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कवि दौलतराम (वि.सं. १८५५-१९२३; ई. सन् १७९८ - १८६६) कान दौलतराम पस्लोवाल का जन्न विक्रम संवत १८५५ ५६; ईस्वी सन् १७९८-९९ में हुआ। आपके पिता का नाम श्री टोडरमल था। श्री टोडरमल हाथरस (उ.प्र.) में कपड़े का व्यापार करते थे।
दौलतगम को विद्यालयी शिक्षा अधिक नहीं मिली, शीघ्र की काम-धन्धे में लगा दिये गये, फिर भी प्रतिभासम्पन्न दौलतराम विद्याध्ययन से विरत नहीं हुए। उन्होंने स्वाध्याय एवं परिश्रम से तत्वज्ञान का अच्छा अभ्यास किया। साथ ही रस, पिंगल आदि का अच्छा ज्ञान अर्जित किया। अपने ज्ञान एवं भावनाओं को काव्यात्मक रूप में व्यक्त किया। उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी, कहते हैं - जिस समय वे कपड़े के थान पर छोट छापने का काम करते थे उस समय चौकी पर प्राकृत संस्कृत भाषा के सिद्धान्तग्रन्थ - गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि रख लेते थे और लगभग ७०-८० गाथाएँ श्लोक कण्ठाग्न कर लेते थे। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर मथुरा के संठ मनीराम इन्हें संवत् १८८२ (ई. सन् १८२५) में अपने साथ मथुरा लिवा ले गये। कुछ समय तक मथुरा रहने के बाद ने सासनी चले गये, फिर वहाँ से लश्कर चले गये । इन्हें अपनी मृत्यु का आभास, छ: दिन पूर्व हो गया था अतः अपने परिवारजन से क्षमायाचना कर समाधिमरण ग्रहण कर लिया और मार्गशीर्ष अमावस्या, विक्रम संवत् १९२३ (ई. सन् १८६६) को दिल्ली में शरीर त्याग दिया।
इनकी सबसे प्रसिद्ध कृति 'छहढाला' है जो ब्रजमिश्रित खड़ी बोली में हैं । इसकी भाषा सरल, स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी है। दौलतरामजी ने छहढालों (परिच्छेदों) में कुल ९५ पदों के इस लघु ग्रन्थ को रचना लोगों को तत्व का उपदेश देने के लिए जयपुर के कवि बुधजन (ई. सन् १७७३-१८३८) कृत 'छहढाला' के आधार पर वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) विक्रम संवत् १९०१ (ई. सन् १८४४) में पूर्ण की।
इसके अतिरिक्त उन्होंने शताधिक भजन व पद लिखे। इन पदों को भाषा खड़ी हिन्दी हैं लेकिन उस पर जहाँ-तहाँ ब्रजभाषा का प्रभाव है । आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत, भक्ति व शिक्षायुक्त पद धर्मप्रेमी बन्धुओं को धार्मिक भावनाओं से सराबोर कर देते हैं।
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