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भूमिका
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विषमता है? इन मतवादों का आधार क्या है? दूसरे शब्दों में इनका संबंध किस दार्शनिक परम्परा से है?
__ भारतीय वाङ्मय के अन्तर्गत जैनागमों में ऐसे अनेक विषय आए हैं, जिनका सूक्ष्म और वास्तविक अर्थ निकालना आज भी अपेक्षित है। जैन आगमों में विशेषतः सूत्रकृतांग और अन्य आगमों में विविध वादों के रूप में विभिन्न विचारधाराओं का जो उल्लेख हुआ है, उनका दार्शनिक दृष्टि से विशेष रूप से समीक्षण और परीक्षण किया जाय यह अत्यन्त वांछित है, तथा विभिन्न दर्शनों में वे वाद कहाँ तक संगति रखते हैं-इस दृष्टि से अध्ययन कर मौलिक प्रकाश डाला जाए तो शोध के क्षेत्र में अत्यन्त उपयोगी हो सकता है। साथ ही आगमों में वर्णित तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति का अध्ययन करना भी मेरे शोध करने का उद्देश्य रहा, ताकि तत्कालीन मतवादों की स्थिति का भी अंकन हो सके।
प्रस्तुत शोध-विषय “जैन आगमों में पंचमतवाद-पंचभूतवाद, एकात्मवाद, क्षणिकवाद, सांख्यमत और नियतिवाद" निर्धारित करने का उद्देश्य सिर्फ आगम तथा उसके व्याख्या साहित्य में इन मतवादों की उत्पत्ति, सिद्धान्त, आचार-पद्धति, पारस्परिक साम्य तथा वैषम्य दिखाना मात्र नहीं है, अपितु वैदिक तथा बौद्ध परम्परा एवं अन्य साहित्य में इनकी क्या स्थिति रही यह जानना भी था। विभिन्न परम्पराओं के साहित्य में इन सिद्धान्तों के ऐतिहासिक विकास को ध्यान में रखते हुए विवेचन करना तथा अन्त में जैन दृष्टि से उनकी समीक्षा इस शोध का प्रमुख उद्देश्य है।
प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तुत शोध में इन पाँच मतवादों को ही क्यों रखा? इन पांचों को ही रखने का क्या औचित्य है? इन पांचों को रखने का मेरा उद्देश्य यही है कि वस्तुतः ये मतवाद कुछ अर्थों में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, इसका जैनागम व बौद्धागम स्वयं प्रमाण देते हैं। जैन आगमों के साथ बौद्ध तथा वैदिक परम्परा में इनका विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है।
दूसरा-छठी सदी ई.पू. में इन मतवादों की समाज में व्यापक प्रतिष्ठा थी। मक्खली गोशाल के आजीवक मत के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि उसके अनुयायियों की संख्या भगवान महावीर के अनुयायियों से भी अधिक थी और समाज में उनका व्यापक प्रभाव था।