________________ NareerHAYARH SEXIREXTENTRIEAAREERTRAIEEEX M arit ( 71 ) कारण राग द्वेप के ही अन्तर्गत हो जाते हैं। जैसे फि क्रोध, में मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, काम, आशा, / स्वरश, परवश, अर्थ, अनर्थ, मूर्खता इत्यादि अनेक कारणों / से जीवतव्य, धर्म और अर्थ के लिये हिंसा हो जाती है। किन्तु वे सब कारण राग और द्वेप के ही अन्तर्गत हो जाते है / इसलिये सूत्रकार का यह कथन ठीक ही है कि प्रमत्त योग से जो प्राणों का प्रतिपात होना है, वास्तव में उसी का नाम हिंसा है। क्योंकि हिंसा के कारण वास्तव में जीव के भाव ही होते है। हिंसा के मुख्यतया दो भेद वर्णन किये गए है जैसे कि द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा / सकल्प विना जो प्राणों का है प्रतिपात हो जाना है, उसी को द्रव्य हिंसा कहते हैं। जैसे रक्षा करते करते किसी जीव के प्राणों का संहार हो जाता है उसी का नाम द्रव्य हिंसा है। जो स्वसंकल्प पूर्वक हिंसा होती है, उसी को भाव हिंसा कहते है। . स्वसंकल्प पूर्वक हिंसा अर्थ और अनर्थ दो तरह से होती है / साधु वर्ग के लिए तो दोनों प्रकार की हिंसा सर्वथात्याज्य हैं। क्योंकि साधुत्व में शत्रु और मित्र दोनों समभाव से देखे जाते हैं / इसलिये अहिंसा नामक महावत के पालन करने वाले ही महापुरुष है / परंच गृहस्थ वर्ग के लिए अनर्थ हिंसा का परित्याग होता है। क्योंकि संसार में निवास करने से वे अर्थ हिंसा का सर्वथा परित्याग कर ही नहीं सकते। अतः उनके / लिये अर्थ और न्यायशीलता अवश्य धारण करनी चाहिये / है इसलिए वास्तव में न्यायशीलता का ही नाम अहिंसा है। FREXSAEXEXERCEXXXX 1.hu