Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५८३७) योगराजलौहः
शुद्ध पारद ४० तोले और शुद्ध ताम्र चूर्ण (र. र. । कुष्ठा.)
१० तोले ले कर दोनोंको एकत्र मिलाकर इतना त्रिफलावाकुचीबीजं भृङ्गराजकटुत्रिकम् ।।
घोटें कि दोनों एक जीव हो जाएं । तदनन्तर गुडूच्यैडगजाबोज केशराज समुस्तकम् ।।
उसका गोला बना लें और एक लोहेकी कढ़ाई में धात्रीखदिरसिन्धृत्यं यमानीजीरकद्वयम् ।
१० तोले शुद्ध गन्धकका चूर्ण बिछा कर उस पर कान्तक्रामविडङ्गानि सर्वचूर्णानि कारयेत् ॥
वह गोला रख दें तथा उसके ऊपर भी १० तोले लाहं सर्वसमं ह्येष योगराज इति स्मृतः।।
शुद्ध गन्धकका चूर्ण डाल कर उस पर २० तोले सर्वकुष्ठविकारेषु विहितो लोहकोविदः ।।
सरसोंका तेल डाल दें और कढ़ाईको चूल्हे पर हर्र, बहेड़ा, आमला, बाबची, भंगरा, सांठ,
चढ़ा कर उसके नीचे मन्दाग्नि जलावें । तदनन्तर मिर्च, पीपल, गिलोय, पमाड़के बीज, काला भंगरा,
जब तेल शुष्क हो जाए तो अग्नि देनी बन्द कर दें
और कढ़ाईके स्वांग शीतल होने पर उसमें से गोनागरमोथा, आमला, खैरसार, सेंधा नमक, अज
लेको निकाल कर पीस लें। वायन, जीरा, काला जीरा, चुम्बक भस्म, सुपारीकी जड़ और बायबिडंग; इन सबका चूर्ण १-१ भाग अब शुद्ध बछनोग (मीठा विष), बच, सोंठ, तथा लोह भस्म सबके बराबर (२१ भाग) लेकर मिर्च और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा नागरसबको एकत्र खरल करके रक्खें ।
मोथे और बायबिडंगका चूर्ण ३-३ भाग लेकर इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं । सबको एकत्र मिला लें और यह चूर्ण तथा उपरोक्त (५८३८) योगामृतरसः
सिद्ध रस समान भाग ले कर दोनोंको शहदमें
घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें । ( र. का. धे. । कुष्ठा.)
इनके सेवनसे सुप्ति और मण्डल कुष्ठका नाश शुद्धसूतपलान्यष्टौ शुद्धतानं पलद्वयम् ।
होता है। चूर्णितं सूतकं मद्य कुर्यात्तन्नष्टपिष्टकम् ॥ शुद्धगन्धं द्विद्विपलं तत्तुल्यं कटुतैलकम् ।
(५८३९) योगीश्वरोरसः तयोर्मध्ये ताम्रपिष्टी लोहपात्रेऽल्पवहिना ॥
( भै. र. । प्रमेह.) पचेद्यावद्र्वं जीर्ण समुद्धृत्य विचूर्णयेत् ।
मृतसूताभ्रनागानां तुल्यभागं प्रकल्पयेत् । विषं वचा ज्यूषतुल्या भद्रमुस्ता विडङ्गकम् ॥ विषस्य त्रिगुणं योज्यं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ।।
महानिम्बस्य बीजोत्थं चूर्ण योज्यं त्रिभिःसमम्।। सर्व मृतसमं चूर्ण क्षौदामिनं वटी कतम मधुना लेहयेद् गुञ्जाद्वयं मेहप्रशान्तये । द्विगुनं भक्षित हन्ति प्रमुप्तिं मण्डलं तथा । | सक्षौद्ररजनी चाथ लेह्यं मापत्रयं सदा ॥ रसो योगामृतो नाम्ना ह्यनुपानं च पूर्ववत् ॥ असाध्यं नाशयेन्मेहं विद्याद् योगीश्वरो रसः ।।
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