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गौतम का धर्मसूत्र बौधायन ने कुछ परिवर्तन करके गौतमधर्मसूत्र के उन्नीसद अध्याय को, जिसमें प्रायश्चित्त के विषय में चर्चा है, सम्पूर्ण रूप में अपना लिया है। बौधायन एवं गौतम के बहुत-से सूत्र एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, यथा गौतम, ३. २५-३४ एवं बौधायन, २.६.१७; गौ० ३.३ एवं २५ तथा बौ० २.६.२९ आदि।।
वसिष्ठधर्मसत्र ने भी गौतम को दो स्थानों (४.३४ एवं ३६) पर उद्धत किया है। वसिष्ठ ने गौतम के उन्नीसवें अध्याय को अपना वाईसवाँ अध्याय बना लिया है। इतना ही नहीं, दोनों के बहुत-से सूत्र एक ही हैं, यमा गौतम, ३.३१-३३ एवं वसिष्ठ, ९. १-३; गौ० ३.२६ एवं वसिष्ठ ९. १० आदि। मनुस्मृति (३.१६) ने गौतम को उतथ्य का पुत्र कहा है। याज्ञवल्क्य ने भी उन्हें धर्मशास्त्रकारों में गिना है (१.५) । अपरार्क ने भविष्यपुराण रो एक पद्य उद्धृत किया है जो गौतम के मुरापान-निषेध वाले सूत्र-सा ही है।" मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लक (११. १४६ पर) ने गौतम के २२.२ को उसी पुराण में देखा है। तन्त्रवार्तिक के लेखक कुमारिल ने गौतम के लगभग एक जन मुत्र उद्धृत किये हैं। शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र-भाष्य (३.१.८ एवं १. ३. ३८) में गौतम के ११.२९ तथा १२. ४ वाले गूत्रों को उद्धृत किया है। याज्ञवल्क्यस्मृति के टीकाकार विश्वरूप ने गौतम के बहुत-से सूत्रों की ओर संकेत किया है। मनुस्मृति के भाष्यकार मेवातिथि ने गौतम को अधिकांश में उद्धत किया है (यथा मनु० के २.६, ८.१२५ आदि श्लोकों के भाष्य के सिलसिले में)।
उपर्यक्त विवेचन से हम गौतमधर्मसूत्र के प्रणयनकाल के निर्णय पर कुछ प्रकाश पा सकते हैं। गौतम मामविधान-ब्राह्मण के बहुत बाद आते हैं। वे यास्क के बाद के हैं और उनके समय में पाणिनि का व्याकरण या तो था ही नहीं और यदि था तो वह तब तक अपनी महत्ता नहीं स्थापित कर सका था। उनका उनि अन्य बौधायन एवं वसिष्ट को ज्ञात था और सन् ७०० ईसापूर्व वह इसी रूप में था। गौतमधर्मसूत्र में (ब्राह्मणवाद गर) वुद्ध अथवा उनके अनुयायियों द्वारा किये गये धार्मिक आक्षेपों की ओर कोई संकेत नहीं मिलता। इन बाती के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गौतमधर्मसूत्र ईसा पूर्व ४००-६०० के पहले ही प्रणीत हो चुका था।
हरदत्त ने मिताक्षरा नाम से गौतमधर्मसूत्र पर एक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। इस विषय में ८६तें प्रकरण में पुनः कुछ कहा जायगा। उन्होंने इस धर्मसूत्र के अन्य भाष्यकारों की चर्चा की है। वामनपुत्र मस्करी ने भी इस पर भाष्य लिखा है। किन्तु काल-क्रम में ये हरदत्त के उपरान्त आते है। असहाय नामक एक अन्य टीकाकार हैं (देखिए प्रकरण ५९)।
मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका, हेमाद्रि, माधव आदि ने किसी श्लोक-गौतम को भी उद्धृत किया है। अपरार्क, हेमाद्रि तथा माधव ने वृद्ध-गौतम, तथा दत्तकमीमांसा (पृ० ७२) ने वृद्ध-गौतम तथा बृहद्-गौतम दोनों को एक ही संदर्भ में उद्धृत किया है। निस्संदेह ये 'गौतम' बहुत बाद के ग्रन्थ हैं। जीवानन्द ने वृद्ध-गौतम की स्मृति को २२ अध्यायों एवं १७०० पद्यों में प्रकाशित किया है (भाग १, पृ० ४.९७-६३६), जहाँ यह लिखित है कि युधिष्ठिर ने कृष्ण से चारों जातियों के धर्मों के बारे में पूछा। वास्तव में, ये धर्मशास्त्र बाद के हैं, केवल गौतम' नाम आ जाने से किसी प्रकार की शंका करना व्यर्थ एवं निराधार है, क्योंकि गौतभधर्मसूत्र एवं इन गौतम नाम वाले ग्रन्थों में बहुत-से भेद हैं।
६५. प्रतिषेधः सुरापाने मद्यस्य च नराधिप। द्विजोत्तमानामेवोक्तः सततं गौतमादिभिः॥ भविष्यत्पुराण, अपरार्क (पृष्ठ १०७६) द्वारा उद्धृत।
६६. देखिए, पराशर-माधवीय, जिल्द १, भाग १, पृ०७।
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