Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलाभवैः । पचेत्ततश्चार्कदुग्धैर्माण्डूरं जायते परम् ॥
मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़ीकी अग्नि में तपा तपाकर सात बार गोमूत्रमें बुझावें और फिर उसे २ गुने (४ गुने) त्रिफलाके काथमें पकावें । जब शुष्क हो जाय तो उसे आकके दूधमें घोटकर (शराव सम्पुट करके गजपुटमें) पकावें । इस प्रकार उत्तम मण्डूर भस्म तैयार हो जाती है ।
(५४७६) मण्डूरमारणविधिः (५) ( यो. र. )
चतुर्थी भागः
अक्षाङ्गारैर्धमेस्किटं लोहजं तद्गवां जलैः । सेचयेदक्षपात्रान्तः सप्तवारं पुनः पुनः ॥ चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलोद्भवैः । आलोय भर्जयेद्वौ मण्डूरं जायते वरम् || मण्डूरं शिशिरं रुच्यं पाण्डूश्वयथु शोषजित् । ratni कामलां च प्लीहानं कुम्भकामलाम् ||
मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़िये की अग्नि में तपा तपा कर सात बार बहेड़े की लकड़ी के पात्र में गोमूत्रमें बुझावें । तत्पश्चात् उसे बारीक करके २ गुने (चार गुने) त्रिफला काथ में पकावें जब शुष्क हो जाय तो खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
(५४७७) मण्डूरयोगः (१) ( र. का. . । पाण्डु. )
मण्डूर शीतल, रुचिकारक तथा पाण्डु, शोथ, शोष, हलीमक, कामला, कुम्भ कामला और प्लीहा - नाशक है ।
अतिरिक्तं यदाऽशेभ्यो निपतत्यसिपीडनात् । esed रक्तमत्यन्तं लोहकिट्टं तदाऽऽनयेत् ॥
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गवां मूत्रेण तत्पक्त्वा बहुशः सूक्ष्मचूर्णितम् । अतिसूक्ष्ममिदं तस्य त्रिफला कटुकान्वितम् || किट्टस्यार्धेन संमिश्रय चूर्ण शर्करया युतम् । दीयते त्रिदिनादूर्ध्वं रक्तं तिष्ठति नान्यथा || मुद्गान्नं च मसूरानं दीयते पथ्यभोजनम् । अशसि प्रशमं यान्ति काश्यं चैवातिवेगतः ॥ अत्यन्तं बलमाप्नोति रतिरत्यन्तमुद्यते ॥
शुद्ध मण्डूर को १ दिन गोमूत्र में पका कर अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण करें तदनन्तर ४ भाग यह मण्डूर और १ - १ भाग त्रिफला तथा कुटकीका चूर्ण एवं ६ भाग खांड लेकर सबको एकत्र खरल करें ।
यदि बवासीर के मस्सों पर किसी प्रकारका दबाव पड़ने से उनसे बहुत अधिक रक्त निकलने लगे तो उपरोक्त चूर्ण खिलाने से वह तीन दिन में अवश्य बन्द हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह चूर्ण अर्श और कृशताको भी नष्ट करता है ।
पथ्य में मूंग और मसूर की दाल देनी चाहिये मात्रा - १ || माशा | )
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(५४७८) मण्डूरयोग: (२)
( ग. नि. । ग्रन्ध्य.; वृ. मा. । गलगण्ड . ) महिषीमूत्रविमिश्र लोहमलं संस्थितं घटे मासम् । अन्तर्धूमविदग्धं लिह्यान्मधुनाऽथ गलगण्डी ||
शुद्ध मण्डूर को भैंस ( ८ गुने ) मूत्र में मिलाकर, घड़े में भर कर उसका मुख बन्द करके रख दें तथा १ मास पश्चात् उसे इस प्रकार भस्म करें कि धुवां बाहर न निकले ।
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