Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
. [मकारादि
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__“ पञ्च वक्त रसः " (२) प्र. सं. ४२६५ स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, और हीरा भस्म देखिये । उसमें धतूरेके रसमें घोटनेके लिये लिखा । (पाठान्तरके अनुसार ताम्र भस्म) समान भाग ले है परन्तु मृत्युंजय रस में धतूररसकी भावना नहीं | कर सबको मूसली, मूषाकर्णी (चूहाकन्नी), बिजौरा लिखी । इसमें १ भाग पारदके स्थानमें २ भाग नीबू, केला और कौंचके रसमें ३-३ दिन खरल ' हिंगुल' भी डाल सकते हैं । बस यही | करके सुरक्षित रक्खें। . अन्तर है।
इसे उचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे (५६५५) मृत्युअयरसः (३)
राजयक्ष्मा, प्रमेह, जीर्ण ज्वर, अतिसार, संग्रहणी
और बहुमूत्रादि अनेक रोग नष्ट होते हैं। अधिक (र. रा. सु. । प्रमेह.; र. स. क. । उल्लास ४)
४ | तो क्या कहें, यह जरा मृत्युको भी नष्ट कर एकांशं प्रक्षिपेत्स्वर्ण रौप्यं वज्रश्च तत्समम् । | देता है। मुसल्या चाखुका च भाव्यं लुङ्गरसैस्त्रयहम् ॥ इसके सेवनसे शरीर वज्रके समान दृढ़ होता मोचात्मगुप्ता स्वररसैस्तदा मृत्युञ्जयो रसः। | और सैकड़ों स्त्रियोंको द्रवित करनेकी शक्ति प्राप्त सर्वरोगहरो ह्येष सेवितः पथ्यशालिभिः॥ होती है । वीर्य क्षीण नहीं होता और नपुंसक राजयक्ष्मादिरोगांश्च प्रमेहान् विंशतिस्तथा । पुरुष भी रमणी-प्रिय हो जाता है तथा सदैव जीर्णज्वरानतीसारान् ग्रहणों बहुमूत्रताम् । ऊर्ध्वलिंग रहता है। यह रस सौन्दर्य, बुद्धि, मेधा, तेन तेनानुपानेन नाशयेन्नात्र संशयः । दृष्टि, गमन शक्ति और श्रवण शक्ति आदिकी अत्यकिमत्र बहुनोक्तेन जरामृत्युहरस्तथा ॥ न्त वृद्धि करता है। वज्रदेहो भवेत्सेवी द्रावयेद्वनिताशतम् ।।
पथ्य-गेहूंके पदार्थ, उड़द, केला, पनस, नरेतसः क्षयस्तस्य पण्डोऽपि तरुणायते ॥
खजूर, बादाम, नारियल तथा मधुर पदार्थ । अर्द्धवलिङ्गः सदा तिष्ठेल्ललनायाः प्रियो भवेत्।। इसे १ वर्ष तक सेवन करना चाहिये । तप्तहाटकसंकाशः श्रीधीमेधाविभूषितः ॥
मात्रा-१ माशा। हयवेगो मयूराक्षो वाराहश्रुतिरेव सः।।
(व्यवहारिक मात्रा-आधी या १ रत्ती ।) अपरः कामदेवो वा मानिनीमानमर्दनः ॥
(५६५६) मृत्युञ्जयरसः (४) गोधूमजान्विकारांश्च मापानं कदलीफलम् ।
(र. रा. सु. । ज्वरा.) पनसं चापिखजूरं वातामं नालिकेरकम् ॥ मधुरश्च भजेत्याज्ञो वर्षमात्रमतिन्द्रतः ।
कर्ष शम्भूद्भवस्यैकं कर्ष स्यादरदस्य च । मात्रास्य माषप्रमिता सदा सेव्या नरोत्तमैः ॥
जैपालस्य च शुद्धस्य त्रयमेतदिनद्वयम् ॥
वृद्धदारुकनीरेण खल्वे कृत्वा विमर्दयेत् । १ ताम्रश्चेति पाठान्तरम् ।
ततोदुम्बरपर्णैश्च स्वरसेन विभावयेत् ॥
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