SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कायमv=BE पूर्वपस-परिभर परि रबर बीपों को कमों का / फस म मुकाता तब तो भर का ग्यापशीलता का गुण पता ही नहीं। क्योंकि नगर में व्यापाधीश होकर परि म्यापपूर्वक पापियों को शिक्षित नहीं करता है तो पापापीय / फिस बात का? परपपदमत में तो एका के बिना मम्म जीपारमाही नहीं ! तो क्या प्राय पाप ही म्पापापीर : बनता है। भौर फिर माप ही प्रयम करके पर पार बन पर पावापरतो ऐसे मासे किसी ने मापी कमरे मीर फिर समले फस भोगों के पास्त भपने साथ से अपमे नाक काम प पैर मस्तकादिन करो / Hस स दो प्रम प्रथम पाप न करता तो प्रपा पा! तपा र प्रभ्य जीवों को नवीन पाप न करने देवा पर वो सश प्रहप पयादी पती / न तो परि पनी परती नसपिसार करना परवा मोर , फिर धीयोको मी प्रा फम देना पड़ता। परमात्मा सदा परमानम् मोगता पता। ग्राम मे पद पपिप्पा रपी माप अपने परम सादा मारा / स भवानी कोकीन पुरिमार प्रसार मान समता / अतः परि कर्नामा परमात्मा किसी प्रकार भी सिय पीहो सकता! पपा बोनीसमें बर्वत्पपा मसपापमों गल युगपत् परी सकते हैं। परिोग-पर सते! पोलिरमा स्पमापोमेसेतो दम पपने परि *रोमो विषय समाएर समते तो मार पसार रोमो स्पमाप निम्पपा परित्या भरसे मित्र Excsar नमपस - - -
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy