Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 805
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि हलीमकं रक्तपित्तं मन्दाग्निमरुचिं तथा। तालमूली शताहा च त्रिकटु त्रिफला तथा । ग्रहणीमार्दवं काश्य जीर्णश्च विषमज्वर ॥ सूक्ष्मैला भूतकेशी च होबेरं नागकेशरम् ।। ... अभ्रक भस्म, लोह भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध पद्मकं जातीपत्रत्वक मधुयष्टि सरोचना । गन्धक, सुहागेकी खील, कुटकी, बच, जवाखार, जातीफलमुशीरं च त्रिता रक्तचन्दनम् ।। सज्जीखार, सेंधा नमक, कूठ, सेांठ, मिर्च, पीपल, धान्याकं कटुका क्षारौ नागवल्ली च शृङ्गिका । देवदारु, तेजपात, इलायची, दालचीनी, नागकेसर पुष्करावं शठी दारु शीसं लोहं च वङ्गकम् ॥ और कत्था समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक द्रव्याणीमानि सङ्गृह्य प्रत्येकं पलमात्रकम् । की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष- । खादेगलाग्निं सम्प्रेक्ष्य पथ्यं सेवेत्तु मानवः ॥ धियोंका चर्ण मिला कर सबको जयन्ती, चीते, स्निग्धभाण्डे निधायाथ नित्यं लियात्पलोधतूरे और भंगरके पत्तोंके रसमें खरल करके ४-४ न्मितम् । रत्तीकी गोलियां बनावें । अश्मरी मूत्रकृच्छं च मूत्राघातं विवन्धताम् ।। प्रमेहं विंशतिं चैव शुक्रदोषं तथैव च । अनुपान-जल या दूध । धातुक्षये चोष्णवाते वातकुण्डलिकादयः ॥ इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये। ते सर्व प्रशमं यान्ति भास्करेण तमो यथा । इसके सेवनसे ५ प्रकारके गुल्म, यकृत, नातः परतरं किश्चित्कृष्णात्रयेण पूजितः ।। प्लीहा, कामला, पाण्डु, शोथ, हलीमक, रक्तपित्त, गोखरु, और कुशकी जड १००-१०० अग्निमांद्य, अरुचि, ग्रहणी, कृशता, और जीर्ण पल ( प्रत्येक ६। सेर ); पाषाणभेद ४० तोले, . तथा विषम ज्वरका नाश होता है । गिलोय २५ तोले; अरण्डमूल और सतावर ९०-- (७११६) वृहद्गोक्षुराद्यवलेहः ९० तोले, कमलकन्द और असगन्ध १००-१०० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर - ( वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा.) पानीमें पका और ८ सेर पानी शेष रहने पर गोकण्टकं पलशतं कुशमूलं तथैव च । छान लें । तदनन्तर उसमें २ सेर गोघृत और पाषाणभेदोष्टपलं गुडूचीपलपञ्चकम् ॥ १ सेर शिलाजीत मिला कर पुनः पकावें और जब एरण्डो भीरुरष्टौ च मूलं दशपलं पृथक् । गाढ़ा हो जाय तो उसमें तालमूली, सोया, सोंठ, पद्ममूलं चाश्वगन्धा प्रत्येकं पलविंशतिः ॥ मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, छोटी इलासर्वमेकत्र सङ्कुटय जलद्रोणे विपाचयेत् । यची, भूतकेशी (जटामांसी), सुगन्धवाला, नागपादशेष तु साह्य वस्त्रपूतं समाक्षिपेत् ॥ केसर, पद्माक, जावत्री, दालचीनी, मुलैठी, बंसलो. गव्याज्यं प्रस्थमेकं तु शिलाजं च तथा स्मृतम्। चन, जायफल, ग्वस, निसोत, लाल चन्दन, धनिया, घनीभूते तु सञ्जाते द्रव्गाणिमानि दापयेत् ।।। कुटकी, जवाखार, सब्जीखार, पान, काकड़ासिंगी, For Private And Personal Use Only

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