________________ IAxonagexxx र करके अपन परमात्मा तथा अनिवृTAL MARRARAMMEAXMARKETAKERATORXXXXXXXSAXErazersnA- ( 36 ) अपने शुद्ध स्वरूप से किस तरह च्युत नहीं होता? वह में अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्ववद्ध तीव्र कर्मों को किस तरह हरा देता है ? वह अपने में वर्तमान परमात्म भाव को देखने / के लिये जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व युद्ध होता है ? अन्त में वीर्यवान् श्रात्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कंटक करता है ? श्रात्म मन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं, उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम तरगमाला के वैद्युतिक-यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर / चूर चूर कर डालता है ? कभी कभी गुलांट खा कर कर्म ही, जो कि कुछ देर के लिये दवे होते है, प्रगतिशील श्रात्मा को किस तरह नीचे पटक देते हैं? कौन कौन कर्म वन्ध व उदय की अपेक्षा आपस में विरोधी है ? किस कर्म का वध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत में अनियत है ? आत्म सम्बन्ध अतीन्द्रिय कर्म रज किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से स्थूल पुद्गलों को खींचा करती है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्म शरीर आदि का निर्माण किया करती है ? इत्यादि संख्यातीत प्रश्न जो कर्म से सम्बन्ध रखते है, उनका सयुक्तिक विस्तृत व विशद विवेचन जैन साहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य से नहीं किया जा सकता / यही कर्मतत्त्व के विषय में जैन दर्शन की विशेपता है।