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________________ ENACEATREmxxxmARKanxमन्यार ( 117 ) यही विचार रहें कि कोई भी व्यक्ति मुझ से बढ़ न जाय तथा लव व्यक्ति मेरे ही अधीन रहें / इसलिए ये ध्यान त्याज्य हैं, / क्योकि इन ध्यानों के कारण से जीव ससार के जन्म मरणों की वृद्धि कर लेता है। 3 धर्म ध्यान उसे कहते है जिस से पदार्थों के स्वरूप का यथावत् विचार किया जाय और श्री भगवान् की आशा का पालन किया जाय / इतना ही नहीं किन्तु अनित्यादि अनुमक्षा की संसार से निवृत्ति की जाय तथा जिस प्रकार ससारवन्धन से मुक्ति (छुटकारा) हो सके, उस प्रकार की भावनाओं द्वारा आत्मा को निर्लेप किया जा सके। 4 शुक्ल ध्यान उसे कहते हैं जिसके द्वारा मानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-इन चारों घातक के कर्मों से विमुक्त होकर केवल ज्ञान और केवल दर्शन की प्राप्ति की जा सके। इन का सविस्तर स्वरूप जैनागम और जैनयोगशास्त्रादि से जानना चाहिए / यहाँ पर तो केवल दिग्दर्शन मात्र ही कथन किया गया है। योगी श्रात्मा पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-इन चारों प्रकार के ध्यानों से आत्मा की विशुद्धि करे / किन्तु इस बात का भी हृदय में विचार कर लेना चाहिए कि ज्ञान और वैराग्य ये दोनों क्रियाएँ यदि स्थिर होंगी तब ही ध्यान में स्थिरता बढ़ेगी। यदि व्यक्ति ज्ञान और वैराग्य को छोड़ कर ध्यान की स्थिरता चाहता है तो वह सेना और शस्त्रादि A छोड़ कर शत्रु पर विजय प्राप्त करना चाहता है तथा जिस FaceTRArtiorewan- KIRAIMAXIRE ORASERIEDIODAIEOXOXOXOXOEXTERY GreeXIERICAXEREOREKHUS में विस्थिर सग्य सादि RXICAXIA
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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