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________________ EXPERTYLERXTTERY EAXXSXExa ( 131 ) बनता है और समीप श्राजाने पर भी सर्वस्वापहार करने पर फिर अनुकूल वा प्रतिकुल वचनों से तिरस्कार कर राजा के सुखों का विदारण करता है, वह व्यक्ति महामोहनीय कर्म वांधता है। ग्यारहवा महामोहनीय विषय अकुमारभूए जे केई कुमारभूएत्ति हं वए। इत्थीहिं गिद्धेवसए महामोहं पकुन्बह // 12 // अर्थ-जो वालब्रह्मचारी नहीं है किन्तु अपने श्रापको बाल ब्रह्मचारी कहता है और स्त्रियों के विषय में गृद्धित हो रहा है अर्थात् स्त्री के वरावर्ती है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। वारहवाँ महामोहनीय विषय अभयारी जे केई बंभयारीत्ति हं वए। गद्दहेब गवां मज्झे विस्सर नयई नदं // 13 // अप्पणो अहिए बाले माया मोसं बहुं मसे / इत्थीविसए गेहीए महामोई पकुव्वह // 14 // अर्थ-जो व्यक्ति श्रब्रह्मचारी है किन्तु अपने आपको जनता मेब्रह्मचारी कहता है, उसका शब्द ऐसे है जैसे किगौओं के मध्य में गर्दभ बोलता हो। आत्मा का अहित करने वाला जो मूढ और। छली बहुत झूठ बोलता है और स्त्री के विषय में मूच्छित (आसक्त ) है, वह महामोहनीय कर्म को यांधता है। तेरहवा महामाहनीय विषय जं निस्सिए उन्बहइ जससा हिगमेण वा / - तस्स लुन्मइ वित्तमि महामोहं पकुच्चड् // 15 // ROHARXXXXXCEITIXXXKARE 2-RDAF
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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