Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
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मालतीवसन्तरसः ताम्रायोरजसी रूप्यं सौगन्धिककशेरुकम् ।
मालिनीवसन्तरसः जातीफलं शणाद्वीजमपामार्गस्य तण्डुलाः ॥ वसन्त मालती रस देखिये। एषां पाणितलं चूर्ण तुल्यानां क्षौद्रसपिंषा । (५६०६) मिहिरोदयवटी हिक्कां श्वासं च कासं च लीढमाशु नियच्छति॥
( आ. वे. वि. । शिरोरो.) अअनात्तिमिरं काचं नीलिकां पुष्पकं तमः । लौहमभ्रं सूवर्णश्च विद्रुमं राजपट्टकम् ।।
पैल्यं कण्डुमभिष्यन्दमर्म चैव प्रणाशयेत् ॥ सर्व समं प्रदातव्यं सिन्दरश्च द्विभागिकम् ॥ मोती, प्रवाल, वैडूर्य मणि, शंखनाभि, स्फटिका एरण्डमूलजेनैव रसेन परिभावयेत् । ( बिल्लौर ), अञ्जन (सुरमा), चन्दन, काचमणि, क्वाथैस्तथा जटामांस्या वटी रक्तिद्वयात्मिका ॥ आककी जड़की छाल, छोटी इलायची, सेंधा नमक, पथ्या पयोऽनुपानेन वटीयं मिहिरोदया। काला नमक, ताम्र, लोह, चांदी, सौगन्धिक (कमल अविभेदकं हन्ति पीता वातमनन्तकम् ॥ | भेद), कसेरु, जायफल, सनके बीज और अपासूर्यावर्त तथा शङ्खश्चैकजञ्च द्विदोषजम् । मार्ग (चिरचिटे) के तुष रहित वीज समान भाग त्रिदोषज शिरोरोग साध्यासाध्यं न संशयः॥ लेकर चूर्ण बनावें ।
लोह भस्म, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म, विद्रुम इसे शहद और घीके साथ खानेसे हिचकी, (मूंगा) भस्म और कान्त पाषाण (चुम्बक) भस्म | खांसी और स्वास नष्ट होता है तथा इसका अंजन १-१ भाग तथा रससिन्दूर २ भाग लेकर सबको लगानेसे तिमिर, काच, नीलिका, फूला, पैल्य एकत्र खरल करके एक एक दिन अरण्डमूल और (रोहे), आंखोंकी खाज, नेत्राभिष्यन्द और अर्म जटामांसीके काथमें घोट कर २-२ रत्तीकी | आदि नेत्र रोग नष्ट होते हैं। गोलियां बनावें।
___ नोट-इस प्रयोगमें ताम्रकी भस्म और अन्य ___इन्हें हर्रके चूर्ण (अथवा हरके मुरब्बे) और धातुओंका अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण लेना चाहिये । लोहकी दूधके साथ सेवन करनेसे अभवभेदक; अनन्त- भी भस्म ले सकते हैं। वात, सूर्यावर्त और शङ्खक आदि एक दोषज, द्वि
(५६०८) मुक्तापञ्चामृतरसः दोषज और सन्निपातज साध्य अथवा असाध्य शिरोरोग नष्ट होते हैं।
(यो. र. ; वृ. नि. र. । जीर्ण ज्वर.) (५६०७) मुक्तादिचूर्णम् मुक्तापवालखुरवङ्गककम्बुशुक्ति(च. स. । चि. अ. १७ हिक्काश्चा.)
भूति वसूदधिगिन्दुसुधांशुमागाम् । मुक्तामवालवैडूर्यशशस्फटिकमञ्जनम् । इक्षो रसेन सुरभेः पयसा विदारीससारगन्धकाचार्कसूक्ष्मैलालवणद्वयम् ॥
कन्यावरीसुरसहंसपदीरसैश्च ॥
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