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________________ RAERATREEDOXxxxलर hrrr-DACES ( 111 ) पाणी धर्म छोड़ कर किसी अन्य के शरण की इच्छा रखता है, वह निज वोध से अपरिचित होने के कारण दुखों का ही अनुभव करने वाला होता है। 3 संसारानुप्रेक्षा-अनादि काल से जीव संसार चक्र में परिभ्रमण करता चला आरहा है। जिस प्रकार एक अटवी म रहने वाला जीव अनाथ होता है ठीक उसी प्रकार यह में जाव भी ससार में अनाथ हो रहा है और जन्म मरण के ससार चक्र में नाना प्रकार के दुखों का अनुभव कर रहा है। अनादि संसार चक्र है अनादि काल से ही जीव इसमें घूम पा रहा है। 4 एकत्वमावनानुप्रेक्षा-चास्तव में जीव अकेला ही है। जो संसार में वाजिशाला, हस्तिशाला, वृषभशाला, गोशाला, श्रादि की ममता करता था तथा यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पुत्र है, ये मेरे सम्बन्धी हैं, ये मेरे घनादि पदार्थ है-इस तरह / यावन्मात्र पदार्थों का ममत्व भाव करता था जव मृत्यु का समय आगया तव सव वस्तुओं को छोड़ कर प्राणी अकेला न ही परलोक यात्रा के लिये प्रयाण कर गया। इस से स्वतः ही सिद्ध हो जाता है वास्तव में जीव अकेला ही है। इसलिए इस भावना द्वारा ममत्व भाव दूर करना चाहिए। 5 अन्यत्वानुप्रेक्षा--इस बात की अनुप्रेक्षा करते रहना कि शरीर अन्य है और जीव अन्य यदि शरीर पर भयंकर रोगादि का आक्रमण हो जाए तव व्याकुल चित्त को इस अनुप्रेक्षा द्वारा शान्त करना चाहिए और साथ ही इस बात का भी विचार करते रहना चाहिए कि यावन्मात्र सम्बन्धियाँ FFICICIPALIENSARDARA PERAXXXXXEEXXXCKERAIEXX KRISKorexxxxxESXXEXICAEX
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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