Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 816
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - रसप्रकरणम् चतुर्थों भागः (७१३८) वैश्वानररसः (४) प्रत्येकं माषषट्कं स्याद्गृह्यते मूरणं तथा । कुष्माण्डकरसं दत्वा दिनमेकं विमर्दयेत ।। (र. का. धे. । अरोचका. ) अन्धमूषागतं कृत्वा यावद्यामचतुष्टयम् । दशटङ्गमिता शुण्ठी मरिचं पिप्पली वचा। उत्तार्य शीतलं नीत्वा रसं वल्लचतुष्टयम् ॥ सौभाग्यं च तथा सूक्ष्मं सर्वमेकत्र चूर्णितम् ॥ अग्निमान्ये ज्वरे दद्यादुदरे पारदं परम् । सूतकं टङ्कमात्रेण गन्धकं तत्सम विषम्। अतिपुष्टिकरः सम्यग्दृद्धवैश्वानररसः । एकत्र चूर्णितश्लक्ष्णं कर्तव्यं चैकमागतः॥ ___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, और एकभागमितं ग्राह्य सर्व पर्णेन चाम्भसा । सीसा भस्म १-१ तोला तथा पीपल, पीपलका कासं श्वासं हरेच्छीघ्रमरुचिं तरक्षणादपि ॥ क्षार, काली मिर्च, इमलीका क्षार, सोंठ, सज्जीखार, गुल्मादिकमहान्याधि यकृच्च ग्रहणीमपि ।। जवाखार, सुहागा और सूरण (जिमीकन्द) ६-६ नववर्णमितं याति प्रभावो भ्रमिमण्डले ॥ माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें खण्डवातादिकान् सर्वान् सम्यक्कृत्वा व्यपोहति और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर वैश्वानरमिति ख्यातं क्षेत्रं च कुरुते ध्रुवम् ॥ सबको कुम्हड़े (पेठे) के रसमें १ दिन घोट कर . सेठ, काली मिर्च, पीपल, बच और सुहागा, | अन्धमूषामें बन्द करें और ४ पहर भूधर पुटमें १०-१० भाग तथा शुद्ध पारा, गन्धक और पकावें । बछनाग १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी ___ मात्रा-१२ रत्ती। कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियाँका चूर्ण मिला कर पानके रसमें घोट कर (१-१ ( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती ।) माशेकी ) गोलियां बना लें। इसके सेवनसे अग्निमांद्य, ज्वर और उदर इनके सेवनसे कास, श्वास, अरुचि, गुल्म, | रोगोंका नाश होता है। यह अत्यन्त पौष्टिक है। यकृत्, ग्रहणी, और वातव्याधिका शीघ्रही नाश (७१४०) वैश्वानरलौहम् हो जाता है। ( मै. र. । शूला.) (७१३९) वैश्वानररसः (५) ( वृद्ध ) द्विपलं तिन्तिडीक्षारं तथापामार्गसम्भवम् । (र. चि. म. । स्त. ७) शम्बूकभस्मसंयुक्तं लवणञ्च समं तथा ॥ रसं गन्धं मृतं शुल्वं नागं प्रत्येकं तोलकम् ।। चतुर्णा समभागाः स्युस्तुल्यञ्च लौहचूर्णकम् । एकत्र क्रियते मृष्ट्वा पश्चादिमानि निक्षिपेत् ॥ चूर्ण सम्पिष्य खल्लादौ कारयेदेकतां भिषक ।। पिप्पली पिप्पलीक्षारं मरिचं चिञ्चिकाभवम् । शूलस्यागमवेलायां खादेद्रक्तिचतुष्टयम् । नागरं स्वर्जिकाक्षारं यवक्षारं च टङ्कणम् ॥ शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यं न संशयः॥ For Private And Personal Use Only

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