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२३. जयाचार्य : वर्तमान के सन्दर्भ में
राजस्थानी भाषा राष्ट्रीय भाषाओं की सूची में अभी नहीं है । फिर भी उसका साहित्य बहुत विशाल है । उसमें अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता है । प्राकृत और अपभ्रंश भाषा से उसका सीधा सम्बन्ध है | राजस्थानी के हजारों-हजारों शब्दों का मूल प्राकृत में खोजा जा सकता है । इसकी साहित्यिक श्रीवृद्धि में तेरापंथ धर्मसंघ का महत्त्वपूर्ण योग है। आचार्य भिक्षु, जयाचार्य और आचार्य तुलसी तथा अनेक मुनियों ने इस भाषा में विशाल साहित्य रचा है । जयाचार्य ने साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना की । पद्य और गद्य-दोनों में उन्होंने लिखा । उनके कुछ ग्रन्थ विशालकाय हैं । आगमों में सबसे बड़ा आगम सूत्र है - भगवती । उसका ग्रन्थमान सोलह हजार माना जाता है । अभयदेव सूरी ने संस्कृत में उस पर टीका लिखी । उसका ग्रन्थमान अठारह हजार है । जयाचार्य ने उस पर राजस्थानी भाषा में पद्यमय व्याख्या लिखी । ग्रन्थमान साठ हजार है। उनका दूसरा विशाल ग्रन्थ है- उपदेशरत्नकथाकोष । उसमें लोककथाओं के साथ-साथ पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएं भी संकलित हैं। उनका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है - भिक्षु दृष्टान्त । उसमें आचार्य भिक्षु के चार सौ संस्मरण संकलित हैं 1 संस्मरण-साहित्य की शृंखला में वह बहुत मूल्यवान है । अंग्रेजी समाचारपत्र 'पॉयनियर' में एक टिप्पणी प्रकाशित हुई थी, उसमें लिखा था - ' प्रस्तुत ग्रन्थ विश्व साहित्य में एक दुर्लभ ग्रन्थ है ।'
उसका
जयाचार्य के जीवन में तत्त्व-दर्शन और भक्ति का मणिकांचन योग है । कुछ लोग तत्त्ववेत्ता होते हैं, भक्त नहीं होते। कुछ लोग भक्त होते हैं, तत्त्ववेत्ता नहीं होते । जयाचार्य तत्त्ववेत्ता भी थे और भक्त भी थे। उन्होंने 'झीणीचर्चा, 'झीणोज्ञान', 'चर्चारत्नमाला' आदि ग्रन्थों में तत्त्ववाद
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