SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ CREATExamsaemixEXEErocessxnxxstsARIESREE REATRIXXECENTERACAXXESAR ( 1 ) क्या उसके गृहीत नियम में अतिचार (दोष) लगता है ? उत्तर- हे गोतम ! नहीं लगता है। क्योंकि उसका संकल्प वृक्ष के मूल छेदन करने का नहीं है। इस लिए उक्त दोनों प्रश्नों के उत्तर से भली भांति सिद्ध हा गया है कि हिंसा का भाव जीव के भावों पर ही निर्भर है। अतएव भाव हिंसा जीवों के भावों पर ही निर्मर है किन्तु द्रव्य हिंसा व्यावहारिक हिंसा कहलाती है। गृहस्थ लोगों का मुख्य नियम यह है कि न्याय पक वत्तेना चाहिए / किन्तु भावना सदा यही होनी चाहिए नक सवे प्राणिमात्र की हिंसा से निवृत्त होकर श्रात्म समाधि म लगानी चाहिए। जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो सके और मात्मा अहिंसा के प्रभाव से संसारी वर्ग का उपास्य देव वन सक। क्योंकि इसअहिंसा भगवती के माहात्म्य से ही श्रात्मा # पूर्णतया प्रेम संपादन कर सकता है। फिर उस धार्मिक प्रेम धारा प्राणिमात्र से निर्वैरता धारण करता हुभा निर्वाण पद माप्त कर सकता है जिससे फिर वह संसार वक के जन्म मरण रूप श्रावर्तन से छूट कर सादि अपर्यवसित पद वाला सिद्ध भगवान् बन जाता है अर्थात् अपुनरावृत्ति वाला होकर परमेश्वरत्व भाव को धारण कर अनन्त और अक्षय श्रानंद में निमग्न होकर अनन्त काल मोक्ष में ठहरता है अर्थात् शास्वत पद को धारण कर लेता है।
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy