मते मिलती है ममर पाल दिन पाहो वीरपि में से बिपामते मोसा करने से मिलती सपापभीरपहारपर। 0 मिन झागों का जीवन इस्या पर निर्भर है सममार लोगों की पि में मुखिोरो समान। १.देखो परमादमी जिसका सड़ा मा परीर पीपदार सामों से मरा भाई गुजरे जमाने में न पहान बालासा होगा पेसा अधिमान् साग फातेहैं। E-HEEFIEBETAH मित्रता १दुनिया में ऐसी कौन सी वस्तुसिसका बासिमपरमा इतना मुस्किम सितना कि पोस्तीका ! और दुश्मनों से में रक्षा करनेक सिप मित्रता के समान और कोन सा काम! 2 योग्य पुरपो की मित्रता परतीचम्फसा कसमान, मपर पहपकी दोस्ती परते ए पाद समान है। पोम्प पुरुषों की मित्रता पिम्प प्रबों क स्वारपाय समान हैमिनी पीने साप मुमारी पनिपता होती जापगी रतनी ही अधिक नियों तुम उमर मदर विमापी पढ़ने जगेगी। मित्रता का श्यरेसी पिगी करना ही परित पपईपापपरमार्म में जानेगे तो उसको रोकना और उसकी भासना करना ही मित्रता का पश्य। बार बार मिसना पौर सहा साप राना विमा पारी मीनपातोपपोपी पश्ता पी पिशो मित्रता रे 1 मम्मम्प को स्पिर पीर सुप पनाती है।
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________________ AMITRAATMAImraneKIROIN ( 193 ) 6 हसी दिल्लगी करने वाली गोष्ठी का नाम मित्रता नहीं मत्रता तो वास्तव में प्रेम है जो हृदय को श्राल्हादित करता है। 7 जो मनुष्य तुम्हें बुराई से बचाता है, नेक राह पर चलाता है और जो मुसीवत के वक्त साथ देता है, बस यही मित्र है। XEXXEMOCRATEST ८देखो, उस आदमी का हाथ कि जिस के कपड़े हवा इस उड़ गये है, कितनी तेजी के साथ फिर से अपने वदन को ढकने के लिये दौड़ता है ! वही सच्चे मित्र का श्रादर्श है जो मुसीबत में पड़े हुए आदमी की सहायता के लिये दौड़ कर जाता है। मित्रता का दरवार कहा पर लगता है ? बस वहीं पर कि जहा दिलों के बीच में अनन्य प्रेम और पूर्ण एकता है और जहा दोनों मिल कर हर एक तरह से एक दूसरे को उच्च और उन्नत बनाने की चेष्टा करें / 10 जिस दोस्ती का हिसाय लगाया जा सकता है उसमें hah एक तरह का कॅगलापन होता है / वह चाहे कितने ही गर्व पूर्वक कहे-मैं उसको इतना प्यार करता हूं और वह मुझे इतना चाहता है। मित्रता के लिये योग्यता की परीक्षा 1 इससे यढ़ कर वुरी यात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ दोस्ती कर ली जाय क्योंकि एक वार मित्रता हो जाने पर सहदय पुरुप फिर उसे छोड़ नहीं a सकता। E X A ..--- -- ---
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________________ SEEEEEE FHarue. न २२गो यो पुरुप परसे भारमियों की जांच किये बिना ही उनको मिपमा सेतापाप्रपने घर पर ऐसी माफतियों को लावाकियो सिर्फ उसकी मौत केसायही समाप्त होगी। पिस मनुष्य को तुम अपना पोस्त बमामा पाते हो उसककह का उसके गुण दोपों का जीन लोग उसके - साधीभीर किन किन साप रसमा सम्प नसब | पातो का प्रणीतरासे विचार कर होभीर सके पार यदि यह योग्य हो तो उसे दोस्त बना सो।। देखो मिस पुरप का सम्म रस हस में मारेभीर जोरजती से सरता रसके साथ मावश्यकता पड़े तो मम्प रेकर मी बस्ती करनी चाहिये। ५ऐसे लोगों को लोगोभीर समसाप दोस्ती करो कि ] यो सम्मार्ग को मानते हैं और तुमारे पर जाने पर तुम / मिडकर तुम्हारी भर्समा कर सकते। सभापति में मी एक गुण सापक पैमाना है जिससे / तुम अपन मित्रों को भाप सन्तेको। निसार मनुप्प र सरम इप्सी में है कि पानी से मित्रता न करे। पेस पिचारों को मत प्राने दो मिनसे मन सोसार और पारो और न एसेमोगों से दोस्ती करोगे वास परतही तुम्हाप साप दोरगे। सोसागमुसीबतोपासात उनको मित्रता बीयार मौत पर भी रिस में असम पैदा करेगी। सSABRE
