Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 14
________________ श्याम वर्ण की छवियुक्त श्री नेमिनाथ की मुद्रा मेरो आँखों में समा गई (६०), (६१); अशरण को शरण देनेवाले प्रभु नेमिनाथ जगत का हित करनेवाले हैं (६३)। भगवान पार्श्वनाथ के चरणों के दर्शन पाकर हर्प होता है जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर पक्षी अत्यन्त प्रमुदित होता है (६४) । जिनके जन्म के समय वामादेवी के घर इन्द्र नट की भाँति नृत्य करता है (६५) । ऐसे पार्श्वनाथ अनादि से चले आ रहे मेरे अज्ञान के बंधन को हरनेवाले हैं (६६) । उनका नाम स्मरण करने से भव भ्रमणरूपी भँवर से छुटकारा हो जाता है (६७)।। मैं उन अद्भुत वीर जिनेन्द्र को वन्दना करता हूँ जो भव्यजनों के चित्त को हरनेवाले हैं (६८); मोक्ष-लक्ष्मी के स्वामी महावीर भगवान! आपकी जय हो। इन्द्र, नागेन्द्र, खगेन्द्र, चन्द्रमा, नरेन्द्र आदि सारा जगत आपका सेवक है (६९); आप परम विरागी हैं, नि:स्पृही हैं फिर भी जगत के सभी प्राणियों का कल्याण करनेवाले हैं, इसलिए विनयवत हाथ जोड़कर वन्दना करते हैं (६९)। श्री वीर जिनेन्द्र की जय हो । वे चन्दना सती के कष्टों का, मेंढक के पापों का शमन करनेवाले हैं (७०); हे महावीर ! हमारी भव- पीर हरो (७१) । उन त्रिशलापुत्र महावीर की वन्दना के लिए राजा श्रेणिक परिवारजनों, नागरिकों व समाज समूह को साथ लिये चलकर आते हैं (७२) उन वीर जिनेन्द्र की जय हो (७३) । कवि गिरिराज सम्मेदशिखर की यात्रा करते हैं तो भाव विभोर हो उसकी महिमा का भी वर्णन करते हैं कि आज हमारा जीवन धन्य हुआ, हमने उस पर्वत को देखा जहाँ से बीस तीर्थकर एवं अपार मुनिगण मोक्ष गये हैं (८७) । यात्रा आदि के अवसर पर भक्ति से ओत प्रोत साधर्मी बन्धुओं से परस्पर मिलन भी एक शुभ संयोग होता है । साधर्मी बन्धुओं के सत्संग से संशय, भ्रम व मोह की वासनाएँ रुक जाती हैं, ज्ञान की वर्षा होती है, हृदय में वीतराग देव व गुरु की भक्ति बढ़ती है (३८)। __ भक्ति से भरा ज्ञानी विशिष्ट होली खेलता है, प्रतीकात्मक होली खेलता है - समतारूपी नीर से झारी भरकर उसमें करुणारूपी केशर घोलता है और पंचेन्द्रिय . सखियों की ओर फेंकता है, दानरूपी गुलाल की मुट्ठी भर-भरकर फेंकता है (८६); मोहनीय कर्मरूपी ईंधन व इन्द्रिय विषयों के वेदन को तप की अग्नि (xiv)

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