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ज्ञात्वापि शुद्धां मुनि भिन्तु वाणी तत्याज नैजं न दुराग्रहं सः ।
- भिक्षु स्तदैतं कुगुरुं विहाय यथोचितायां विजहार भूमौ ४२
स्वतः प्रवृत्तां शुभ भाव दीक्षां बीरं गुरुं चेतसि मन्यमानः
गृहीतवान् सूत्र विशिष्ट धन्में प्रवर्त्तयामास तथान्य साधून् ४३
विपक्ष रत्र संक्षेपे नाक्षेपः क्षिप्यतां क्षणं एतं रघुः समुद्रं किं घटे पूरयितुं क्षमः ४४
जपतु जपतु लोकः-श्रील वीर विशोकः भवतु भवतु भिक्षु:-कीर्तिमान् सर्ब दिनु ।
जयतु जयतु कालु:-कान्तिः कान्तः कृपालुः मिलतु मिलतु योग:-सन्मुनीना मरोगः ४५
प्रूफ संशोधकःअलीगढ़ सुनामयीस्थ, श्राशुकविरत्न
पं० रघुनन्दन आयुर्वेदाचार्य। अस्तु-तेरापन्थ समाजस्थ साधुओं के संक्षेपतया आचार विचार पढ़ कर पाठकों को यह भ्रम अवश्य हुआ होगा कि जब साधु अपनी पुस्तक छपाने को अथवा नकल करने को किसी को नहीं देते तो यह इतनी बड़ी पुस्तक कैसे छपी।
पाठकों ! पहिला छपा हुआ "भ्रमविध्वंसन" तो इस द्वितीय वार छपे हुए "भ्रमविध्वंसन" का आधार है। पहिली वार कैसे छपा इसकी कथा सुनिये।
एक कच्छ देशस्थ बेला ग्राम निवासी मूलचन्द्र कोलम्बी तेरापन्थी श्रावक था। साधुओं में उसकी अतुल भक्ति थी। और तपस्या करने में भी सामर्थ्यवान् था। साधुओं की सेवा भक्ति साधुओं के स्थान में आ आ कर यथा समय किया करता था। एक समय साधुओं के पास इस "भ्रम विध्वंसन" की प्रति को देखकर उसका मन ललचा आया और इस प्रन्थ की छपाने की उसने पूरी ही मन में ठान ली।