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________________ kammu-mmmxmxonomyKAM KAnam-n KXICAXXRACETRAXCRAK.. HORAKARAATXMARRIMERIORAammarAA-... - 10 पाकोसाफ़ लोगों के साथ बड़े शौक से दोस्ती करो, तुम्हारे अयोग्य है उनका साथ छोड़ दो, इस के लिये चाहे तुम्हें कुछ भेंट भी देनी पड़े। झूठी मित्रता 1 उन कमबख्त नालायकों से होशियार रहो कि जो अपने | लाभ के लिये तुम्हारे पैरों पर पड़ने के लिये तय्यार है, मगर / जव तुम से उनका कुछ मतलव न निकलेगा तो वे तुम्हें छोड़ 1 देंगे / भला ऐसों की दोस्ती रहे या न रहे इस से क्या आता जाता है। तु 2 कुछ आदमी उस अक्खड़ घोड़े की तरह होते है कि जो युद्धक्षेत्र में अपने सवार को गिरा कर भाग जाता है। ऐसे लोगों से दोस्ती रखने की बनिस्वत तो अकेले रहना हजार दर्जे बेहतर है। 3 बुद्धिमानों की दुश्मनी भी बेवकूफों की दोस्ती से हज़ार // दर्जे वेहतर है, और खुशामदी और मतलवी लोगों की दोस्ती से दुश्मनों को घृणा सैकड़ों दर्जे अच्छी है। 4 देखो जो लोग यह सोचते हैं कि हमें उस दोस्त से . कितना मिलेगा वे उसी दर्जे के लोग हैं कि जिन में चोरों और वाज़ाक औरतों की गिनती है। ५खवरदार ! उन लोगों से जरा भी दोस्ती न करना कि जो कमरे में बैठ कर तो मीठी मीठी बातें करते है मगर बाहर श्राम मजलिस में निन्दा करते हैं। 6 जो लोग ऊपर से तो दोस्ती रखते हैं मगर दिल में ENT RYwww.
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________________ म ELE : -MEExt - पुरमनी रखते उनकी मित्रता औरत के सि की तय / सरा सी देर में पदस सामगी। सन महार बदमाशों से करते कि सोमादमी के सामने कपरी रिस से हसते। मगर अन्दर ही मदर दिस " में मानी पुश्मनी रमते। पुस्मम अगर नम्रता पूर्वक मुषार बातचीत करे वो मी उसका पिश्वास न करो क्योकिकमान अप मुझठी - तो पा और कानी (परावी की ही पेशीनगोई करती / भनिए की भी मपिम्पवाही करती। पुस्मम अमर बाय बोदेवप मी उसका विश्वास म करो मुमकिनकि उसकेायों कोई पियार पाहा 1 और न तुम उसके मांस पहाने पर ही कर पकीन नामो। - 10 अगर दुश्मन तुम से दोस्ती करना चाहेभीर परि तुम अपने पुस्मन से प्रमी गुमा पैर नही कर सभव होता उसके सामने जादिरी दोस्ती का वर्णष करो मगर दिल से रसे सदा पूर लो। पतामह FCICEJa- क्या तुम जानना चाहते हो कि मुर्मवा किसे करते है! मोदीजसामायकरसको फक पेमा भीर हानिकारक - पदार्थ को पकड़ रममा-बस पदी मूता। २मर्स मनुप्प अपने कम्पको भूम यता पान जवादिपात भीर सन्त बात निकामता सकिसी तरा शर्म मौरपा का हयात नहीं होता मोरपिसी बात का पसम्म करता है।
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________________ MAIL. ARIANTRAMEx-xx.xxxADXXKARKI ( 167 ) 3 एक श्रादमी खूब पढ़ा लिखा और चतुर है और दूसरों का गुरु है, मगर फिर भी वह इन्द्रिय-लिप्सा का दास चना रहता है-उस से बढ़ कर मूर्ख और कोई नहीं है। ४अगर मूर्ख को इत्तफाक से वहुत सी दौलत मिल जाय तो ऐरे गैरे अजनबी लोग ही मजे उड़ायेंगे मगर उसके बन्धु बान्धव तो वेचारे भूखों ही मरेंगे। 5 योग्य पुरुषों की समा में किसी मूर्ख मनुष्य का जाना / ठीक वैसा ही है जैसा कि साफ सुथरे पल के ऊपर मैला / पैर रख देना। 6 अकल की गरीवी ही वास्तविक गरीवी है और तरह की गरीबी को दुनियाँ गरीवी ही नहीं समझती। 7 मूर्ख आदमी खुद अपने सर पर जो मुसीवतें लाता है, उसके दुश्मनों के लिये भी उसको वैसी ही मुसीवते पहुँचानी मुश्किल होंगी। 8 क्या तुम यह जानना चाहते हो कि मन्द बुद्धि किसे कहते हैं ? वस उसी अहवारी को जो अपने मन में कहता है कि मैं अक्लमन्द हूँ।। मूर्ख श्रादमी अगर अपने नने वदन को ढकता है तो इस से क्या फायदा, जव कि उसके मन के ऐय ढंके हुए नहीं हैं ? 10 देखो जो आदमी न तो खुद भला बुरा पहचानता है और न दूसरों की सलाह मानता है, वह अपनी जिन्दगी भर A अपने साथियों के लिये दुखदायी बना रहता है। इति / Army
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________________ PHated by K. R Jain at the Manohar Electric Preta Said Mitha Baar Labore
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