Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
८०८
www.kobatirth.org
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
उसके मुखको ( दूधमें पिसे हुवे ) मण्डूर से बन्द करके उसे (कौड़ीको) शराबसम्पुट में बन्द कर दें एवं लोकनाथ रसके समान पुटपाक करें और स्वांग शीतल होने पर पीस कर रक्खें ।
४ रत्ती यह रस और ४ रत्ती काली मिर्चका चर्ण, एकत्र मिला कर दोनोंको पानके रसमें घोट कर पान पर लगायें और उसे शहद, मक्खन या के साथ खावें ।
इसके सेवन कालमें भी लोकनाथके समान १ - १ पहरके पश्चात थोड़ा थोड़ा पथ्याहार देना चाहिये ।
इसे ४० दिन तक सेवन करनेसे क्षयका नाश होता है ।
(७१२९) वैद्यनाथवटिका
(र. सा. सं; र. च. । संग्रह. ; धन्व. ; र. र. ; र. रा. सु.; । संग्र. )
[ वकारादि
कांजी, चीते काथ और त्रिफलेके काथ में शुद्ध किया हुवा पारद पांच माशे तथा भंगरेके रसमें शुद्ध किया हुवा गन्धक २ || माशे ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसमें संभाल, मुलैठी, अपराजिता, तुलसी, गूमा, भंगरे, नागरमोथे, का भंगरे, भांग और ईखका ५-५ माशे रस मिलाकर खरल करें और सरसोंके समान गोलियां बनाकर सुरक्षित रक्खें ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इन्हें ग्रहणी, आमवात, अग्निमांद्य, ज्वर, प्लीहा, उदर रोग आदि में सेवन कराना चाहिये ।
इसके सेवन कालमें अम्ल तक आदि अधिक सेवन करना चाहिये ।
श्रीमान् वैद्यनाथने एक ब्राह्मणको यह प्रयोग
बतलाया था ।
(७१३०) वैद्यनाथवटी (१) ( दधिवटि )
( भै. र. | शोधा. धन्व. । शोथा. ) पक्वेष्टक। हरिद्राभ्यामागारधूमकेन च । शोधितं सूतकं ग्राह्यं तोलकं तुलया धृतम् ॥ भृङ्गराजरसे शुद्धं गन्धकं सूततुल्यकम् । हरितालं विषं तुत्थं एलवालुकमभ्रकम् ॥ ॥ खर्परं माक्षिकं कान्तं सर्वमेकत्र कारयेत् । सर्वार्द्धाञ्जली ग्राह्याभावयेच्च पुनः पुनः ॥ सिन्धुवाररसे चैव ज्योतिष्मत्या रसे तथा । रसेऽपराजितायाश्च जयन्त्याः स्वरसे तथा ॥ रक्तचित्रकमूलोत्थे रसे च परिभावयेत् ।
टिकां सर्वपाकारां योजयेत्कुशलो भिषक् ॥ ततः सप्तवर्दद्यादुष्णेन वारिणा सह ।
रसस्य शाणं संगृह्य काञ्जिकेन तु शोधयेत् । चित्रकस्य र सेनापि त्रिफलायाच बुद्धिमान् ॥ रसा गन्धकं शुद्धं भृङ्गराजरसेन वा । द्वाभ्यां सम्मूच्र्छन कृत्वा स्वरसैः शाणसम्मितैः निर्गुण्डीमधुकः श्वेता कुठे ग्रीष्मसुन्दरैः । भृङ्गाव्दकेशराजैश्व तथा चेन्द्राशनोत्कटैः ॥ सर्षपाभां वटीं कृत्वा दद्यात्तां ग्रहणीगदे । सामवातेऽग्निमान्धे च ज्वरे प्लीहोदरेषु च ॥ अम्लतादिसेवां च कुर्वीत स्वेच्छया बहु । श्रीमता वैद्यनाथेन लोकानुग्रहकारिणा ॥
स्वप्नान्ते ब्राह्मणस्येयं भाषिता लिखिता न तु । अनुपानञ्च कर्त्तव्यं कज्जल्या कणया सह ॥
For Private And Personal Use Only