Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
५४१
(६३९५) लोहनिरुत्थिकरणम् एकीकृत्य ततो यत्नात् लौहपात्रे प्रमर्दितम् ।
___ ( आ. वे. प्र. । अ. ११) घृतप्रलिप्तदान्तु स्वेदयेन्मृदुनाग्निना ॥ सर्वमेव मृतं लोहं ध्मातव्यं मित्रपञ्चकैः। .
द्रवीभूतं समाहृत्य ढालयेत् कदलीदले । यद्येवं स्यानिरुत्थं तु सेव्यं वारितरं हि तत ॥ चूर्णीकृत्य सुखार्थाय पथ्यभुग्भिः प्रसेव्यते ॥ मधुघृतगुग्गुलुगुञ्जाटङ्कणमेतत्तु मित्रपञ्चकं नाम।
| शीतोदकानुपानं वा काथं वा धान्यजीरयोः। मेलयति सप्तधातूनङ्गाराग्नौ प्रधमनेन ॥
""| लौहेन पर्पटी ह्येषा भक्ष्या लोकस्य सिद्धिदा ।। गन्धकेनोत्थितं लोहं तुल्यं खल्वे विमर्दयेत् । राक्तकका समारभ्य वद्धयद्राक्तका क्रमात् । दिनैकं कन्यकाद्रावै रुद्भवा गजपुटे पचेत् ॥
| सप्ताहं वा द्वयं वापि यावदारोग्यदर्शनम् ।।
मूतिकाञ्च ज्वरञ्चैव ग्रहणीमतिदुस्तराम् । इत्येवं सर्वलोहानां कर्तव्येयं निरुत्थितिः ॥ ____ लोह ( धातुओंकी ) भस्मोंको मित्रपञ्चकके
आमशूलातिसारांश्च पाण्डुरोगं सकामलम् ॥
प्लीहानमग्निमान्धश्च भस्मकश्च तथैव च । साथ घोट कर अंगारों पर ध्माना चाहिये, यदि इससे वह धातु जी उठे तो उसे कच्ची और न जिये
आमवातमुदावत कुष्ठान्यष्टादशैव तु ॥
एवमादींस्तथा रोगान् गराणि विविधानि च। तो पक्व समझना चाहिये । इस प्रकार परीक्षा
हन्त्यनेन प्रयोगेण वपुष्मान् निर्मलः सुखी ॥ करनेके पश्चात् वारितर पक्व लोहको ही सेवन
जीवेद्वर्षशतं पूर्ण वलीपलितवर्जितः। करना चाहिये।
भोजनं रक्तशालीनां त्यक्त्वा शाकं विदाहि च॥ शहद, घी, गूगल, गुंजा ( चौंटली ) और
वातमातपकोपञ्च चिन्तनं मैथुनं तथा । सुहागा; इन पांच चीज़ोंको मित्रपञ्चक कहते हैं। इनके योगसे सातों धातु अंगारों पर सपानेसे पर
प्रातरुत्थाय संसेव्या विधिनायुः प्रवर्द्धिनी ।। स्पर मिल कर एक जीव हो जाती हैं।
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग
ले कर दोनोंकी कजली बनावें और फिर उसमें यदि मित्रपञ्चकसे धातु जी उठे तो उसे
१ भाग लोह भस्म मिला कर सबको लोहेके खरल समान भाग गन्धकके साथ मिला कर एक दिन
| में घोटें । तदनन्तर उसे घृतलिस लोहेकी करछीमें घृतकुमारीके रसमें घोट कर यथा विधि गजपुटमें
डाल कर मन्दाग्नि पर पिघलावें और फिर उसे पकावें । इसी प्रकार जब तक वह धातु निरुत्थ न
| गायके गोबर पर बिछे हुवे केलेके पत्तेपर फैलाकर हो जाय बराबर पुट देते रहें।
| उस पर दूसरा कदलीपत्र फैला कर उसे गोबरसे 6 (६३९६) लोहपर्पटी
दबा दें और थोड़ी देर बाद दोनों पत्तोंके बीचसे ( भै. र. ; र. चं. ; र. र. ; र. रा. सु. । ग्रहण्य.) | पर्पटीको निकाल कर पीस लें। समौ गन्धरसौ कृत्वा कज्जलीकृत्य यत्नतः । अनुपान---शीतल जल, अथवा धनिये और शुद्धलौहस्य चूर्णन्तु रसतुल्यं पदापयेत् ॥ | जीरका काथ ।
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