Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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इनके सेवनसे क्षय, कुष्ठ, अर्श, प्रमेह, उदर- एकाहिकं द्वाहिकं च व्या हिकं च चतुर्थकम् । रोग, प्लीहा, अग्निमांद्य, मूत्राघात, विसूचिका, गल- रसो दत्तोनुपानेन ज्वरान्सर्वान् व्यपोहति ॥ रोग, कर्ण रोग, नेत्र रोग, शिरो रोग, श्वास, अफारा, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध बछनाग भगन्दर, अरुचि, छर्दि, भ्रम, पाण्डु, हलीमक. ( मीठा विष ) १-१ तोला; धतूरेके शुद्ध बीज दाद, कुष्ठ, कृमि रोग, उन्माद, आमवात, वातरक्त, ३ तोले तथा सोंठ, काली मिर्च और पीपलका चूर्ण वातव्याधि, तिमिर, अश्मरी, पीनस, शूल, शोथ, ४-४ तोले ( पाठान्तरके अनुसार २-२ तोले ) दाह और अम्लपित्तका नाश होता है तथा स्थूल, | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और स्थूल तर और कृश पुरुष समशरीर हो जाते हैं। फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको
(५५४१) महाज्वराङ्कुशः (१) भली भांति खरल करके रक्खें ।
( र. रा. सु. । ज्वर.; र. र. । ज्वरा.; र. इसे २ रत्ती मात्रानुसार जम्भीरी नीबूकी र. स. । अ. १२; रसें. चि. म. । अ. ९; र. मज्जा और अदरकके रसके साथ देनेसे एकाहिक चं. । ज्वरा.; रसें. सा. सं. । ज्वरा.; यो. र.। (इकतरा) द्वयाहिक, तृतीयक (तिजारी) और चरा.; वृ. नि. र.। विषम ज्वरा.; वृ. यो. त.। चातुर्थिक आदि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो त. ५९; र. का. धे. । विषम ज्वरा.; यो. त.। जाते हैं। त. २०; वै. र. । ज्वर.; र. मं. । ज्वरा. )
(५५४२) महाज्वराङ्कुशः (२) सूतं गन्धं विषं तुल्यं धत्तर्बीज त्रिभिः समम् । (भै. र. । ज्वर.; र. सा. सं.; र. र. । ज्वरा.) चतुर्णा द्विगुणं' व्योपर चूर्ण गुञ्जाद्वयं हितम्॥ पारदं गन्धकं तानं हिलं तालमेव च । जम्बीरस्य तु मज्जाभिराईकस्य रसेन तु । लौहं वङ्गं माक्षिकश्च खपरश्च मनःशिला ॥ महाज्वराशो नाम ज्वराणां मूलकृन्तनः ॥ मृताभ्रक गैरिकश्च टङ्गणं हेमतारकम् ।
र. र. स. में व्योष (त्रिकुटा) चारेके स- सवाण्यतानि पुरुषान पूणायत्वा विभावयत् ।। मान लिखा है । पथ्यमें दही भातका आदेश है और जम्बीरतुलसीचित्रविजयातिन्तिडीरसैः। इस रसको वातकफज ज्वमे उपयोगी बतलाया है। एभिर्दिनत्रयं रौद्र निर्जने खल्लगहरे ॥
___ २ र. रा. सु.; वै. र.; व. नि. र.; शा. सं.; गुञ्जामात्रां वटीं कृत्वा छायाशुष्काञ्च कारयेत्। भा. प्र. में महाज्वराकुंशका एक अन्य पाठ भी है । वह |
महाग्निजननी चैषां सर्वश्वरविनाशिनी॥ प्रयोग लगभग इसके समान ही है। केवल इतना ही अन्तर है कि उसमे व्योष (त्रिकुटे) के स्थानमें हेमा ह्व १ रसेन्द्र सार सं. में लोहका अभाव है तथा (चोक ) पड़ती है तथा अनुपानमें जीरेका चूर्ण भी र. र. में लोहके स्थानमें तुत्थ लिखा है एवं भावना लिखा है।
द्रव्योमे जम्बोरी तथा चित्रकके स्थानमें जयन्ती और ३ . यो. त; यो. र.; योगतरंगिणी; र. का. शालपणी लिखी है। धे, में स्वर्णक्षीरी की चार भावना देने के लिये लिखा है। २ टङ्गणं दन्तिधीजकमिति पाटान्तरम् ।
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