Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसमकरणम्
चतुर्थों भागः विनोदविद्याधररसः (३) मूलाति ग्रहणीं च शूलमतुलं यक्ष्मामयं कामलां
" विद्याधर रसः " प्र. सं. ७०४३ सर्वान्पित्तमरुद्गदान्किमपर्योगैरशेषामयान् ।। देखिये ।
विमल सत्व और शुद्ध पारद १-१ भाग ले (७०५५) विन्ध्यवासीयोगः कर दोनोंको एकत्र मिला कर इतना खरल करें (र. र. । राजय. ; च. द. । राजय. १०) | कि जिससे दोनों एक जीव हो जायं । तदनन्तरे व्योषं शतावरी त्रीणि फलानि वै बले तथा ।
उसमें १ भाग शुद्ध गंधक और ५ भाग शुद्ध सर्वमेहहरो योगः सोयं लोहरजान्वितः ॥
मनसिल मिला कर सबको खरल करके आतशी एषवक्षः क्षतं हन्ति कण्ठजां विविधां रुजाम् ।
शीशीमें भर कर बालुका यन्त्रमें पकावें और फिर
उसमें उसका दसवां भाग चांदी भस्म तथा वैकान्त राजयक्ष्माणमत्युग्रं बाहुस्तम्भादितन्तथा ॥
भस्म मिला कर अच्छी तरह खरल करें और वस्त्रसे सेठ, मिर्च, पीपल, शतावर, हरै, बहेड़ा, आमला, बला (खरैटी), अतिबला (कंघी); इनका |
छान कर शीशीमें भर कर सुरक्षित रक्खें । चूर्ण और लोह भस्म समान भाग ले कर सबको
इसमें त्रिकुटे और त्रिफलेका चूर्ण मिला कर एकत्र खरल करें।
घीके साथ सेवन करनेसे ज्वर, शोथ, पाण्डु, प्रमेह, इसके सेवनसे समस्त प्रकारके प्रमेह, उरःक्षत,
| अरुचि, अर्श, ग्रहणी, शूल, क्षय, कामला और अनेक प्रकारकी कण्ठ पीड़ा, उग्र राजयक्ष्मा, बाहु
वातपित्तज समस्त रोग नष्ट होते हैं। स्तम्भ और अर्दितका नाश होता है ।
(७०५७) विमलाशुद्धिः (७०५६) विमलरसायनम्
(र. मं.) ( र. र. स. । अ. २) जम्बीरस्य रसे स्विन्ना मेषशृङ्गीरसेऽथवा । तत्सत्वं मूतसंयुक्तं पिष्टं कृत्वा सुमर्दितम् । रम्भातोयेन वा पाच्यं घस्र विमलशुद्धये ॥ विलीनं गन्धके क्षिप्त्वा जायते त्रिगुणात्मकम्॥ विमलमाक्षिकको १ दिन जम्बीहरी, मेढासिंगी शिलां पञ्चगुणां चापि वालुकायन्त्रके खलु । या केलेके रसमें पकानेसे वह शुद्ध हो जाती है। तारभस्म दशांशेन तावद्वैक्रान्तकं मृतम् ॥
(७०५८) विरेकीरसः सर्वमेकत्र सञ्चूयं पटेन परिगाल्य च । निक्षिप्य कूपिकामध्ये परिपूर्य प्रयत्नतः ॥
(र. प्र. सु. । अ. ८) लीढो व्योषवरान्वितो विमलको युक्तो घृतैः। तुल्यं मूतटङ्कणं पलमितं गन्धात्पलं पिप्पलीसेवितो हन्यादुर्भगकृज्ज्वरान् श्वयधुकं पाण्डु- शुण्ठीग्रन्थिकव्योषकान् द्विपलिकान् प्रत्येकप्रमेहाऽरुचीः।।
भागान् कुरु ।
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