Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६९००) वङ्गमारणम् (५) और उसके स्वांग शीतल होने पर राखमेंसे वंग (र. र. स. । पू. अ. ५)
| भस्मको सावधानी पूर्वक निकाल लें । जो भाग
कच्चा रह गया हो उसे पुनः उसी प्रकार पुट लगा सतालेनार्कदुग्धेन लिप्त्वा वदलानि च ।
कर भस्म कर लें। बोधिचिश्चात्वचः क्षारैर्दद्याल्लघुपुटानि च ॥
(६९०२) वङ्गमारणम् (७) मर्दयित्वा चरेद्भस्म तद्रसादिषुःशस्यते ॥
(र. र. स. पू. अ. ५) __ हरतालको आकके दूधमें घोट कर बंगके
पलाशद्रवयुक्तेन वङ्गपत्रं प्रलेपयेत् । पत्रों पर लेप करके सुखा लें और उन्हें पीपल तथा
तालेन पुटितं पश्चाम्रियते नात्र संशयः ॥ इमलीके क्षारके बीचमें रख कर शरावसम्पुटमें
___ हरतालको पलाश (ढाक) की जड़के रसमें बन्द करके लघुपुटमें पकावें। जब तक भस्म न हो
घोट कर शुद्ध वंगके पत्रों पर लेप करें और उन्हें जाय इसी प्रकार पुट देते रहें ।
सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके पुट लगा दें। ( हरताल वंगके बराबर लेनी चाहिये ।) ।
___ इस विधिसे वंग अवश्य मर जाता है। (६९०१) वङ्गमारणम् (६)
(६९०३) वङ्गमारणम् (८)
(र. र. स. । पू. अ. ५) (र. प्र, सु. । अ. ४)
प्रद्राव्य खर्परे वङ्गं षोडशांशं रसं क्षिपेत् । छाणोपरि कृते गर्ने चिश्चात्वचूर्णकं क्षिपेत् ।
| स्वल्पस्वल्पाऽऽलकं दत्त्वा भारद्वाजस्य काष्ठतः। कर्षमानां वङ्गचक्रीं तत्रोपरि निधापयेत् ॥
| मर्दयित्वा चरेद्भस्म तद्रसादिषु शस्यते ॥ चक्री चतुर्गुणेनैव वेष्टितां धारयेत्ततः।
शुद्ध वंगको कढ़ाई में पिघला कर उसमें छगणेन विशुष्केण पुटाग्नि दापयेत्ततः ॥
उसका सोलहवां भाग पारद मिलावें और फिर स्वाङ्गशीतं समुदत्य सर्वकार्येषु योजयेत् ।
उसमें ज़रा ज़रासा हरतालका चूर्ण डाल कर कंघी अनेन विधिना शेषमपक्वं मारयेद्धृवम् ।। ।
( अतिबला ) की गीली लकड़ीसे चलाते रहें । इस एक बड़ेसे उपले ( कंडे ) में गढ़ासा बना क्रियासे ( ४-५ पहरमें ) वंग भस्म तैयार हो कर उस पर २॥ तोले इमलीकी छालका चूर्ण | जाती है । बिछा दें और फिर उस पर शुद्ध वंगका १। (हरताल वंगके बराबर लेनी चाहिये ।) तोलेका पतरा रख कर उसके ऊपर पुन: २॥ तोले (६९०४) वङ्गमारणम् (९) इमलीकी छालका चूर्ण रख कर उसके ऊपर दूसरा (वृ. यो. त.। त. ४१ ; आ. वे. प्र. । अ, ११) कण्डा रख कर दोनोंको सुतलीसे बांध दें । अब | वन्योत्पलोपरिस्थे तु गोणीखण्डे क्षिपेद्रजः । इसे ( शराव सम्पुटमें बन्द करके ) पुट लगादें तिन्तिणीवल्कलस्याथ तिलांस्तत्र विनिक्षिपेत् ॥
For Private And Personal Use Only