Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 224
________________ २१० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ उसके अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षावास के पचासवें दिन तथा सत्तर दिन शेष रहने पर वर्षावास की पर्युषणा की। प्राचीन परम्परा भाष्य और चूर्णिकालीन परम्परा पर्युषणा की प्राचीन परंपरा है। निशीथ चूर्णि के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से प्रारम्भ कर पचास दिन तक पर्युषण की स्थापना की जाती थी। सामान्यतः संवत्सरी के प्रथम दिन पर्युषण की स्थापना की जाती थी। कारणवश परिवर्तन करना होता तो अन्तिम तिथि भाद्रपद शुक्ला पंचमी होती-“ताहे भद्दवया जोण्हस्स पंचमीए पज्जोसवंति।” ___ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन पर्युषणा करना उत्सर्ग मार्ग बतलाया है। अपवाद मार्ग में पांच-पांच बढ़ाने का निर्देश प्राप्त है। इसका नियम यह रहा कि पर्युषण पर्व तिथि में होना चाहिए, जैसे-पूर्णिमा, पंचमी और दसमी। अपर्व तिथियों में पर्युषण करने का निषेध है। चतुर्थी को अपर्व तिथि माना गया है। कालकाचार्य ने चतुर्थी के दिन संवत्सरी की, वह सामान्य विधि नहीं है। चूर्णिकार ने उसे कारणिक-किसी प्रयोजन विशेष से किया गया उपक्रम बतलाया है। उन्होंने लिखा है- “एवं जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारणे पवतिता।" पर्युषणाकल्प में स्पष्ट उल्लेख है कि पर्युषणा के लिए पंचमी का अतिक्रमण नहीं होना चहिए। आधुनिक परम्परा आधुनिक परम्परा में पर्युषण के स्थान पर संवत्सरी शब्द का प्रयोग हो रहा है। पर्युषणा शब्द का प्रयोग संवत्सरी के सहायक दिनों के लिए होता है। पर्युषणा का मूल रूप संवत्सरी के नाम से प्रचलित हो गया। प्राचीन काल में पर्युषणा का एक ही दिन था। वर्तमान में अष्टाह्निक पर्युषणा मनाई जाती है। संवत्सरी का पर्व आठवें दिन मनाया जाता है। दिगम्बर परम्परा में आधुनिक संवत्सरी के संदर्भ में संवत्सरी शब्द का प्रचलन नहीं है। उनकी परम्परा में दस लक्षण पर्व मनाया जाता है। सामान्य विधि के अनुसार उसका प्रथम दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन होता है। श्वेताम्बर परंपरा में पंचमी से पहले सात दिन जोड़े गए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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