Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१७२
अहि हिङ्गुलटङ्कणं समांशं
स्वरस या काथ डाल कर पुनः पकावें । इसी प्रकार सकलैः स्यात्रिगुणं पुराणकिम् ॥ भंगरे, बासे और पुनर्नवा का भी आठ आठ गुना पशुमूत्रविशोधितं सुमृष्ट्वा । रस डाल कर पृथक् पृथक् पकावें । अन्त में जब
त्रिफलाभृङ्गरसाईकोत्थनीरैः। गोढ़ा हो जाए तो १-१ रत्तीकी गोलियां सुविशोष्य वरामृतालिवासा
बना लें। स्वरसैरष्टगुणैः पुनर्नवोत्यैः॥ इन्हें रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे पृथगनिकृतं घनं विपाच्य
ज्वर, पाण्डु, तृषा, रक्तपित्त, गुल्म, क्षय, खांसी, गुलिका गुअमिता निजानुपानैः। स्वर भंग, अग्निमांद्य, मूर्छा, वातव्याधि और अष्ट ज्वरपाण्डुतृषास्रपैत्यगुल्म
| महा रोगों एवं समस्त पित्त रोगों तथा मदात्ययका क्षयकासस्वरमग्निसादमूर्छाम् ॥
नाश होता है। पवनादिकदुस्तराष्टरोगान्
(५५०१) मधुकाचं लौहम् सकलं पित्तहरं मदाटतं च ।
(भै. र. । नेत्र.) बहुना किमसौ यथार्थनाम
मधुकं त्रिफलाचूर्ण लोहचूर्ण तथैव च । सकलव्याधिहरो मदेभसिंहः ॥
भक्षयेन्मधुसर्पिमिक्षिरोगशान्तये ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कौड़ी भस्म, ताम्र
___मुलैठी, हर्र, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण तथा भस्म, शंख भस्म, शुद्ध वछनागका चूर्ण, बंग
लोह भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र भस्म, अभ्रक भस्म, कान्त लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह ।
खरल करें। भस्म, मुण्ड लोह भस्म, नाग (सीसा) भस्म, शुद्ध
इसे घी और शहद के साथ सेवन करनेसे हिङ्गुल और सुहागेकी खील १-१ भाग तथा गो
नेत्र रोग नष्ट होते हैं। मूत्रमें शुद्ध पुराना मण्डूर सबसे ३ गुना (४२ भाग) ले कर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली
(मात्रा-५ से १० रत्ती तक। घी ६ माशे। बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर शहद २ तोले । ) सबको अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर उसे
(५५०२) मधुकाधवलेहः त्रिफला, भंगरा और अदरक के रसकी पृथक् पृथक्
( भै. र. । स्त्री.) एक एक भावना दे कर सुखा लें। मधुकं चन्दनं लाक्षा रक्तोत्पलरसाधनम् ।
अब उसमें उससे आठ गुना त्रिफला काथ | कुशवीरणयोर्मूलं बलावासकयोस्तथा ॥ मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें, जब यह काथ जल कोलमज्जाम्बुदं बिल्वं पिच्छा दारू च धातकी। जाय तो उतना ही ( रससे ८ गुना ) गिलोयका । अशोकवल्कलं द्राक्षा जवाकुसुममस्फुटम् ॥
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