Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 219
________________ ३५. जैन परम्परा में सेवा का महत्त्व जैन साधुओं के लिए विहार करने का विधान है। अपवाद भी है-यदि शारीरिक स्थिति ठीक न हो, या बुढ़ापे के कारण चला न जा सके तो वे स्थिरवास भी कर सकते हैं। स्थिरवास रहना कोई नहीं चाहता। चर से स्थावर कौन बने ? परन्तु परिस्थितिवश बनना पड़ जाता है, यह दूसरी बात है। स्थिर का महत्त्व नहीं, महत्त्व होता है गति का, चलने का। जब स्थिरवास का महत्त्व नहीं तब शताब्दी किसकी मनायें? नहीं, महत्त्व स्थिर का नहीं, महत्त्व है सेवा का, संगठन का। शताब्दी उसी की स्मृति में मनाई जाती है। आज हमें इसकी शताब्दी मना रहे हैं। प्रश्न उठता है, मनुष्य संग्रह क्यों करते हैं? यदि हम सीधा समाधान खोजें तो यही है-जीवन की सुरक्षा के लिए मनुष्य में संग्रह की भावना जागृत होती है। वह सोचता है बुढ़ापे में रोग आएगा तब क्या होगा? बुढ़ापे में क्या होगा? इसकी चिन्ता उसे संग्रह करने को प्रेरित करती है। परन्तु तेरापन्थ की यह विशेषता है कि बुढ़ापे में किसी को सुरक्षा की चिन्ता नहीं रहती। साधु-साध्वी के कोई शिष्य नहीं होता; शिष्य एकमात्र आचार्य के होते हैं। फिर भी सुरक्षा के लिये शिष्य बनाने की कल्पना तक नहीं होती। हमारे दूरदर्शी आचार्यों ने शिष्य परम्परा के स्थान पर सेवा-भाव की वृत्ति देकर सुन्दर समाधान दिया। अन्यथा शिष्य बनने की भावना सहज होती। ___ एक साध्वी यदि बीमार पड़ती है तो उसकी सेवा के लिए १० या १५ जितनी आवश्यकता हो, साध्वियां तत्पर रहती हैं। प्रसंग भी आया है कि एक साध्वी के मार्ग में चोट लग गई। चलना दुष्कर हो गया। १५ साध्वियां उस घटना स्थल पर पहुंच गईं और उस साध्वी को कन्धों पर बिठाकर सुखपूर्वक स्थान पर ले आई। यह है तेरापन्थ शासन की सेवा भावना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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