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________________ Breenetsman.mAEEEEEXTrics XIXIOXICIAXHORXIXExcexxxxxx A मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिये परिपूर्ण हार्दिक शांति प्राप्त करनी चाहिए जो एक मात्र कर्म के सिद्धान्त ही से हो सकती है। ऑधी और तूफान में जैसे हिमालय का शिखर स्थिर रहता है वैसे ही अनेक प्रतिकूलताओं के समय शान्त भाव में स्थिर रहना यही सया मनुप्यत्व है। जो कि भूतकाल के अनुभवों से शिक्षा देकर मनुष्य को अपनी त भावी भलाई के लिये तैयार करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ऐसा मनुष्यत्व कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास किये विना कभी श्रा नहीं सकता। इससे यही कहना पड़ता है कि क्या व्यवहार क्या परमार्थ सब जगह फर्म का सिद्धान्त एक-सा उपयोगी है। कर्म सिद्धान्त की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में डा० - मैक्समूलर का जो विचार है वह जानने योग्य है / वे कहते हैं यह तो निश्चित है कि कर्म मत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है तो वह पुराने कर्ज के चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस F कष्ट को सहन कर लेगा / यदि वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहन शीलता से पुराना कर्जा चुकाया जा सकता है म तथा उसी से भविष्यत् के लिये नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही श्राप होगी। भला या वुरा कोई भी फर्म नष्ट नहीं / होता यह नीति शास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल के सरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय है इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता किसी भी नीति A Xxixxx - X( Com
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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