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________________ TERATAXCXRXXESAACARRIERRAOKARMER ( 67 ) - इस कथन से सिद्ध हुआ कि कर्मों का वन्धन और उनका फल रूप अनुभव यह सव जीवों के भावों पर ही निर्भर न है। अतः सदैव शुभ योग ही धारण करना चाहिए, जिसके कारण से श्रात्मा कर्मों के बन्धन से या उनके अशुभ फल से प्रवचा रहे। यदि इस स्थान पर यह प्रश्न किया जाय कि जब कर्म प्रकृतियाँ इस प्रकार से वर्णन की गई है तो फिर इन से जीव विमुक्त किस प्रकार हो सकता है? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि संवरतत्त्व और निर्जरातत्त्व-ये दोनों ही तत्त्व फर्म प्रकृतियों से सर्वथा विमुक्त कराने में अपनी समर्थता रखते / / है अर्थात् इन्हीं के द्वारा जीव निर्वाणपद प्राप्त कर सकता है। कारण कि जब नूतन कर्म करने का निरोध किया गया अर्थात् सवर किया गया तय स्वाध्याय और ध्यान (योग समाधि) द्वारा प्राचीन कर्म क्षय किये जा सकते हैं, और तब श्रात्मा सर्व प्रकार की कर्म प्रकृतियों से विमुक्त हो सकता है। यदि ऐसा कहा जाय कि जव स्वाध्याय और ध्यान द्वारा / कर्म क्षय किये जा सकते है तब वह जो स्वाध्याय और ध्यान * रूप क्रिया है उसके द्वारा फिर नूनन कर्म था सकते हैं। इस क्रम से फिर किसी भी श्रात्मा को मोक्ष पद की प्राप्ति नहीं हि हो सकेगी। इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि श्रात्मा के वीर्य और उपयोग रूप दो लक्षण प्रतिपादन किये गए हैं। A सो वीर्य तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है / जैसे कि 1 पंडितवीर्य 2 वालवीर्य और 3 वालपंडितवीर्य / पडितवीर्य द्वारा ही कर्म क्षय किये जा सकते है, शेप अन्य द्वारा नहीं। SEXXXNXXner_ RAMRATRIKA tre BYExcy CAXGXxxxxxXEXAXXnxxmire
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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