________________ AMREKAXX RExamxxx.xxx.xomxxxnx R Awarenzeneurs xEOXXHA EXERXRAAKAKKARAOKAARRAAT ( 106 ) क्षायिक वा क्षयोपशम भाव से होती है नतु कर्मोदय से। हां, शुभगत्यादि की प्राप्ति शुभ कर्मों से होती है अशुभ गत्यादि का प्राप्ति अशुभ कर्मोदय से हो जाती है। किन्तु धर्म प्राप्ति ताप्रायः क्षायिकोपशम भाव पर ही निर्भर है। अतःप्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि वह श्रात्मा को पण्डित बाल वीर्य की ओर ही लगावे जिस से आत्मा उक्त वीर्य से कर्म क्षय करने में समर्थ होजावे। . अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वीर्य कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि वीर्य आत्मा का निज गुण है और वह एक रसमय है किन्तु कर्मों का श्रात्मा के साथ सम्बन्ध होजाने के कारण से वीर्य तीन प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि-१ पण्डित वीर्य 2 वाल वीर्य और 3 वाल पण्डित वीर्य / पण्डित वीर्य का / यह मन्तव्य है कि सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान द्वारा जो के क्रियाएँ की जाती हैं उन क्रियाओं के करते समय पण्डित वीर्य होता है, जो कर्म प्रकृतियों के क्षय करने में अपना सामर्थ्य रखता है / क्योंकि पंडित वीर्य की क्रिया सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने से कर्मों के क्षय करने में सामर्थ्य रखती है। श्रय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि वे सम्यग् क्रियाएँ कौन कौन सी हैं जिनके करने से कर्म क्षय किये जा सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वाध्याय और व ध्यान-ये दोनों ही क्रियाएँ कर्मों के क्षय करने में समर्थ हैं। स्वाध्याय पाच प्रकार से वर्णन किया गया है / जैसे कि 1 वाचना-सत्यशास्त्रों का पढ़ाना और पढ़ना / 2 पूछना-जिस m NARAY -v -more---- . xxxAXIMRXXnxexcomxxxxxxxaaaxnaye