Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
गं पककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, काली मिर्चका भोषधियोंको चूर्ण मिला कर सबको एकत्र खरल चूर्ण, सुहागेकी खील, धतूरेके बीजोंका चूर्ण और करके अदरकके रसकी भावना दें।
अभ्रक भस्म समान भाग ले कर प्रथम पारे मात्रा-आधा माशा।
गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य
ओषधियां मिला कर सबको भरंगीके काथमें इसमें इतना शहद मिला कर खाना चाहिये कि जिससे औषध मीठी मालूम होने लगे।
| आधा दिन खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां
बना लें। इसके सेवनसे पुराने शुक्र धातुगत ज्वर,
यह रस उग्र पित्तातिसारको नष्ट करता है। भूतोत्थ ज्वर, श्रम जनित वर, सन्निपात ज्वर और । अन्य सभी प्रकारके ज्वरोंका नाश हो जाता है। (१०८) वृहत्कस्तूरीभैरवो रसः (१) इसकी उपस्थितिमें ज्वरके साध्यासाध्यका विचार ( भै. र. ; र. चं. ; र. रा. सु. ; रसे. सा. करना भी व्यर्थ है । जिस प्रकार सूर्योदयके होते
सं. । ज्वरा.) ही अन्धकार और गरुड़के दर्शनमात्रसे सर्प पला
| मृगमदशशिसूर्यधातकीशूकशिम्बी .. यन कर जाता है इसी प्रकार ज्वर मात्र इसे देखते
रजतकनकमुक्ता विद्रुमं लोहपाठा। . ही अपना रास्ता नापता है।
क्रिमिरिपुधनविश्वा वारितालाभ्रधाग्यो इसके अतिरिक्त यह रस बलकारक, पौष्टिक, रविदलरसपिष्टं कस्तूरीभैरवोऽयम् ॥ अग्निमांद्य नाशक, वीर्य स्तम्भक और कामला तथा कस्तूरीभैरवः ख्यातः सर्वज्वरविनाशनः । पाण्डु नाशक है । यह प्रमेह और संग्रहणीको भी __ आर्द्रकस्य रसैः पेयो विषमज्वरनाशनः ॥ नष्ट करता है तथा विविध अनुपानोंके साथ अनेक द्वन्द्व भौतिकान् वापि ज्वरान् कामादि रोगोंमें प्रयुक्त हो सकता है।
सम्भवान् । इसको सेवन करने वाला पुरुष अधिक स्त्री अभिचारकृतांश्चैव तथा शुक्रकृतान् पुनः ।। प्रसंग करे तो भी वीर्यक्षय नहीं होता । (1) निहन्याद्भक्षणादेव डाकिन्यादियुतांस्तथा।
बिल्वचूर्णजीरकाभ्यां मधुना सह पानतः ॥ (७१०७) वृहत्कनकसुन्दरो रसः
आमातीसारं ग्रहणीं ज्वरातीसारमेव च । ( रसे. सा. सं. ; भै. र. । अतीसारा.) ।
अग्निदीप्तिकरः शान्तः कासरोगनिकृन्तनः ॥ शुद्धमृतं गन्धं मरिच टङ्गणं तथा । क्षपयेद् भक्षणादेव मेहरोग हलीमकम् । स्वर्णवीज समं मर्य भार्गी द्रादिनाईकम् ॥ जीर्णज्वरं नूतनं वा द्विकालीनाञ्च सन्ततम् ॥ मृततुल्यं मृतश्चाभं रसः कनकसुन्दरः। प्रक्षिप्तं भौतिकं वापि हन्ति सर्वान् विशेषतः । अस्य गुञ्जाद्वयं हन्ति पित्तातीसारमुग्रकम् ॥ ऐकाहिकं द्वयाहिकं वा व्याहिकं चतुराहिकम्।।
For Private And Personal Use Only