Book Title: Jain Agam Granthome Panchmatvad
Author(s): Vandana Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद ऐसे साधुजनों को समाज से निकाल देना चाहिए योऽवमन्येत ते मूले, हेतुशास्त्राश्रयाद्विजः। स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दः।। (मनुस्मृति, 2.11) ऐसे कथन की सार्थकता नहीं रही और जो तर्क से वेदार्थ का अनुसंधान करता है, वहीं धर्म को जानता है, अन्य नहीं, ऐसे मत प्रमुख बन गये। फलतः आगम प्रमाण (आगम की सत्यता) का भाग्य तर्क के हाथों आ गया और 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' यह उक्ति गुंजने लगी। यद्यपि गुरु-शिष्य के बीच होने वाला जिज्ञासा समाधान एवं तत्त्वचर्चा आदि में वाद की शुद्धता में कमी नहीं आई किन्तु जहां दो विरोधी मतानुयायियों में चर्चा होती, वहां वाद अत्यन्त विकृत रूप धारण कर लेता था। जितने विचार उद्भूत हुए, वे सभी सम्प्रदाय रूप में अस्तित्व में नहीं आये, क्योंकि उन्हें लोक समर्थन का आधार नहीं मिला। जो विचार तात्विक, धार्मिक या दार्शनिक वादों के रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए थे, उनके सांकेतिक रूप हमें प्राप्त होते हैं। कुछ विचार, सिद्धान्त नष्ट हो गए, क्योंकि लोगों की अनास्था उन्हें अक्षुण्ण नहीं बनाये रख सकी। ___ इस प्रकार 600 ई.पू. में अनेक सम्प्रदाय थे, जो तत्त्वज्ञान के किसी एक पक्ष को लेकर अनुसरण और प्रसरण करने में अपनी वाणी की सार्थकता मानते थे। भारतवर्ष में प्राचीनकाल से वैदिक (1500 ई.पू.), जैन (600 ई.पू.), तथा बौद्ध (600 ई.पू.)-ये तीनों ही परम्पराएँ अस्तित्व में हैं। प्रत्येक के अपने-अपने मतवाद और सम्प्रदाय हैं तथा आपस में ये अनेक प्रकार से समानता व विषमता की दृष्टि भी रखते हैं। इस शोध में मैंने जिन मतवादों का चयन किया है, वे प्रायः वैदिक, बौद्ध तथा जैन-तीनों ही परम्पराओं में किसी न किसी रूप में आए हैं। ये मतवाद आपस में कुछ अर्थों में जुड़े हुए हैं तथा ये पाँचों ही मतवाद भगवान महावीर के समय प्रसिद्ध थे एवं समाज में इनका व्यापक प्रभाव था। मुख्य रूप से इस शोध में मैंने यह देखने तथा जानने का प्रयास किया है कि इन मतवादों के उल्लेख तीनों परम्पराओं में सर्वप्रथम किसमें और किस रूप में हुआ है। इन तीनों परम्पराओं के शास्त्रों में इन मतवादों के उल्लेख कहां-कहां मिलते हैं? तथा किस रूप में इनका विकास हुआ है। इनमें क्या समानता व

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