Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 175
________________ FITNESSGEIC13EE मनसेनामतन यास्ति मिपसंसर्गः३० भर्ष-उस अमृत से क्या मोविप से समिमित हो, भर्यात् विप समिमित प्रमत मी मारने में समर्थ होता है। गुरुघनशीलमनुसरन्ति प्रापेण शिम्पा! 31 अप-शिप्प माया गुरुमनों का ही अनुसरण फरमे पासे होता। नषेपु मृडाजनेषु सम संस्कारो प्रमबाप्पन्पपा कतुं न शक्यते 22 म नतन मिही भाजन में प्रथम संगे गए संस्कार को फिर प्रामा मी दूर नही कर सकता। भास्ममनोमलचखसमवायोगसपयो सम्पास्मयोगः 33 मर्य-पारमा मन शरीरस्थ वायु एपिषी पारि तलइन सब का सम मादी अम्पारमपोग कहा जाता है। क्रियाविशयपिपाकोतरम्यासा 25 भर्प-प्रत्येक कार्य की सिमि में पम्पास मुम्पमा H भम्पास से सब का सिरो साते। तस्मसमप्पमुखं यत्र नास्ति मनोनिति मर्प-पर सुन मी कुणकप जिससे मनको योति / . नहीं पाती। तरसमपि न दुख या न किरपते मनः 36 / / पर- पाच मी दाबी मिसमें ममफोसमलेश नहीं होता। REELEBERREE--. EEEEEEEE .. - . - -

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