________________
विसर्जन का महामस्तकाभिषेक करें १३
आचार्य भिक्षु के वचन में छिपा मर्म
अद्भूत मेधा और सूझबूझ के धनी थे आचार्य भिक्षु । जब उनसे किसी ने पूछा कि आपके उपाध्याय कौन हैं? आपके प्रवर्तक कौन हैं? तब उन्होंने कहा - 'सातों पदों का काम मैं अकेला ही कर रहा हूं।' उत्तरवर्ती कोई आचार्य इस तरह के किसी पद का सृजन करे तो इसके लिए उनकी मनाही नहीं थी, किन्तु हम उनके इंगित को समझें, उनकी भावना को समझें । अगर उनकी बात में छिपे मर्म को हम समझें तो स्वतः ही यह बात सामने आ जायेगी कि संघ में यह पूजा, प्रतिष्ठा, पद- लालसा, अहंकार न पनपे, संघ चिरायु रहे, इस हेतु उन्होंने यह दूरदर्शी दायित्व स्वयं संभाला था। उपाधियां और विशेषण जहां व्यक्ति के पीछे जुड़े, वहां अहंकार का प्रवेश हुआ। मैंने उज्जैन चातुर्मास में देखा एक मुनिजी को । उनका पट्टा लगा हुआ था । उस पर लिखे विशेषण पढ़ते-पढ़ते थक
गया।
उपाधि न जोड़ें
व्यक्ति इन उपाधियों से ढक जाता है। मैं अपने धर्मसंघ के हर सदस्य से कहना चाहता हूं कि कोई भी व्यक्ति किसी साधु-साध्वी या समण - समणी के पीछे अपनी इच्छा से कोई विशेषण न जोड़े। केन्द्र की स्वीकृति या संघपति के सिवाय कोई भी किसी के पीछे या स्वयं किसी प्रकार का विशेषण या उपाधि न जोड़े। आप इसे धर्मशास्ता का निर्देश मानें और भविष्य में इस संदर्भ में विशेष जागरूक रहें। जहां कहीं भी ऐसा देखें, तत्काल अंगुलि -निर्देश करें कि यह हमारे धर्मसंघ की विधि नहीं है। सेवाभावी चम्पालालजी स्वामी कहते थे कि भला साधु से भी बड़ा और कोई पद है क्या ? आचार्य कहां से आए? कहीं आकाश से तो नहीं। साधु से बड़ा कोई पद और विशेषण नहीं होता ।
Jain Education International
अक्षुण्ण रहे विसर्जन की परंपरा
विसर्जन की हमारी परंपरा अक्षुण्ण रहनी चाहिए। यह विसर्जन कोई राजनीतिक किस्म का नहीं है । जयाचार्य द्वारा यह सूत्र प्रदत्त है । हर अग्रणी जब चातुर्मास परिसंपन्न होने के बाद गुरुदर्शन करता है तो
و
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org